सुशील कुमार भारद्वाज युवा लेखक हैं, हाल में उन्होंने कुछ अच्छी कहानियां लिखी हैं. उनकी कहानियों का एक संकलन किन्डल पर ईबुक में उपलब्ध है. यह उनकी एक नई कहानी है- मॉडरेटर
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चाहकर भी मैं खुश नहीं रह पाता हूँ. हंसता हूँ पर आत्मा से एक ही आवाज आती- “क्या मैं सच में खुश हूँ? मैं क्यों जानबूझकर दूसरों की खुशी के लिए खुद को उलझा के रखना चाहता हूँ? क्यों किसी के हाथों का खिलौना बना रहना चाहता हूँ? आखिर इससे किसका भला होने वाला है?” जब वो मेरे मनोभावों को समझती है तो वह सामने आकर साफ़ साफ़ कुछ कहती क्यों नहीं? मेरे लिए वो परेशान रहती है या उसे मेरी भावनाओं से खेलने में मजा आ रहा है? अगर ऐसा है भी तो मैं स्वयं क्या कर रहा हूँ? यदि मैं उसे नहीं चाहता तो क्या मैं उससे मिलना चाहता? मेरे पास किसका नम्बर नहीं है? लेकिन कहाँ मैं कभी किसी से बात करता हूँ, उसी के नंबर पर क्यों अटका हूँ?
मैं सच्चाई को क्यों नहीं स्वीकार करता कि ये सारी समस्याएं मेरी खुद की खड़ी की हुई है? साफ़ साफ़ शब्दों में उससे सुनना चाहता हूँ लेकिन यह भी तय है कि अगर वह ‘नहीं’ बोल दी तो, उससे जितना नजदीक रहना मुश्किल होगा उतना ही दूर रहना भी. तो क्या करूँ इस उलझन में पिसते हुए खुद को बर्बाद कर लूँ? क्या मेरे माता–पिता की मुझसे यही उम्मीदें होगीं कि अपना जीवन बनाने, आगे बढ़ने, समाज और देश के किसी काम आ सकने की बजाय एक लड़की के लिए खुद को बर्बाद कर लूँ? क्या वो प्रगतिशील सोच की नहीं हैं? क्या वो खुद नौकरी करके अपने घर परिवार को आगे नहीं बढ़ाना चाह रही है? नहीं…नहीं अब मुझसे नहीं होगा? मैं अब राफ-साफ़ करके ही रहूँगा. निश्चय तो अब हो ही चुका है बस सही समय के तलाश में दिन गुजर रहे हैं.
और उस दिन जब मैं उसके दफ्तर पहुंचा तो उस समय वह बाहर में चहलकदमी कर रही थी. मेरे पहुंचने पर, अपनी कुर्सी में तो वह बैठ गई लेकिन मुझे इग्नोर करने का नाटक करते हुए संजय से बोली –“पूछे नहीं? किससे मिलना है?”
उसके इस सवाल से मैं थोड़ा चौंक गया. लगा इतना बड़ा अपमान? क्या उसे नहीं मालूम कि मैं यहां किससे मिलने आता हूँ? क्या मैं यहां किसी दफ्तरी काम से आता हूँ? तुरत उल्टे पांव लौटने की इच्छा हुई लेकिन कुछ सोचकर रूक गया. सोचा शायद कल वाली बात से बहुत आहत हो गई हो, उसी की प्रतिक्रिया हो! वैसे भी प्यार में गुस्सा और नफ़रत ठहरता ही कितनी देर है? यदि जो कहीं बात बढ़ भी गई तो कोई बुरा नहीं है. मैं भी तो मौके की ही ताक में हूँ. इसलिए चुपचाप सोफा पर जाकर धम्म से बैठ गया. चुप्पी लंबी खींचती जा रही थी. शायद उसके अंदर गुस्सा पूरा उबाल खा रहा था. वास्तव में कहीं कुछ जबरस्त अटका हुआ है उसके अंदर. मुझे भी समझ नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूँ? बगैर पूरी बात समझे उसके गुस्से को आग देना भी तो सही बात नहीं है. कहीं मेरे शब्द उसके जख्मों पर लग गए तो पता नहीं क्या नज़ारा प्रस्तुत होगा? लेकिन चुप्पी तो तोडनी ही होगी. उसका गुस्सा जायज है तो मैं कहां नाजायज हूँ? सारा खेल तो भावना का ही है. फिर मैंने हिम्मत बटोर कर कहा –‘प्यास लगी है.’
