संदीप नैयर को मैंने पढ़ा नहीं है लेकिन फेसबुक पर उनकी सक्रियता से अच्छी तरह वाकिफ हूँ. उनका उपन्यास मेरे पास हिंदी और अंग्रेजी अनुवाद दोनों रूपों में उपलब्ध है. समय मिलते ही पढूंगा. उनके साथ यह बातचीत की है युवा लेखक पीयूष द्विवेदी ने- मॉडरेटर
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सवाल – आप विदेश में रहते हैं और आधुनिक आचार-विचार के व्यक्ति हैं, फिर पहली किताब में एक काल्पनिक ऐतिहासिक कहानी लिखने का मन कैसे बन गया? कहीं अमीश त्रिपाठी से प्रभावित होकर तो नहीं?
संदीप – इतिहास से मेरा गहरा लगाव रहा है। हम सभी का अतीत के प्रति एक नास्टैल्जीया है। अपने ज़ाती माज़ी के प्रति भी और अपने सामूहिक अतीत के प्रति भी। हर कौम को अपने अतीत में कहीं न कहीं उनका स्वर्णिम काल दीखता है। उसके प्रति उनमें एक तीव्र ललक होती है। प्रेम में भी एक नास्टैल्जीआ होता है। मैंने डार्क नाइट में लिखा है – प्रेम की ललक अतीत के प्रेम की ललक होती है। हर प्रेम में हम कहीं न कहीं अपना पुराना प्रेम ढूँढते हैं। यह बात देशप्रेम में भी होती है। अधिकांश देशप्रेमी इतिहास से देशप्रेम की प्रेरणा लेते हैं। ऐतिहासिक चरित्र उनके नायक होते हैं। साहित्य में भी पुराने क्लासिक्स के प्रति एक अलग ही तरह का लगाव होता है। अंग्रेज़ी की किताबों में मैंने बाल साहित्य के बाद जो पहली दो किताबें पढ़ीं थीं, वे पण्डित नेहरू की ‘द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ और ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ थीं। तो इतिहास से रोमांस पुराना है। विदेश आकर यह नास्टैल्जीआ और भी बढ़ गया।
अमीश से सीधे-सीधे तो कोई प्रेरणा नहीं ली, मगर अमीश ने ऐतिहासिक गल्प की लोकप्रियता के लिए जो ज़मीन तैयार की उस पर समरसिद्धा का छपना सरल हो गया। प्रकाशकों की अचानक से ऐतिहासिक गल्प में रूचि बढ़ गई और मुझे पेंगुइन रैंडमहाउस जैसा प्रतिष्ठित प्रकाशक मिल गया।
सवाल – अपने दूसरे उपन्यास डार्क नाईट में आपने आज के युवा वर्ग की प्रेम, सेक्स, अवसाद जैसी समस्याओं को विषय बनाया है। एक ही किताब के बाद इतिहास से मोहभंग हो गया क्या?
संदीप – मोहभंग जैसा तो कुछ नहीं है। अभी समरसिद्धा की उत्तरकथा यानी भाग-2 लिखने पर विचार चल रहा है। प्रकाशक से चर्चा भी हो चुकी है। मगर जो बात मुझे ज़रूरी लगती है वह यह कि साहित्य को विविधता चाहिए। हिंदी साहित्य में विविधता अपेक्षाकृत कम है। डार्क नाइट की जो विधा है जिसे मैं इरॉटिक रोमांस कहता हूँ, उस पर तो हिंदी में बहुत ही कम लिखा गया है। इन दिनों भी कुछ ख़ास नहीं लिखा जा रहा। ये भी एक विडम्बना है कि हिंदी साहित्य में रीति काल के बाद आधुनिक काल में साहित्य से कामुकता लगभग गायब ही हो गई। इसमें अंग्रेज़ों के दिए विक्टोरियन संस्कारों की बहुत बड़ी भूमिका है।
हिंदी में एक ग़लतफ़हमी भी है कि जिस भी रचना में सेक्स का चित्रण हो, उसे इरॉटिका कह दिया जाता है। मगर सेक्स के कोरे चित्रण से कोई रचना इरॉटिका नहीं हो जाती। सेक्स का कोरा चित्रण पोर्न होता है। इरॉटिका और इरॉटिक रोमांस अलग विधाएँ हैं, जिनमें व्यक्ति की यौन इच्छाओं और यौन कल्पनाओं का भी चित्रण होता है और उसका उसकी मानसिकता और उसके यौन सम्बन्धों पर प्रभाव का भी ज़िक्र होता है। इरॉटिका का उद्देश्य मात्र उत्तेजना देना नहीं होता। इरॉटिका और इरॉटिक रोमांस पढ़ते वक़्त पाठक पात्रों से भावनात्मक लगाव भी महसूस करता है। साहित्य वही है जो पाठक के मन को भी छुए। चेतना को भी विस्तार दे।
सवाल – ‘डार्क नाईट’ के जरिये आपने क्या सन्देश देना चाहा है?
