सच्चिदानंद सिन्हा के कहानी संग्रह ‘ब्रह्मभोज’ पर युवा लेखिका उपासना झा की टिप्पणी पढ़िए- मॉडरेटर
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हिंदी-साहित्य में लगातार बिना शोर-शराबे और सनसनी के भी लेखन होता रहा है। सच्चिदानद सिंह का पहला कहानी संग्रह ‘ब्रह्मभोज’ इसी कड़ी में रखा जा सकता है। जीवन के अनुभवों और लेखकीय निरपेक्षता को समेटे यह संग्रह लेखक की जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में गहरे लगाव और गहन अध्ययन का द्योतक है।
संग्रह में कुल सत्रह कहानियाँ हैं, जिनके पात्र काल्पनिक नहीं लगते। बिहारी आँचलिकता इन कहानियों के कथ्य और भाषा में गुंथी हुई है लेकिन ये कहानियाँ सर्वकालिक, सारभौमिक हैं। भाषा परिष्कृत है लेकिन साधारण बोलचाल के अनेक शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। ये कहानियाँ जीवन के समृद्ध अनुभवों से उपजी हैं, लेखक को जीवन के सभी पक्षों की गहरी समझ है। संग्रह की पहली कहानी ‘पकड़वा’ बिहार में अब भी प्रचलित पकडुवा ब्याह का मार्मिक चित्र खींचता है, वहीं ‘जलेबी’ कहानी में गरीबी का त्रास है। ‘ब्रह्मभोज’ कहानी जिसपर संग्रह का नामकरण हुआ है और ख्यात पेंटर देबाशीष मुखर्जी ने कवर बनाया है, एक विशिष्ट कहानी है। ब्राह्मणों की जातिगत अहमन्यता और परंपराओं में जकड़े होने की विवशता और उसके दोष जानते हुए भी उसे अपनाए रखना बहुत बारीकी से परिलक्षित होता है। ‘रीमा’ बचपन के बिछड़े प्रेम की कहानी है जो देह पर आकर खत्म हो जाती है। ‘सुलछनि’ और ‘पुरुष’ में स्त्री-पुरुष मनोविज्ञान है वहीं ‘दंगा’ और ‘रामनौमी’ में धर्म की विकृतियाँ।
इन कहानियों में भय है, भूख है, गरीबी है, जातिगत अहम् है, कुरीतियाँ हैं, पाखण्ड है, पारिवारिक नोक-झोंक है, बिछड़े प्रेम की टीस है और सबसे बढ़कर है सहज, सरल मानवीयता। कहानियों में जीवन के गम्भीर प्रश्नों का समाधान नहीं है लेकिन लेखक बहुत कौशल के साथ पाठक पर एक ऐसा प्रभाव छोड़ता है कि कुछ देर तक पाठक समाधानों की संभावना पर सोचता रहता है। हर कहानी के केंद्र में कोई सम्वेदनशील भावना है लेकिन लेखक किसी निष्कर्ष को पाठक पर थोपना नहीं चाहता।
ये कहानियाँ अलग-अलग कालखंड में लिखी गयी हैं, जिनपर परिवेश का भी प्रभाव दिखता है। आधुनिक भावबोध की ये कहानियाँ शिल्प में परंपरागत हैं।
यह संग्रह पठनीय है और संग्रहनीय भी। साथ ही लेखक से भविष्य में और अच्छे काम की उम्मीद जगाता है।