मेरे बोलते ही वह उठी और एक गिलास पानी लाकर सामने खड़ी हों गई. मैं उसके चेहरे की ओर देखने लगा. दोनों की नज़रें तो मिली लेकिन वे नज़रें कुछ बात कर पातीं उससे पहले ही वो दरवाजे की ओर देखने लगी. मुझे गुदगुदी होने लगी. आखिर, नखरा दिखाने का हक उसे भी तो है. अगर जो सच में गुस्से में होती तो सामने में पानी लेकर क्यों आती? वो दफ्तर की चपरासी थोड़े ही न है जो सबको पानी पिलाती? ये तो हमलोगों का रिश्ता है जिसकी वजह से वो मेरी सारी बात सुनती है. मुझे छोड़कर किसी की मजाल भी है जो उससे कोई पानी माँग ले? लेकिन इस गंभीर परिस्थिति में भी यदि वो अपनत्व दिखा रही है तो यक़ीनन अभी भी बहुत कुछ शेष है. मैं चुपचाप गिलास लिया और सारा पानी गटक गया. लेकिन समझ में ही नहीं आ रहा था कि बोलूं तो क्या? कहीं ऐसा न हो कि ये नखरा कहीं नासूर बन जाए. रिश्तों में तकरार यदि कभी कभी सहजता लाती है. भावनाओं को प्रगाढ़ बनाती हैं. तो थोड़ी-सी असावधानी, भाषाई लापरवाही और अहम का प्रदर्शन रिश्तों के बीच खाई को चौड़ा भी करती है.
लेकिन आज उसकी लम्बी चुप्पी डरावनी तस्वीर भी प्रस्तुत कर रही है. संवादों का होना निहायत ही जरूरी होता है वर्ना भ्रम भी रिश्तों के बीच अपना जगह बनाने लगती है. कई बार चीजों को शांति से झेल जाना भी कारगर होता है. कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूँ? इस चुप्पी और व्यवहार से तो बस इतना ही लग रहा है कि आईना दो हिस्से में बंट चुका है. एक कोने में उसकी तस्वीर झलक रही है तो दूजे में धुंधली होती मेरी तस्वीर. और बींच में खींची है एक लंबी रेखा. अब पता नहीं यही हाल दिल का भी है या कुछ और? लेकिन इतना तो तय है कि ये दरार बन चुका है. भले ही दरार की गहराई का एहसास किसी को ना हो.
अचानक होठों पर अजीब-सी मुस्कुराहट फ़ैल गई. आखिरकार ये दिन भी आ ही गया. अच्छा ही हुआ. सच भी है कि जिस प्यार का कोई उद्देश्य नहीं – वह कितने दिन चलेगा? भावनाएं जब टूटने लगती हैं, तो शब्दों के अर्थ भी बदलने लगते हैं. चुभन का एहसास भी अलग हो जाता है. शांति चारों ओर पसरी थी. और वह चुपचाप कुर्सी पर बैठी लाफिंग बुद्धा की मूर्ति को अपनी मुट्ठी में कभी दबाती तो कभी टेबल पर नचाती रही. संजय भी लगभग सभी फाइलों को अलग कर अखबार के पन्नों में उलझने का नाटक करता रहा. बॉस की कुर्सी अब भी यूँ ही खाली पड़ी थी. बगल की खुली खिडकी से आसमान में चमकते सूरज की रौशनी आग बरसाने में लगी थी.
