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कासनी पर्वत-रेखाओं पर तने सुनील आकाश

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अनुकृति उपाध्याय का कहानी संग्रह ‘जापानी सराय’ अभी हाल में ही आया है राजपाल एंड संज प्रकाशन से, जिसकी कहानियां अपने कथन, परिवेश, भाषा से एक विशिष्ट लोक रचती है. अनुकृति के यात्रा वर्णनों की भी अपनी विशिष्टता है. उनके लेखन में परिवेश जिन्दा हो उठता है. यह यात्रा कुमाऊँ के एक गाँव की है- मॉडरेटर 

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रास्ता जनवरी के रूखे सूखे पहाड़ों से हो कर जा रहा है। दृष्टांत तक पर्वत। पर्वत श्रेणियों के पीछे छायाकृतियों सी और, और पर्वत श्रेणियाँ। चीड़ और देवदारु की पाँतें, आकाश में गोधूलि। कुछ रंग बस पहाड़ों के लिए ही बने हैं। जैसे हरा और नीला और कासनी। इस क़दर पक्के रंग कि पहाड़ों से लौटने पर भी मन का एक हिस्सा इन रंगों में डूबा रहता है, कासनी पर्वत-रेखाओं पर तने सुनील आकाश और चीड़-वनों की निविड़ हरी शांति में रमा।

भुरभुरी ढलानों और चट्टानी ऊँचाइयों को काट- छाँट, गोद-गाद कर जगह- बेजगह घर बने हैं। गाँव-घर वाले घर, बँगले, विशाल कंकरीटी होटल। घाटी की शांति को हफ़्ते भर  तक नव वर्ष मनाते सैलानी पंजाबी गीतों की दुर्दम्य गतों से कँपा रहे हैं।

– ये फ़लाँ जरनल साहब का बँगला है, ये अलाँ क्रिकेटर का और वह ढिमाका एक्टर का। ये नए फ़्लैट बन रहे हैं, वहाँ एक रिज़ॉर्ट, पाँच सितारा। विदेश से एंजिनियर आए थे, छः महीने के लिए…

– अच्छा, वो सब ठीक लेकिन उस पहाड़ का क्या नाम? उस नदी का? वहाँ, घाटी में कौन गाँव? ये पेड़ पर क्या हैं? इतने बड़े नींबू?

– (अचम्भे से हँसते हुए) पहाड़, पेड़ का आपको क्या करना?

– तुम बताओ सही।

– वो पहाड़ धुआधार है। शंकर महादेव ने अपनी धुजा गाड़ी थी कैलास मानसरोवर को जाते।

ध्वजाधर पर्वत। अनगढ़, मिट्टी का भंगुर पहाड़। यहाँ यति शिव ने यात्रा में विराम लिया, अपनी ध्वजा स्थापित की, एक घटी साधना की और आगे को चल पड़े। एक मंदिर है, छोटा कैलाश।

– मंदिर कितनी दूर यहाँ से?

– ज़्यादा नहीं। लेकिन आप लोगों के लिए तो ऊँचा ही है। हमारे बच्चे सुबह को जाते हैं तो दोपहर तक परिक्रमा करके लौटते हैं। आप गाड़ी से जाना जितनी दूर तक हो सके।

– हम भी जा सकते हैं। पहाड़ों में घूमे हैं।

– मैदान के लोग थोड़ा… पहाड़ है, ऊपर-नीचे है, आप को चीड़ का जंगल दिखाता हूँ।

वह कहता नहीं लेकिन मैं सुन लेती हूँ – मैदान के लोग कमज़ोर ही होते हैं, तिस पर दूर सागर-तट के महानगर से आए तो और भी नाज़ुक। ये चाहिए, वो चाहिए, गर्म पानी, सारी रात हीटर। रास्ते में गिर-गिरा जाएँगे…

मैं चीड़वन से बहल जाती हूँ किंतु। चीड़ और देवदारु की सुवास। मुलायम तीलियों सी पत्तियों से लदी-फँदी शाखाएँ। धरती पर शहतीरों सी खिंची छायाएँ। चीड़ के कठियल, शंकु-सरीखे फलों से रिसती रेज़िन से अंगुलियाँ सुगंधित हुईं और चिपचिपी भी। पहाड़ी काग बोल रहा है, जैसे हवा में धातुई छल्ले गिर रहे हों। नीचे झाड़ियाँ बुलबुलों से झुनझुनों-सी झनक रही हैं। और उनसे भी नीचे, बहुत नीचे घाटी में कलसा की फेनिल धारा है।जल में नहाते पत्थर धूप में चमक रहे हैं।  

– नदी पर लोग हैं?

– औरतें हैं। कपड़े धो रही हैं। पास दिखती है नदी लेकिन है बहुत दूर। जाने में यहाँ से दो घंटा। पत्थल-झाड़ वाला रास्ता।

– वो औरतें कैसे पहुँची?

– (वही अचंभित दृष्टि) पहुँच गईं। बिना जाए काम कैसे चले?

एक चिड़िया चीड़ की टहनियों में फुदक रही है। गहरे रंग की। जापानी पंखे सी पूँछ खोलती है तो पंखों में छिपे फ़िरोज़ी-नीले रंग से डाल उद्भासित हो जाती है। पर फुला, पीली चोंच उठा वह सीटी-स्वर में पुकारती है।

– अरे, देखो ब्लू विस्लिंग थ्रश!

