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Channel: जानकी पुल – A Bridge of World Literature
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हर लिहाज़ से एक सराहनीय फिल्म है ‘पीहू’

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फिल्म ‘पीहू’ की समीक्षा सैयद एस. तौहीद द्वारा लिखी हुई- मॉडरेटर
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कल्पना कीजिए एक ऐसी कहानी जिसमें अकेली मासूम घर में अकेली रह जाए। बच्ची खुद ही खाना बनाए और फिर गैस को जलता हुआ छोड़ दे। खुद को फ्रिज में बंद कर ले। ऐसे कई हैरत से भरे लेकिन जागरूक करते दृश्यों से से बनी है हालिया रिलीज ‘पीहू’। पीहू की कहानी में ऐसे कई मोमनेंट्स हैं जिन्हें अक्सर लोग हल्के में लेते होंगे। लेकिन वो क्यों बहुत पेंचीदा हो सकते हैं, पीहू देखकर समझ आता है। सम्वेदनाओं  की गहरी परख करता अनुभव है।
फ‍िल्‍म की शुरुआत एक नन्ही सी मासूम बच्ची के साथ होती है।  पीहू खुद को एक फ्रिज मे बंद कर लेती है। मां बेहोश है। बच्ची पूरे घर में अकेले घूम रही है। देखने वाला कोई नहीं। ऐसे हालात के इर्दगिर्द घूमती लाजवाब फ़िल्म बनाई है विनोद कापड़ी ने।
बड़े घर में अकेले दम घूम रही नन्ही बच्ची पहले तो खुद को फ्रिज में बंद कर लेती है, फिर कभी गीज़र तो कभी दूसरे इलेक्ट्रॉनिक सामानऑन कर देती है। कमाल देखिए कि नन्ही अपने लिए खाना भी बनाने की कोशिश करती है। हर लम्हा हैरत में डालने में यह कहानी मॉडर्न मां-बाप की आंखें खोल देती है। नन्ही बच्ची पर लगातार मंडरा रहा ख़तरा हमें डर से भर देता है।
नन्ही सी मायरा व‍िश्‍कर्मा की ‘पीहू’ हैरत में डाल देने वाली फिल्म है। मायरा की मासूमियत फिल्म की जान है। कमाल देखिए कि एक वक्त पर लगता है मानो खुद पीहू  फ़िल्म को डायरेक्ट कर रही। विनोद कापड़ी की इस सराहनीय फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबी यही है। फ़िल्म बांधे रखती एक अकेली बच्ची  पूरी कहानी की जान है। 2 साल की पीहू  पूरे घर में अकेली है। पूरा दिन अकेले बिताती है । किस तरह यही बड़ा आकर्षण है। पीहू के साथ गुजरा समय हमारे भीतर अनेक भावनाओं से भर देता है। छोटी सी बच्ची दरअसल हमें भीतर झांकने को कहती है।
पति-पत्नी के संबंधों पर उनके अहंकार पर पहले भी फिल्में बन चुकी है। लेकिन मगर रिश्तों का टकराव किस हद तक जा सकता है, इसकी कोई सीमा नहीं। विनोद कापड़ी की ‘पीहू’  से गुज़रते हुए आत्मा थर्रा जाती है। यकीं मानिए  फिल्म खत्म होते ही कसम खाने पर मजबूर हो जाएंगे।
रिश्ते के दरम्यान कभी अहंकार नहीं लायेंगे।  एक दूसरे के प्रति जीवन भर निभाएंगे।
हर नज़रिए से ‘पीहू’ एक सराहनीय फ़िल्म है। ऐसी फिल्में केवल हिम्मत से बना करती है। फिल्म किसी एक तथ्य के तरफ इशारा नहीं करती। हां लेकिन पेरेंटिंग के प्रति जागरुक संदेश बनके उभरती है।  हर लम्हा जान जोख़िम में डालती बच्ची की कहानी झकझोर कर रख देती है। रोमांच से भर देती है। सम्वेदनाओं का चक्र सा भर जाता है ।

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