आज महात्मा गांधी की पुण्यतिथि है. एक समाचारपत्र के लिए महात्मा गांधी की समकालीन छवियों पर लिखा था. आज उनकी स्मृति में समय हो तो पढ़कर बताइयेगा- प्रभात रंजन
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असगर वजाहत के नाटक गोडसे@गांधी.कॉम में नवीन नामक एक विद्यार्थी गांधी जी के पास आता है। गांधी जी उससे पूछते हैं कि तुम क्यों आये हो? वह जवाब देता है- आपके दर्शन करने! यह सुनकर गांधी जी जवाब देते हैं- ‘दर्शन? क्या मैं तुम्हें मंदिर में लगी मूर्ति लगता हूँ?’ यह एक बड़ा सवाल है जो आज के युवाओं को कक्षा में पढ़ाते हुए उठ खड़ा होता है कि क्या गांधी महज एक मूर्ति बने रहे? मुझे अपने बचपन का एक प्रसंग याद आता है। बिहार के छोटे से कस्बे सीतामढ़ी को सीता की जन्मभूमि के रूप में जाना जाता है। वहां एक विशाल जानकी मंदिर है। उस मंदिर में राम-सीता की मूर्ति के सामने संगमरमर की बनी गांधी की एक स्मित मूर्ति है। गाँव-देहात से मंदिर में दर्शन करने आने वाले लोग बहुधा सहज भाव से उनकी मूर्ति के सामने भी प्रसाद रख देते थे। कुछ बच्चे मूर्ति के खुले मुंह में प्रसाद भी डाल देते थे।
शहर-शहर गाँधी के पुतले लगे हैं, उनके नाम पर सड़कें बनी हुई हैं, शिक्षा संस्थान हैं। क्या उनके विचारों की कुछ उपयोगिता भी है आज के जीवन में? स्कूल के पाठ्यक्रम से लेकर कॉलेज तक गांधी सबसे अधिक पढाये जाते हैं, अलग-अलग विषयों में पढाये जाते हैं। लेकिन शायद हमने पाठ्यक्रमों में महात्मा गांधी के महात्मा रूप पर अधिक जोर दिया गांधी पर कम। शायद इसीलिए वे आज के युवाओं को अपने बहुत पास भी लगते हैं और दूर भी। 1915 में जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत आये थे तो आने के बाद आरम्भ में जिन स्थानों की यात्रा पर गए थे उनमें शान्तिनिकेतन भी था। शान्तिनिकेतन से लौटते हुए विद्यार्थियों को महात्मा गांधी ने यह सलाह दी थी कि विश्वविद्यालय में बावर्ची का खर्च बचाने के लिए उन लोगों को अपना भोजन स्वयं बनाना चाहिए। विद्यार्थियों ने उनकी बात मानी या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन गांधी इस तरह की छोटी-छोटी सीखों के लिए याद किये जाने चाहिए न कि अपनी उस विराट छवि के लिए जो सोहनलाल द्विवेदी की इस कविता में है- चल पड़े जिधर दो डग, मग में/चल पड़े कोटि पग उसी ओर/गड़ गई जिधर भी एक दृष्टि/गड़ गए कोटि दृग उसी ओर… गाँधी को पढ़ाते हुए, गांधी के बारे में बात करते हुए यह संशय बराबर बना रहता है कि महात्मा के बारे में बताएं या गांधी के बारे में, जो अपने कर्मों से महात्मा बना।
गांधी हमेशा युवाओं के, विद्यार्थियों के बहुत पास रहे हैं और उतने ही दूर भी। जिन दिनों हम पढ़ते थे तब पाठ्यक्रमों में उनके महात्मा रूप में बारे में कवितायेँ पढ़ते थे, ‘सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो बापू की ये अमर कहानी’ जैसे गीत सुनते थे, बापू के तीन बन्दर की कहानी पढ़ते थे लेकिन कक्षा के बाहर ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ जैसे मुहावरे सुनते थे। महात्मा पास लगते थे गांधी दूर।
अभी हाल में ही सोपान जोशी की दो किताबें आई हैं- ‘बापू की पाती’, जो तीसरी से आठवीं कक्षा के बच्चों के लिए है और दूसरी किताब है ‘एक था मोहन’ जो नौवीं से बारहवीं कक्षा के बच्चों के लिए है। किताबें बिहार सरकार ने लिखवाई हैं और इनका उद्देश्य है बच्चों के जीवन से गांधी के जीवन से जोड़ना। गांधी को रोज पढ़ाया जाना है ताकि विद्यार्थी उनके जीवन से प्रेरणा लें उनको महात्मा मानकर उनके जन्मदिन, शहीदी दिवस, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस के दिन ही याद करके साल भर उनको भुलाए न रहें। ‘एक था मोहन’ किताब में सोपान जोशी ने गांधी जी के जीवन की कथा एक साधारण व्यक्ति