“सोफिया सच कहती थी – आप जाति–धर्म में विश्वास करते हैं.”- संजय की आवाज पहली बार कान से टकरायी तो सुनते ही मैं चौंक गया. लेकिन संभलते हुए पूछा- “आपको ऐसा क्यों लगा?”
– “तो कल आप सोफिया के साथ क्यों नही खाएं?” सवाल सुनते ही दरार की गहराई का कुछ भान हो गया तो बीज का भी. सुनते ही आश्वस्त हो लिया कि मतलब किसी के साथ नहीं खाने से भी लोग जाति- धर्म और भेदभाव की बात सोचने लगते हैं. ये तो असहिष्णुता का जबर्दस्त उदाहरण बन गया न? कितने अजीब इंसान होते हैं? बाज़ारों में ऐसे लोग क्या सोचते होंगें?
कुछ सोचकर मैंने संजय को कहा -“संजय जी, आपको इन फालतू कचड़ों को अपने दिमाग से निकाल देना चाहिए. यदि ऐसा होता तो मैं पहले भी कभी नहीं खाता. और ये तो मुझे आज से नही, वर्षों से जानती है.” ज्योंहि मैं सोफिया की ओर मुखातिब हुआ, लगा जैसे कि वह मौके की ही ताक में थी और छूटते ही टूट पड़ी– “कब खाएं हैं? आज खाए हैं? कल खाए थे?”
उसकी इन बातों को सुनकर अंदर –ही-अंदर गुदगुदी होने लगी लेकिन अपने शब्दों पर टिकते हुए सख्ती से कहा– “कह तो दिया. ऐसा होता तो पहले भी नही खाता.”
“क्या सबूत है कि आपने खाया है?”- लगा जैसे आज वो अलग ही मुड बनाकर बैठी है और मैं भी उसी के लय में बोल दिया -“और क्या सबूत है कि मैंने नहीं खाया है?”
“आपका सूखा हुआ मुँह”- अपनी हाजिरजवाब प्रतिभा का सबूत वो दे दी. लेकिन अच्छा लगा कि आज पहली बार उसके चेहरे पर रौनक वापस आई वर्ना सुबह से तो कुछ कहना ही नहीं था. उसकी ऐसी बातों का क्या जबाब दिया जा सकता था लेकिन कुछ देर पहले तक बरकरार वहां का तनावपूर्ण माहौल छूमंतर हो चुका था.
और मन में मैं कहने लगा- ‘आपसे तो हार कर भी खुशी ही मिलती है लेकिन क्या बताऊँ कि कल मैंने आपके साथ क्यों नही खाया? क्या आप वाकई में कुछ नहीं समझ रही हैं? क्या आप नहीं समझ रहीं हैं कि मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दीं, इसलिए मैं नाराज़ हो गया था? क्या आप नहीं समझ रहीं हैं कि मैं भावनात्मक स्तर पर बिखर रहा हूँ? मैं खिलौना बनकर रह गया हूँ. वाह! आपने भी क्या सन्देश दे दिया संजय जी को? ये भी अच्छा ही है. लोग भी सोचेंगें कि जाति-धर्म के चक्कर में इनका प्रेम परवान ही नहीं चढ़ सका. क्योंकि हमलोग एक नहीं हो सकते थे!