संदीप – पहली बात तो यह कि मैं साहित्यकार पर सन्देश देने का बोझ पसंद नहीं करता। साहित्य के लिए सन्देश देना अनिवार्य नहीं है। साहित्य क्या किसी भी कला के लिए नहीं है। हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने लिखा है कि कला का उद्देश्य चेतना को परिष्कृत करना है। मैं भी यही मानता हूँ।
दरअसल सन्देश और विचार का महत्त्व और उनकी अनिवार्यता हमने पश्चिम से ली है। पश्चिम में मध्यकाल में विचार का इतना अधिक दमन हुआ और उन्होने स्वतंत्र विचार के लिए इतना अधिक संघर्ष किया कि वे विचार को सर्वोपरि मानने लगे। मगर हमारी संस्कृति में विचार को गौण माना गया है। विचारातीत अवस्था को महत्वपूर्ण माना गया है। प्रसिद्ध गल्पशास्त्री जोसेफ़ कैम्पबेल भी यही कहते हैं कि उत्कृष्ट कला वही होती है जो विचारों के परे असर करती है, व्यक्ति को एक एस्थेटिक अरेस्ट देती है, बाँध देती है।
फिर एक बात और कि साहित्य में रस का भी अपना महत्त्व है। साहित्य जिसमें सिर्फ़ ज्ञान और सन्देश हों मगर रस न हो वह पाठकों को बाँध नहीं पाता। मगर फिर भी, डार्क नाइट में रस के साथ ज्ञान और सन्देश भी हैं। मूल सन्देश तो प्रेम, यौन और सौन्दर्य के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण का है। मैंने पुस्तक की भूमिका में ही प्रसिद्ध ब्रिटिश कवि जॉन कीट्स की इन पंक्तियों को कोट किया है – ‘सौन्दर्य ही सत्य है और सत्य ही सौन्दर्य, यही आप इस पृथ्वी पर जानते हैं और बस यही जानने की आपको ज़रूरत है।’ आज के युवा का सौन्दर्यबोध विकृत हुआ जा रहा है। सौन्दर्य के मॉडल बना दिए गए हैं, विशेषकर नारी सौन्दर्य के। फिर सौन्दर्य की परिभाषा में भौतिकता हावी है। पुस्तक में मैंने ग्रीक गोल्डन अनुपात का ज़िक्र किया है। यह भी पश्चिम की ही देन है। भौतिक शृंगार आवश्यक है, चाहे वह प्रकृति का किया हुआ हो या मनुष्य का स्वयं का किया हुआ मगर यदि उसमें सुन्दर भाव न रचे हुए हों तो वह मन में सौन्दर्य नहीं जगाता, प्रेम नहीं जगाता। वासना भले जगाए, मगर प्रेम नहीं।
प्रसिद्ध ब्रिटिश कवि जॉन मिल्टन का एक किस्सा है। किसी ने उनकी पत्नी को देखकर कहा – आपकी पत्नी तो बहुत सुन्दर हैं, बिल्कुल गुलाब की मानिंद। मिल्टन ने उत्तर दिया – हाँ उनके काँटों की चुभन मैं अक्सर महसूस करता हूँ।
सवाल – आप डार्क नाईट में अध्यात्म होने की बात कहते रहते हैं, लेकिन उसमें फिल्मों जैसे प्रेम-प्रसंगों और सेक्स के अलावा ज्यादा कुछ दिखता नहीं। अध्यात्म कहाँ है?