के रूप में कही गई है। जैसे, इसमें यह लिखा है कि मोहनदास कोई साहसी बालक नहीं थे, किताबी पढ़ाई-लिखाई में बहुत मेधावी बालक नहीं थे, लेकिन उनमें जिज्ञासा बहुत थी। वे महात्मा स्कूल या कॉलेज की शिक्षा से नहीं बने बल्कि जीवन की शिक्षा ने उनको महान बनाया। बहुत रोचक शैली में आज के बच्चों को यह किताब न केवल बच्चों को उनके जीवन से जोड़ने वाली है बल्कि प्रेरक भी है। अध्ययन-अध्यापन में यह एक बड़ा फर्क आया है। पहले महात्मा गांधी में ‘महात्मा’ शब्द पर जोर रहता था अब ‘गाँधी’ शब्द पर जोर बढ़ रहा है। नई पीढ़ी उनका नए सिरे से पुनराविष्कार कर रही है।
युवा इतिहासकार सदन झा का अनुभव इस सम्बन्ध में दिलचस्प है, ‘मैं हाल में अहमदाबाद के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में उत्तर औपनिवेशिकता और इतिहास पढ़ा रहा था। जाहिर है, गांधीजी एवं उनके द्वारा तैयार की गई आधुनिकता की आलोचना तथा पश्चिमी विज्ञान की आलोचना के चर्चा के बगैर एवं गैर पश्चिमी समाज यथा भारत के अनुभवों के बगैर यह संवाद अधूरा रहता। तो मैंने किसानों एवं गांवों की बात करने से पहले कक्षा में उपस्थित विद्यार्थियों से पूछा कि उनमें गाँव से सम्बन्ध रखने वाले कितने विद्यार्थी हैं, जवाब शून्य। मैंने फिर पूछा किस किस ने गांव देखा है? जवाब फिर से शून्य। यह नया शहरी तबका है जिसके लिए गांधीजी किसी इतिहास या विचारधारा में कैद नहीं हैं। यह युवा तबका गांधीजी में खुला भविष्य देखता है।‘ गांधी का भारत गाँवों के बिना अधूरा था। वे ग्राम-स्वराज की बात करते थे लेकिन आज शहरी समाज उनके विचारों में अपनी समस्याओं का निदान देखने लगा है।
पहले गांधी के जीवन को पढ़ा जाता था। अब उनके विचारों की तरफ युवा वर्ग का ध्यान नए सिरे से जा रहा है। गूगल पर महात्मा गांधी का नाम टाइप कीजिये और असंख्य पेज खुल जाते हैं। आप अपने फोन के ऐप स्टोर में गांधी शब्द टाइप कीजिये और करीब दो दर्जन ऐप आ जाते हैं। हाल के सालों में सबसे अधिक बिकने वाली किताबों में रामचंद्र गुहा की दो खण्डों में गांधी पर किताबें हैं ‘गांधी बिफोर इण्डिया’ और ‘गांधी: द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड 1914-1948’। समाज में जैसे जैसे एकवचनीयता बढती जा रही है बहुवचनीयता के इस सबसे बड़े विचारक की प्रासंगिकता बढती जा रही है। जब मैं छोटा था तो स्वतंत्रता दिवस समारोह में या विशेषकर 2 अक्टूबर को अपने शहर में जगह-जगह लाउडस्पीकर पर ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल/ साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ बजता सुनाई देता था। अब इस तरह के गीत सुनने को नहीं मिलते लेकिन हाल में शहरों में जिस तरह से युवा शांतिपूर्ण आंदोलनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने लगे हैं, नैतिकता-अनैतिकता के सवाल पर बहस करने लगे हैं उससे गांधी की याद आती है। रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक ‘गांधी: द ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड 1914-1948’ में लिखा है कि आइन्स्टाइन गांधी को ‘सर्वोच्च नैतिक दिशासूचक’(सुप्रीम मोरल कम्पास) मानते थे। यह नए गांधी हैं जो आज के विद्यार्थियों के फोन में उसके साथ चलते हैं, उसके साथ रहते हैं। ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्म में मुन्नाभाई पुस्तकालय में जाकर गांधी को पढता था। आज गांधी टेक्स्ट, ऑडियो, वीडियो सभी रूपों में युवाओं के फोन में मौजूद हैं। महात्मा अपनी मूर्तियों से बाहर निकलकर गांधी बन रहे हैं।
अंत में, अभी हाल में एक विद्यार्थी ने व्हाट्सऐप पर सन्देश भेजा- ‘आज के नेता गांधी के रामराज्य को याद नहीं करते वोट के लिए राम-राम करते रहते हैं!’
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