वैसे भी अपनी छोटी-सी खुशी की खातिर न तो मैं अपने परिवार को परेशान करना चाहता हूँ ना आप. ना मैं जाति–धर्म बनाने वाले से पूछ सकता हूँ कि प्यार को किस धर्म में रखना चाहिए न ही जिहाद और लव-जिहाद का राजनीति करने वाले नौटंकीबाजों से. समय इतना बदल गया है कि अपनी दाल-रोटी जुटाने के लिए सुबह से शाम तक हड्डी रगड़नी पड़ती है, उसमें भी कम्पनी का टार्गेट पूरा नहीं हुआ तो खुद कब टारगेट बन फिर से बेरोजगारों की लिस्ट में शामिल हों जाऊंगा पता ही नहीं चलता और कहां से फालतू के इन झंझटों में पड़ते रहूँगा. मैं तो शांति से जीवन जीना चाहता हूँ. इन दंगा –फसादों से दूर कहीं कुछ मानवता के काम आ सका तो वही बहुत होगा. और जब अलग ही होना हमारी नियति में है तो वैसे पलों को क्यों यादगार बनाऊं जो आपके बगैर, कल को काटने दौड़े? आखिर क्या है इस रिश्ते का भविष्य? कब तक इस तरह हमलोग मिलते रहेंगें? क्यों नही अब धीरे-धीरे हमलोगों को अलग हो ही जाना चाहिए?
“आप अपना धर्म बदल लीजिए.” सोफिया की इस आवाज से मेरी तन्द्रा टूटी तो मैं बुरी तरह से चौंक कर उसे देखने लगा. मैं सोचने लगा कि सोफिया के इन शब्दों का मतलब क्या है? इतने दिनों की चुप्पी का यही राज था? लगा जैसे कि मैं जीत गया. मेरे प्रश्नों का जबाब मिल गया. हमारा प्रेम जीत गया. हम एक हो सकते हैं. अब गेंद बस मेरे पाले में है. मेरे सिर्फ एक हां से सारा नज़ारा ही बदल जाएगा. वैसे भी प्यार किसी को यूँ ही तो नहीं मिल जाता? आखिर वो भी एक सामाजिक और समझदार लड़की है जो अपने पैरों पर खड़ी है. दुनियादारी की उसे भी समझ है क्योंकर वह सिर्फ अपना ही त्याग करें? खुशी से मन में गुदगुदी हो रही थी लेकिन अगले ही पल दिमाग दिल पर भारी पड़ने लगा. आखिर मैं धर्म क्यों बदलूं? क्या अपने-अपने धर्म के दायरे में रहकर हम एक बंधन में नहीं बंध सकते? धर्म का प्रेम से क्या है वास्ता? और क्या जरुरी है कि धर्म बदलने के बाद हमारी शादी हो ही जाएगी? घरवाले मान ही जाएंगें? कहीं धर्म बदलने के बाद यही मुकर गई तो? नहीं.नहीं. क्या एक लड़का को इतना स्वार्थी हो जाना चाहिए कि महज अपने प्यार को पाने के लिए अपने घर–परिवार और समाज के साथ-साथ धर्म को भी छोड़ दे? आज जो लड़की धर्म बदलने की बात कह सकती है, वो कल माता–पिता को भी छोड़ने की बात कह सकती है? आखिर उसके लिए क्या-क्या बदलूँगा? भाई-बहन? रिश्ते-नाते सबकुछ? क्या कोई किसी दिन अपनी आत्मा को भी बदल लेगा?”
संजय कुछ बोलता उससे पहले ही मैं बोला – “मैं सभी धर्मों को मानता हूँ और उसकी इज्जत करता हूँ.”
सोफिया तपाक से बोली –“मानने और होने में फर्क है.”
–“मैं जो हूँ, उससे मैं खुश हूँ. मुझे किसी चीज को बदलने की कोई जरुरत नहीं है.”- बेबाक मैं बोल पड़ा.
फिर चुप्पी लंबी खींच गई. लगा जैसे कि उम्मीद की दिखने वाली किरण फिर से कहीं अंधेरे में खो गई है. अचानक घड़ी पर नज़र पड़ते ही मैं लंबी साँस छोड़ते हुए चलने की गरज से बोला –“काफी समय हो गया है. मैं जा रहा हूँ.”
-“कल आएंगें ना?” सोफिया की आवाज आई.
-“कल दफ्तर में कुछ काम अधिक है. कह नहीं सकता, वैसे कोशिश करूँगा.”