संदीप – डार्क नाइट अपने स्वयं में एक आध्यात्मिक दशा है जिस पर मैंने उपन्यास की कहानी को आधारित किया है। एक स्पेनिश ईसाई संत कवि हुए हैं, सेंट जॉन ऑफ़ द क्रॉस, उनकी कविता है, द डार्क नाइट ऑफ़ द सोल। डार्क नाइट ऑफ़ द सोल, अवसाद की वह अवस्था है जिसमें मनुष्य की चेतना आध्यात्मिक विस्तार पाती है और उन समस्याओं के हल ढूँढने के प्रयास करती है जो उस अवसाद का कारण बनी होती हैं। उपन्यास के दो मुख्य पात्र कबीर और प्रिया इस डार्क नाइट से गुज़रकर अपनी चेतना को विस्तार देते हैं, अपनी समस्याओं के हल पाते हैं और परिष्कृत और परिवर्तित होते हैं।
मगर हर पाठक किसी भी रचना को अपने हिसाब से पढ़ता है और उसके अपने अर्थ निकालता है। साहित्य में यह ज़रूरी भी है। साहित्य वस्तुपरक तो नहीं होता, वह व्यक्तिपरक ही होता है। और फिर चूँकि उपन्यास की विधा इरॉटिक रोमांस है तो उसमें सेक्स और प्रेम-प्रसंगों की अधिकता स्वभाविक है। फिर हमारे संस्कार भी कुछ ऐसे हैं कि सेक्स बाकी आयामों पर हावी लगने लगता है। समरसिद्धा पर यह प्रश्न नहीं उठता कि उसमें सिर्फ युद्ध और हिंसा ही हैं, अध्यात्म कहाँ है।
सवाल – इस उपन्यास में आपने अंग्रेजी के शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है, क्या आप साहित्यिक या किसी भी लेखन में ‘हिंग्लिश’ का समर्थन करते हैं?
संदीप – डार्क नाइट की पृष्ठभूमि लन्दन की है। उसमें कुछ अंग्रेज़ और अन्य यूरोपीय चरित्र भी हैं। तो उनके संवाद तो मैंने अंग्रेज़ी में रखे हैं। हिंदी में रखता तो यह प्रश्न उठता कि विदेशी पात्र इतनी अच्छी हिंदी कैसे बोल रहे हैं। वह स्वभाविक नहीं लगता। फिर ब्रिटेन के भारतीय भी हिंगलिश ही बोलते हैं। शुद्ध हिंदी बोलते तो मैंने यहाँ किसी को नहीं सुना, तो इसलिए उनके संवादों की भाषा भी वैसी ही रखी है। वैसे उसमें अंग्रेज़ी कम की जा सकती थी। आप सबकी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए अगले संस्करण में अंग्रेज़ी काफ़ी कम की है।
जहाँ तक हिंदी साहित्य में हिंगलिश का प्रश्न है तो मेरा मानना है कि लेखन की भाषा, कहानी या कथावस्तु की पृष्ठभूमि और पात्रों के परिवेश के अनुसार होनी चाहिए। समरसिद्धा में तो लगभग विशुद्ध हिंदी है, क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि उत्तरवैदिक काल की है। उसमें तत्सम शब्दों की बहुलता है।
अंग्रेज़ी से बैर या परहेज़ का कारण मुझे समझ नहीं आता। हमने हिंदी साहित्य में उर्दू स्वीकार ली है जिसमें अरबी, फ़ारसी, तुर्की आदि विदेशी भाषाओं के शब्दों का समावेश है। स्वयं अंग्रेज़ी ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के लगभग पंद्रह हज़ार शब्द लिए हुए हैं। बहुत से शब्द तो अब वहाँ आम बोलचाल में आ गए हैं। अंग्रेज़ स्वयं इंग्लैंड को ब्लाईटी कहते हैं जो कि विलायत से बना है। अंग्रेज़ी का एक पूरा शब्दकोश है, हॉब्सन-जॉब्सन जिसमें सिर्फ भारतीय भाषाओं से लिए हुए शब्द हैं। इनका अंग्रेज़ी साहित्य में भी खूब प्रयोग होता है। –
ब्रिटिश प्ले राइटर टॉम स्टौपर्ड के नाटक ‘इंडिया इंक’ में एक दृश्य है जिसमें दो चरित्र फ्लोरा और नीरद के बीच अधिक से अधिक हॉब्सन-जॉब्सन शब्दों को एक ही वाक्य में बोलने की होड़ लगती है –
फ्लोरा – “वाईल हैविंग टिफ़िन ऑन द वरांडा ऑफ़ माय बंगलो आई स्पिल्ल्ड केजरी (खिचड़ी) ऑन माय डंगरीज़ (डेनिम की जीन्स) एंड हैड टू गो टू द जिमखाना इन माय पजामाज़ लूकिंग लाइक ए कुली”
नीरद – “आई वास बाइंग चटनी इन द बाज़ार वेन ए ठग हू हैड एस्केप्ड फ्रॉम द चौकी रैन अमोक एंड किल्ड ए बॉक्सवाला फॉर हिस लूट क्रिएटिंग ए हल्लाबलू एंड लैंडिंग हिमसेल्फ इन द मलागटानी (भारतीय मसालों से बना सूप)।
सवाल – आपको कई बार ऐसा कहते हुए देखा है कि हिंदी के साहित्यकार दंभी होते हैं। आपको ऐसा क्यों लगता है?