– ये तो कलचुनिया है! ये और मैनाएँ दिन भर शोर करती हैं।

– और वो जोड़ा? वहाँ सड़क-किनारे मिट्टी में?

– हम मूसिया चिड़ा कहते हैं। धरती खोदते रहते हैं, जैसे मूस! पहले नालों में दीखते थे, वहाँ बाँध बन गए हैं। अब सड़क के किनारे, मेंड़ों पर, यहाँ- वहाँ…

जगह-जगह दिख जाती हैं ये गदबद चिड़ियाँ, पहाड़ की मिट्टी सी ललौहीं-भूरी। बाँधों ने इन्हें बेठौर का कर दिया है।और भी जाने कितनों को।

एक कुत्ता हमारे साथ साथ आया है। काला, मख़मली, शांत आँखें। हमें रास्ता दिखाता, टहलता-सा, बेफ़िक्र समांतर चलता। छबरी पूँछ ज़रा-ज़रा हिलती है।  आगे बढ़ाई डबलरोटी ले कर खा लेता है। सहलाने को बढ़े हाथ से अलग हट जाता है किंतु। स्वायत्त और आश्वस्त, सहचर और एकाकी। सहसा थमकता है और हवा में थूथन उठा कुछ सूँघने लगता है। एक कत्थई, बालदार पशु, घुमावदार सींग और नुकीले कान वाला, रास्ते के उस ओर से कुलाँच भरता आता है और इस ओर की झाड़ियों में गुम। मैं झाड़ियों में झाँकती हूँ। नीचे घाटी तक खड़ी ढाल है।

– अरे किधर गया? कौन था?

– थार था। इतनी देर रुकेगा?! अब तक तो तल्ला सेला के नीचे!

थार या टाहर। जंगली बकरी।पहाड़ों के दूसरे बाशिंदों सा सीधी चढ़ाइयों और धार सी ढलानों पर निर्द्व्न्द्व फिरता, बँटे हुए खुरों से चट्टानों में पैर जमा विरल घास-पात चरता।

रास्ता अब सड़क होने लगा है। चार गाएँ हाँकती एक औरत डंडे से धरती ठोकती है और बिन-दाँतों की मुस्कराहट खोलती है। सड़क की बग़ल बग़ल खेत और घर। हर घर में एक बेतहाशा भौंकता पहाड़ी कुत्ता, एक नाटी गाय, खुलेपन से हँसती लड़कियाँ, गोलमोल बेहद प्यारे शिशु। एक आदमी खोद-खाद में लगा है। मैं रुक जाती हूँ।

– बड़ी ठंड है।

– ( काम रोक मुँहभर हँसता है।)

– खेत में क्या लगा है? क्या बना रहे हैं?

– मटर लगे हैं। कमरा बना रहा हूँ। अगले सीज़न किराए पर दे दूँगा, कुछ पैसे निकल आएँगे। खेती से कहाँ गुज़ारा?

– ये बच्चे?

– (गर्व से हँसता है) स्कूल जाते हैं।

– अच्छा पढ़ते हैं?

– ये फ़ेल हो गई (छोटा शोख़ लड़का बड़ी बहन की ओर इशारा करता है।)

– ये कौन फल है?

– (हाथ बढ़ा कर दो तीन बड़े पीले, नींबू से फल तोड़ कर) जमीरी हैं। ले जाइए, पहाड़ की कढ़ी बनती है इनसे।

खेती से खाने भर का कमाने वाला, ठंड में गीली मिट्टी खोदता वह जन हाथ हिला कर मना करता है, पैसे नहीं लेता। मेरे इसरार पर लड़की आगे आती है और नोट ले लेती है।

थोड़ा आगे दो-तीन दुकानें हैं।

– पाँच भाइयों की दुकान! ये कैसा नाम है?!

– पाँच भाई हैं, उनकी दुकानें। और क्या नाम हो? चक्की, पंसारी, मोबाइल-ओबाइल सब कुछ। वो कोने वाली इनके चाचा की है।

छोटी सी दुकानों में बर्नियों, बोरियों में थोड़ा थोड़ा सामान। नाप, तौल कर पुड़िया बाँधता आदमी हँसता है। एक बूढ़ी औरत लाठी टेकती आती है। मेरे पास से निकलते, रुक कर मेरे सिर-मुँह पर हाथ फेर अपनी भाषा में बुदबुदाती है। बिना भाषा जाने भी मैं जान लेती हूँ कि असीस रही है। फटा कम्बल ओढ़े, पहाड़ से कठोर हाथों वाली वह औरत नर्म आशीः से मुझे समृद्ध कर देती है।

फ़ेल होने वाली लड़की दुकान की ओर चली आ रही है। मैं बिस्कुट के पैकेट ख़रीदती हूँ।

– ये लो। ख़ुद खाना और भाइयों को देना। फ़ेल मत होना अबके। भाई चिढ़ाएगा।

– बोर्ड की परीक्षा मटर फलने के टाइम पर आती है। दिन भर चिड़ियाँ न उड़ाओ तो कुछ न बचे। पढ़ूँ कब?

लकड़ी के धुँए और पकती रोटियों की गंध आने लगी है, तोक सेला,तल्ला सेला, मल्ला सेला के घरों से। भीमुल, दूदीला, काफल, तुन वृक्षों पर साँझ राख सी झर रही है। एक पंछी कूजता है।

– लंबपुँछिया है। गलगल के पेड़ में गा रहा है। अब लौटिए।

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