“आइएगा जरूर, किसी बात को दिल पर लेकर सोचने मत लगिएगा.” सोफिया कुछ सोचकर बोली.
मैंने कहा- “आज तक क्या सोचा हूँ जो अब सोचूंगा? जो जिंदगी में होना होगा वही होगा.”
-“अपना फिलोसोफी बंद कीजिए. कल बस आपको आना है तो आना है.”
-“मैं श्योर नहीं कर सकता.”
-“प्लीज़! मैं आपका इंतज़ार करूंगी.” जब भावनात्मक अपील की तो उसकी आँखों में देखे बगैर रह ना सका. खोजता रहा उसकी आँखों में भावों को. कोशिश करता रहा उसकी आँखों से आत्मा में उतरने का. और जब लगा कि उसकी अथाह आँखों में डूबता जा रहा हूँ तो सिर को झटक दिया.
और वहां से चुपचाप मैं चला आया. उस दिन के बाद उससे फिर मिल न सका. मोबाइल पर भी औपचारिक बातचीत ही हो पाती थी. न मैं उसकी भावना को छेड़ना चाहता था न ही वो मेरी भावना को. बस दोनों अपने-अपने दायरे में सिमटने की कोशिश करते रहे. धीरे-धीरे मोबाइल पर भी दूरी बनती चली गई. और एक दिन अचानक खबर मिली कि तनाव में आकर, वह काम छोड़ घर में बैठ गई है. उसे बहुत कन्विंस करने की कोशिश की कि अपनी पेशेवर जिंदगी को यूं बर्बाद मत करो. लेकिन वह अवसाद में घिरती जा रही थी.
जब एक परिचित के कंपनी में वैकेंसी की खबर मिली तो दिमाग में आया कि शायद उसे यह नौकरी पसंद आए, और तुरंत मोबाइल घुमा दिया. बात हुई तो सीधे मिलने की बात करने लगी.
अच्छी तरह से याद है लगभग छः महीने के बाद हमलोग मिलने जा रहे थे. उस दिन दिमाग में था कि पता नहीं अब कैसी दिखती होगी? इन महीनों में कितनी बदल गयी होगी? मैं उससे क्या बात करूँगा? – सिर्फ काम की बातें या दिल की भी? नहीं, दिल की बात पूछनी अच्छी बात नहीं? हम लोग प्रोफेशनल हैं. प्योर प्रोफेशनल. आज के लोग दिल और दिमाग को अलग रखकर काम करते हैं. एक लक्ष्मण रेखा है- जिसे कभी नहीं पार करनी चाहिए. मनुष्य बने रहने की एक कोशिश होनी चाहिए. स्वार्थी बनकर तो सब जीते हैं निःस्वार्थ भाव से भी कार्य करना चाहिए. कुछ भी ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक रिश्ते की वजह से किसी की जिंदगी परवान ही नहीं चढ़े. प्रेम किसी के मार्ग की बाधा नहीं, उन्नति की सीढ़ी होनी चाहिए. प्रेम का मतलब सिर्फ किसी को अपने अधीन करना नहीं होना चाहिए.
फिर मन सशंकित हुआ. कहीं जो भावना में कुछ बह गया तो वह क्या सोचेगी? वो उन हसीन पलों को शायद भूल भी गई हो. नहीं…नहीं भावना में बिल्कुल नहीं बहना. मदद करने का ये मतलब थोड़े ही न है कि पुरानी बात छेड़ दो? खुद को फिर से समझाने लगा. कहीं उसे ये न लग जाए कि मैं उसे झुकाने के लिए या अपने स्वार्थ में उसकी मदद कर रहा हूँ? वैसे भी मैं मिलना ही कहां चाह रहा था? वो तो स्वयं मिलने की बात कही. मैंने तो मोबाइल पर ही कह दिया था –“मिलने की क्या जरुरत है .. आप ऑफिस में जाइए, आपका काम हो जाएगा” तो अपने पुराने ही अंदाज में बोली “क्यों? आप मुझसे मिल लीजिएगा तो, छोटे हो जाएंगें?”
