Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World Literature
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1579

प्रियंका ओम की कहानी ‘अजीब आदमी’

$
0
0

युवा लेखिकाओं में प्रियंका ओम के नाम से सब परिचित हैं और उनके उपन्यासों से भी. यह एक छोटी-सी कहानी है. कहानी क्या एक कैफियत है. लेकिन पठनीय है- मॉडरेटर

=============================================

मेरे हाथ में उधड़े कवर और दीमक खाये पन्नों वाली एक किताब है, उसके बीच दबी है बदरंग हो चुकी तुम्हारी एक तस्वीर ! तुमने पीले रंग की बैगी शर्ट और काले रंग की पैंट पहनी है, आँखों पर धूप का चश्मा और माथे पर तरतीबी से सँवरे हुए बाल ! तस्वीर कुछ बीस बाइस साल पुरानी है !

मैं चाहती थी किसी ऐतिहासिक इमारत की तरह अडिग रहो लेकिन तुम हवा के मानिंद थे, ठहरते ही नही थे अब यह तस्वीर तुम्हारी यादों का अवशेष मात्र है, हाँ मैं अवशेष ही कहूँगी; यादों के असबाब से बचा एकमात्र अवशेष !

आज अलमारी साफ करते हुए यह किताब मिली, पता नहीं क्या सोचकर मैंने तुम्हारी तस्वीर इसके बीच रख दी थी ।
मैंने ऐसा क्यूँ किया होगा ? ठीक से याद नहीं !  चीज़ें रखकर भूल जाने की आदत रही है मुझे, तुम्हारी तस्वीर रख देने के बाद मैं तुम्हें भूल गई थी ! सच पूछो तो मैं तुम्हें भूल जाना चाहती भी थी, याद रखने का कोई पुख़्ता बहाना नहीं था लेकिन तुम अहैतुक ही याद आते रहे !

शुरू शुरू  में तुम्हारी यादें कलफ़ लगी हुई होती थीं, लेकिन अब इस तस्वीर की तरह तुम्हारी यादें भी पुरानी हो चुकी हैं, बुद्धिजीवियों का मानना है यादें कभी पुरानी नहीं होती, लेकिन मेरा अपना मत है मुझे लगता है जैसे किसी कपड़े को बार-बार पहनने वो पुराना हो जाता है उसी तरह बार-बार याद करने से यादें भी पुरानी हो जाती हैं ! तुम्हारी पुरानी हो चुकी यादों में अब इतनी भी जुंबिश नहीं बची कि उन्हें याद करने के लिये कोई स्याह एकांत कोना तलाशूँ या वे स्वयं ही भीड़ में चिहुँक कर आ जायें ! उनके बेवक़्त की आवाजाही कम होते-होते लगभग बंद हो चुकी थी !

पहले तुम्हारी यादें नहीं आती थी, तुम आते थे और तुम्हारे आने का कोई माक़ूल वक़्त भी नहीं होता था, असल में कुछ तयशुदा नहीं होता था तय होती थी सिर्फ़ तुम्हारी मसरूफ़ियत और बेभाव की बातें के ज़रूरी हो जैसे कोई काम ! लेकिन जिस दिन तुम आते थे उस दिन मेरे भीतर ख़ुशबूएँ महक जाती थीं, रंग बरस जाता था ! मैं फूलों का बाग़ीचा हो जाती थी मेरी आँख फड़कने लगती थी !

सच कहूँ तो उन दिनों मेरे पास तुम्हारी राह तकने के अलावा और कोई काम नहीं होता था और वो इंतज़ार के पल सिर्फ़ ये सोचने में गुज़र जाते थे कि इस दफ़ा तुमसे ये कहूँगी तुमसे वो कहूँगी और कहूँगी के “जब तुम नहीं होते हो, तब भी तुम होते हो” लेकिन तुम्हारे आते ही बातें चुप हो जाती थीं और पसर जाती थी एक चुप्पी बीच बीच में नपे तुले शब्द और हूँ हाँ ! वो चुप्पी ना तो मुखर होती थी ना ही चुप, असल में बेतरह बेसलीका होती थी वे चुप्पियाँ !