संदीप – मैंने यह नहीं कहा था कि हिंदी के साहित्यकार दम्भी होते हैं, मैंने यह कहा था कि हिंदी के साहित्यकारों का दंभ मेरी समझ में नहीं आता। और यह बात मैंने आज के साहित्यकारों के सन्दर्भ में कही थी। देखिए जब फ़िराक़ गोरखपुरी लिखते हैं –
ग़ालिब–ओ–मीर, मुसहफ़ी,
हम भी फ़िराक़ कम नहीं।
या
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख्र करेंगी हमअसरों,
जब भी उनको ध्यान आएगा, तुमने फ़िराक़ को देखा है।
तो उनका दम्भ समझ आता है। हिंदी में तो पिछले कुछ दशकों में ही ऐसा कुछ ख़ास नहीं रचा गया जिस पर गर्व या दम्भ किया जा सके। पहले ऐसी कुछ उपलब्धियाँ तो हों जिन पर दम्भ किया जा सके।
सवाल – अभी कुछ नया लिख रहे हैं?
संदीप – जी। फ़िलहाल तो डार्क नाइट का सीक्वल और प्रीक्वल का मिलाजुला कुछ लिख रहा हूँ। इसमें सेक्स कम है तो आपकी शिकायत भी दूर होगी। फिर समरसिद्धा की उत्तरकथा पर भी काम चल रहा है। एक और उपन्यास थोड़ा लिखकर आराम दिया है, वह डिमेंशिया के एक बूढ़े मरीज़ की काफ़ी संवेदनशील कहानी है। मगर विषय ऐसा है कि उसके लिए काफ़ी अध्ययन और रिसर्च की आवश्यकता है। उसमें काफ़ी समय लगेगा। इसलिए उसे थोड़ा आराम दिया है।
सवाल – नए-पुराने सभी में से प्रिय लेखक-लेखिका कौन हैं आपके?
संदीप – नए लेखक-लेखिका तो सभी मित्र ही हैं। कुछ के नाम लूँगा तो बाकियों को नाराज़ करूँगा। पुराने लेखकों में बहुत हैं। इस तरह के प्रश्न धर्म संकट खड़ा करते हैं। किसका नाम लें, और किसका छोड़ें। फिर भी हिंदी-उर्दू में कृशन चंदर बहुत पसंद हैं। उनका किस्सागोई का अंदाज़ मुझे बहुत अच्छा लगता है। मंटो और इस्मत चुगताई का भी मैं मुरीद हूँ। प्रेमचंद तो खैर कथा-सम्राट माने ही जाते हैं। उन्हें कौन नहीं पसंद करता। फिर भीष्म साहनी बहुत पसंद हैं। राही मासूम रज़ा भी। लेखक तो इतने हैं कि नाम लेते-लेते शाम बीत जाएगी।
मगर सिर्फ नाम लेना ही तो काफ़ी नहीं होता। उन्हें पढ़ना और उनसे सीखना ज़्यादा ज़रूरी है। हम नए लेखकों के लिए बहुत ज़रूरी है कि हम न सिर्फ उनका आदर करें बल्कि उन्हें निरंतर पढ़ें और उनकी विशालता और महानता से अचंभित भी हों। हम जब तक किसी की महानता से अचंभित नहीं होते तब तक उससे कुछ ख़ास सीख भी नहीं पाते, कुछ विशेष प्राप्त भी नहीं कर पाते, चाहे वह ईश्वर हो, प्रकृति हो या हमारे आदर्श हों।
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