उसके सवालों का तो मेरे पास कोई जबाब ही नहीं था. शायद देना भी नहीं चाहता था. लेकिन इतना जरूर दिमाग में अटक गया कि एक छोटे से काम के लिए मिलना क्या जरूरी है? कहीं एक अरसे बाद मिलने की चाहत तो नहीं है? जो इस काम के बहाने मिलना चाहती है? यह भी संभव है कि अपने स्वार्थपूर्ति के लिए मुझे चाहने का दिखावा करना चाहती हो? सच तो उसके सिवा कोई नहीं जानता.
कहे के अनुसार, ग्यारह बजे ही गंगा किनारे काली घाट पहुंच गया. लेकिन उसे न देख मंदिर में सिर टेकने चला गया. काली घाट आज से नहीं ज़माने से प्रेमी युगल के लिए मनोरम जगह रहा है. जब कभी किसी युगल को पत्थर पर बैठ गंगा के जलधारा में अठखेली करते देखता था तो जी मचल उठता था, लेकिन फिर यह सोचकर शांत हो जाता था कि ये सब चीजें सबके नसीब में नहीं होती. नहीं तो क्या वजहें हो सकती थीं कि दरभंगा हाउस के राजा ब्लाक से मैं जलधाराओं को देखता था और रानी ब्लाक में वो. फिर भी कभी पता भी नहीं चल सका कि ये जलधाराएं कभी मेरे एहसासों और दिल के अरमानों को भी कभी उस तक पहुंचा पाई कि नहीं? और जब डिग्री लेकर अरसे पहले कॉलेज छोड़ चुका तब आज वो मुझे यहाँ मिलने को बुलाई है.
“मैं तुमसे मिलने आई मंदिर जाने के बहाने..” की आवाज से मेरी तन्द्रा टूटी. आज मेरे मोबाइल के इस रिंगटोन ने मेरे दिल के धड़कन को बढ़ा दिया. स्क्रीन पर उसी का नाम था और मुस्कुराते हुए –“हल्लो, कहां हैं? …. अरे मैं तो मंदिर में ही बैठ गया था.. अच्छा आप रानी ब्लाक में ही रुकिए, मैं वहीं पहुंचता हूँ.”
वो गेट पर ही खड़ी थी लाल सलवार समीज में, पीछे गुंथी हुई लंबीचोटी. उसके गोरे रंग के चेहरे में सबकुछ नज़र आ रहा था सिवाय उसके स्वाभाविक खिलखिलाहट के. शायद परेशानी ने अपना असर दिखाया हों. खैर, मुस्कुराहट के अभिवादन के साथ हमलोग बरामदे की ओर बढे. होली की छुट्टी की वजह से वीरानी यहाँ नाच रही है वर्ना यहाँ तो आदमी और बाइक के बीच से निकलने में ही पसीना छूट जाता है. कहां विश्विद्यालय के इस भवन को हेरिटेज में शामिल कराने की बात होती है और कहां विद्यार्थियों को इसमें मूलभूत सुविधाओं के लिए भी नारेबाजी करनी पड़ती है. अजीब तमाशा है.
बरामदें में पहुंचते के साथ ही उपर की ओर जाने वाली लकड़ी के बने पायदान पर की गंदगी साफ़ करके वह बैठ गयी और मुझे भी बगल में बैठने का इशारा करने लगी. मैं बोला –‘ऐसे ही ठीक हूँ’. बार-बार कहती रही –‘आइए ना…. हम जानते हैं आप बदलने वाले नहीं हैं. लेकिन अभी तो कम से कम बैठने में परेशानी नहीं होनी चाहिए… अच्छा… और सब बताएं कैसा चल रहा है?’
-‘कुछ खास नहीं, बस खाना, सोना और थोड़ा बहुत पढ़-लिख लेता हूँ?’
-‘और पढाना?’-मुस्कुराते हुए पूछी.
