आज पढ़िए विनीता परमार की कविताएँ- मॉडरेटर
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*नहीं की मैंने कोई यात्रा*
1.
अंतहीन प्रतीक्षा की सरलता
कितनी आसानी से मान लिया
ठहर कर देखने की सहजता ने ।
तुम्हें हमेशा चलने की परेशानी रही
यात्राओं की जद से
बचने में नहीं चाही कोई यात्रा ।
तुम्हारी कल्पनाओं में नहीं रहा कोई मैगलन
न ही तुमने कोशिश की कोलंबस होने की
तूने इब्नेबतूता को भी गानों के बोल से जाना ।
परिणाम के गणित से दूर
तुमने तके कितने रास्ते
खोज ना पाई कोई अंतिम तरीका ।
शकुंतला बैठी है
दुष्यंत की तपस्या में
तो कभी सोती आंखें भी
चिहुंक राहुल को जोर से
चिपका लेती हैं छाती से ।
सीता ,उर्मिला निहार रहीं
प्रतीक्षक बनकर
बैठी रहीं प्रेम की आस में ।
तुम तो पोषिका हो
फिर भी है तुम्हें
हरदम एक संदर्शिका की खोज
नियंता की विश्वासिनी हो
संरक्षक की संरक्षिका हो
उसकी खोज आत्मा है
वो सत्य ढूंढ़ता है
धर्म खोजता है
उसकी संस्थापना करता है ।
तुम्हारी खोज में तो तुम खुद भी नहीं
युगों से राम की छाया
बनकर रहने तक में ही
तुम्हारी खोज पूरी है ।
2.
सोचती हूँ ,
उस मनुष्य को
जब उसकी कोई ज़बान न थी,
वो बोलता होगा पंछियों की भाषा
हँसता होगा फूलों की हँसी
मन के हिलोरों में कोई सागर उठता होगा ।
तभी ब्रह्मा ने लिखा होगा प्रेम उसी समय बदल गये होंगे रंग
सभ्य हो गई होगी भाषा
जन्म लिये होंगे पहरूए
फिर बन गया होगा समाज
नाम दिया होगा व्यसन ,
बांधने को एक नया शब्द विवाह,
जिसके ये कितने रूप
प्रेम ,अनुलोम,विलोम और जाने क्या – क्या ?
सबने पार की देह की दहलीज को
प्रेम फिर देह ,
संघर्ष स्वयं से,
संस्कारो ने माना
पहले देह फिर प्रेम
हमने दी जगह
तो फ़िर
प्रेम की पराकाष्ठा
नदी होना या भाप बन कर उड़ जाना
नदियों को बांधने की पुरानी तकनीक आज भी कारगर है ।
2.अंतिम लड़ाई
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खुद की बनाई दुनिया खतरनाक इसका भान है मुझे
फिर भी बना ली है मैंने अपनी एक दुनिया
इलाज से ज्यादा कायरता है
मेरे इन दु;खद सुखों में ।
मैं अब संभावनाओं से
भाग जाना चाहती हूँ
नींद में ही सही विरोध दर्ज करते – करते
नहीं बचा है रास्ता मेरे पास
सिवाय खुद हथियार बनने के ।
दुनिया के निर्दयी लोगों से डरकर
अब हमें निकाल लेने चाहिए
हमारे सारे आखिरी हथियार
जो इस्तेमाल हुए थे
महज पहली लड़ाई के वक्त…
अगर सच ऐसा है तो हम कुछ नही सीख पाए
त्रासदियों में लिपटे
कायर इतिहास से ।
सपनों से अंजान ये सबर लड़कियां
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तुम्हारा मानव होना या न होना
उनकी घोषणाओं में था
जन्म से कभी अपराधी कभी विमुक्त आज लुप्तप्राय
वृक्ष की बची – खुची ,
पहाड़ों पर थोड़ी सी जगह ढूंढ़ रह रहीं ये सबर लड़कियां
नहीं जानती कोई खेती
नाही अपनी कोई लिखित भाषा
अ या आ के सपनों से अनजान
नहीं जानती रिश्तों की पुकार
मायके के त्योहार या ससुराल
का महावर
नहीं जानती कलीकापुर बाज़ार
जहां बिकते हैं स्वाद, चेहरे व सतरंगे सपने
पहाड़ों पर अटक गया सफ़र
नहीं हो सकी कोई यात्रा ।
इनके ही पहाड़ों को तोड़कर
खड़े हुए हैं मॉल
इनके साथ खींचे फोटो से
मल्टीप्लेक्स में दिखाई जाती है फ़िल्म
छापे गए उपन्यास, छपी अखबारों की स्टोरी
ये सिर्फ़ जानती हैं कुएं या गुर्रा नदी का पानी
नहीं जानती शुद्ध – अशुद्ध पानी का फ़र्क ।
नहीं जानती बालों का बनाना
कोई शैंपू , क्रीम या आँखों का शूरमा
गजरे की खुशबू से अनभिज्ञ
हंडिया के नशे में धुत्त पति के
दिल तक जाने के लिए
भात के अलावा जानती हैं सिर्फ़ बरसाती फतिंगों का स्वाद।
छ: सौ की पेंशन और पंद्रह किलो चावल के इर्द – गिर्द घूमते
मांड – भात के भाप में
अब तक भांप न सकी अपनी आदिम सुगंध
नहीं पा सकी उचित धूप
गा ना सकी प्रथम गीत ।
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