चुप्पियों के अतिरिक्त तुम्हारे मेरे बीच ऐसी और भी बहुत सी बातें होती थी जो अक्सर बातें नही होती थी जैसे तुम्हारा अचानक ही पूछ लेना ‘आज कौन सी तारीख़ है’ और मेरा ‘आज कौन सा दिन है’ पूछना; ख़ामोशियों को मुल्तवी करने की गरज से दिन और तारीख़ पूछने के अलावा बाक़ी सभी बातों के लिये हमारी बातें  बेशऊर थीं !

हाँ तुम्हारी आँखों की वर्णमाला इतनी तिलिस्मी होती थी कि कई बार मैं उसमें इस तरह उलझ कर रह जाती कि फिर अगली मुलाक़ात तक उसकी गिरहें सुलझाती रहती ! कभी-कभी तुम मुस्कुराते भी थे जिन्हें तह कर मैं अपने होंठों के गिर्द रख लेती थी और तुमने कहा  “वो लड़की हँसती है तो रजनीगंधा महकते हैं” और मैं आधी उजली आधी नारंगी हो शेफाली की तरह बिखर गई थी !

बिस्तर के हवाले से पहले तुमसे मुलाक़ात वाली तारीख़ दीवार पर टँगी कैलेंडर पर लाल घेरे में क़ैद हो जाती थी और डायरी का पन्ना गुलमोहर हो जाता था ! कितना कुछ लिख जाती थी मैं, उन स्पर्श की अनुभूतियों का वितान जो महसूस नहीं किया गया, मन पर स्थापित वह हिमखंड जो तरल नहीं हुआ, वे दूरियाँ जिन्हें लांघा नहीं गया और वह प्रेम जो स्वीकारा नहीं गया !

और फिर एक दिन अबोले ही चले गये बिना किसी पदचाप के और छोड़ गये उदासियों का बिम्ब जैसे गुलदस्ते में सूखते सफ़ेद गुलाब या दीवार पर आठ बीस बजाती बंद घड़ी !

फिर उस अवसन्न शाम को तुम बहुत दिनों बाद आये थे,
तुम्हारी आँखों पर ऐनक था और बालों में सफ़ेदी !
किंकर्तव्यविमूढ़ सी मैं तुम्हें तकती रही !
तुमने पूछा कैसी हो ?
जैसा छोड़ गये थे ।
हाँ लेकिन तब आँखों के नीचे काले घेरे नहीं थे !
और तुम्हारे बालों में सफ़ेद तार नंही थे !
चलो इसी बहाने हम उम्रदराज़ हुए !
हाँ लेकिन कुछ उम्रें ठहर जाती हैं और हम आगे निकल जाते हैं, मैंने व्यंग में कहा था !
बाज़ दफ़ा ठहरी हुई उम्रें आवाज़ देकर बुला लेती हैं, तुमने अपनी शर्ट के कोने से चश्मा साफ़ करते हुए कहा !
मैंने कौतुक से तुम्हें देखा, चश्मे के अंदर से झाँकती तुम्हारी आँखें मुस्कुरा रही थीं !

कल रात उसी तरह मुस्कुराते हुए तुमने कहा अगर यह दुनिया त्रिकोण होती तो किसी ना किसी कोन पर मैं तुमसे आकर मिल जाता किंतु विडम्बना यह है कि ये दुनिया गोल है इसलिये हर बार पुनः अपने पास लौट आता हूँ !

मैं फिर से तुम्हारी तस्वीर उसी किताब के बीच रख देती हूँ !
अगर आप जानना चाहते हैं तो आपकी ख़ातिर बताये देती हूँ किताब इस्मत चुगतई की “अजीब आदमी” है !

The post प्रियंका ओम की कहानी ‘अजीब आदमी’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1579

Trending Articles