बात घुमाते हुए मैं पूछ बैठा –‘आप क्या कर रहीं हैं?
-‘मैं क्या करुँगी? खाती हूँ और सोती हूँ. आपका ही ठीक है पढ़ा लेते हैं…. कुछ पैसे भी आ जाते हैं, और पढाई –लिखाई से जुड़े भी रहते हैं. दो पैसे के लिए किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाना पड़ता है कि मोबाइल रिचार्ज कराना है या स्टेशनरी का सामान लेना है. मैं तो सिर्फ खा खा कर मोटी हो रहीं हूँ.’
बोला तो कुछ नहीं लेकिन बात चुभ जरूर गई. अपना दर्द बयां कर रही है या मुझ पर तंज कस रही है. मैं सीधे मुद्दे पर आते हुए बोला –‘आप एक बायोडाटा, आवेदन पत्र और सर्टिफिकेट का ओरिजनल और जेरोक्स लेकर ऑफिस में मिल लीजिएगा. जैसा होगा वे लोग आपको बता ही देंगें.’
-‘आप ही आवेदन लिख दीजिए ना, आपका लिखा रहेगा तो वे लोग भी आसानी से पहचान लेंगें और मुझे विशेष कुछ कहना भी नहीं पड़ेगा.” – बोलते हुए वह फाइल से कागज निकालने लगी. और मैं चोरी–छिपे उसके चेहरे को देखने की कोशिश करता और नज़र मिलते ही झुका लेता था. कैसी दुबली हो गई है? लग रहा है जैसे दो–तीन दिन से सोई नहीं है या खूब रोई है. लेकिन मुझमें कहां हिम्मत थी जो कुछ पूछ पाता? कागज बढ़ाते हुए खड़ी हो गई. मुझे लिखने के लिए इधर- उधर जगह तलाशते देखी, तो बोली- ‘आप यहीं बैठ जाएं’ और अपने दुपप्टे से ज्योंहि जगह साफ़ करने लगी कि मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और किताब वाले पोलिथिन को ही वहां रख दिया. थोड़ी देर तक यूँ ही उसकी आंखों में देखता रह गया. फिर धीरे से उसका हाथ छोड़ लिखने के लिए बैठ गया. मैंने महसूस किया कि लिखने के क्रम में वो मुझे देखती रहती थी और मेरे नज़र मिलते ही इधर –उधर देखने लगती थी. काम हो जाने के बाद हमलोग वहां से घर की ओर चल दिए. बातचीत में खुद ही बताते चली गई कि अभी तक दोनों भाई बेरोजगार ही हैं और अब अब्बू भी रिटायर कर गए हैं. उसकी शादी को लेकर घर में पहले से ही सब परेशान थे और अब घर की माली हालत भी बिगड़ने लगी है. आगे सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा नज़र आता है. मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं था. सिर्फ सुनता रहा और सामान्य बने रहने की कोशिश करता रहा. हां रास्ते में जिस फासले से चल रहें थे वो फासले कई बार मिटते जा रहे थे. दोनों बातचीत के क्रम में बार- बार एक दूसरे के काफी करीब होते जा रहे थे. मन में एक ही बात आती थी कि यहीं इसे सीने से लगा लूँ. और कहूँ -बस अब बहुत हो गया नाटक. चलो थामता हूँ तुम्हारा हाथ और टकरा जाता हूँ सारी दुनियां से. यूं टुकड़ा-टुकड़ा जिंदगी जीने से तो बेहतर है एक हो जाना. और मेरा हाथ उसके हाथ के करीब चला गया. अचानक हुए स्पर्श से वो मेरी ओर देखने लगी और अपने दोनों हाथों से मेरी हथेली को कसकर पकड़ ली. न मेरे मुंह से कोई शब्द निकल रहे थे न उसके मुंह से. लेकिन हमारी आँखें बात कर रही थी. जिसमें एक अजीब-सी खुशी थी.
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