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समानता का नया यूटोपिया रचती है देह ही देश- अनामिका  

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कल दोपहर दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में गरिमा श्रीवास्तव की पुस्तक ‘देह ही देश’ पर परिचर्चा का आयोजन हुआ. जिसकी रपट डॉ. रचना सिंह की कलम से- मॉडरेटर
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दिल्ली।  ”देह ही देश” केवल यूरोप की स्त्री का संसार नहीं है बल्कि दर्द और संघर्ष का यह आख्यान अपनी सार्वभौमिकता के कारण बहुपठनीय बन गया है। सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार अनामिका हिन्दू कालेज में  ‘देह ही देश’ पर आयोजित एक परिसंवाद  में कहा कि युवा विद्यार्थियों के बीच इस किताब पर गंभीर चर्चा होना यह विश्वास जगाता है कि स्त्री पुरुष समानता का यूटोपिया अभी बचा हुआ है और गरिमा श्रीवास्तव जैसे लेखक अपने साहित्य से इसे फिर फिर रचते रहेंगे। हिन्दू कालेज के महिला विकास प्रकोष्ठ द्वारा आयोजित इस परिसंवाद में उन्होंने कहा कि अच्छी किताबें बार बार पढ़ने को आमंत्रित करती हैं और मैंने इसे तीन बार पढ़ा है। नयी पीढ़ी भी ऐसे लेखन की संवेदनशीलता से अपने को जोड़कर ऐसी नागरिकता का निर्माण कर सकेगी जहाँ लैंगिक विषमताएं न हों।
सुपरिचित लेखिका और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव की यह किताब यूरोपीय देशों क्रोएशिया और सर्ब के संघर्ष के दौरान स्त्रियों पर हुई ज्यादतियों और यौन हिंसा की डायरी है। प्रो श्रीवास्तव ने अपने क्रोएशिया प्रवास के दौरान इसे लिखा था। परिसंवाद में साहित्य की मासिक पत्रिका हंस के सहयोगी सम्पादक डॉ विभास वर्मा ने कहा कि हिंदी में इस तरह का लेखन नहीं मिलता है। डॉ वर्मा ने इसे पढ़ना एक असहज करने वाला अनुभव बताते हुए कहा ‘देह ही देश’ जैसी किताबें इस बात की फिर पुष्टि करती हैं कि सभी युद्ध औरतों की देह पर ही लड़े जाते हैं। डॉ वर्मा ने इसे कहानियों की एक कहानी भी कहा। उन्होंने आगे कहा कि उग्र राष्ट्रवाद और पूंजीवाद मिलकर युद्ध को अपने हितों का व्यवसाय बना देते हैं।
जामिया मिलिया इस्लामिया के हिंदी विभाग से आए प्रो नीरज कुमार ने समाज विज्ञान की किताबों और साहित्य में मूलभूत अंतर को बताते हुए कहा कि यहाँ आंकड़ों से मन की पीड़ा और युद्ध की विभीषिका को समझने का प्रयास किया गया है। प्रो नीरज ने हाल में वृन्दावन और गुरुग्राम में स्त्रियों के साथ हुई हिंसक घटनाओं का उल्लेख किया और कहा कि विचारणीय है कि विकास के साथ हम कहाँ पहुँच रहे हैं। प्रो नीरज कुमार ने कहा कि स्थितियों की विषमताओं से स्त्री को स्त्री होने का दंड मिलता है लेकिन पुरुष इससे बच जाता है। उन्होंने शांति के लिए होने वाली सैनिक कार्रवाइयों के दौरान स्त्रियों के प्रति होने वाली हिंसा और देह व्यापारों के इस पुस्तक में आए प्रसंगों का भी उल्लेख किया।पुस्तक को लिखे जाने के अपने विविध अनुभवों को साझा करते हुए प्रो गरिमा श्रीवास्तव ने कहा कि इतिहास में कभी भी स्त्रियों को समाज की नियंत्रक शक्ति के रूप में नहीं पहचाना गया, शक्ति और सत् हमेशा से उसके लिए वर्जित क्षेत्र रहे। उन्होंने कहा कि स्त्रियां जिस तरह से झेले हुए समय को याद करती हैं उन पर ध्यान दिया जाना जरूरी है क्योंकि उनकी स्मृतियों में इतिहास का उपेक्षित पक्ष आलोकित होता है। प्रो श्रीवास्तव ने श्रोताओं के सवालों के जवाब भी दिए। इससे पहले महिला विकास प्रकोष्ठ की प्रभारी डॉ रचना सिंह ने अतिथियों का स्वागत किया। संयोजन कर रहे हिंदी विभाग के अध्यापक डॉ नौशाद अली ने वक्ताओं का परिचय दिया। अंत में पुस्तक की प्रकाशक राजपाल एंड संज की निदेशक मीरा जौहरी ने सभी का आभार माना।

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