Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1473

मेला, रेला, ठेला रामलीला!

$
0
0

कल यानी रविवार को ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ के ‘फुर्सत’ सप्लीमेंट में रामलीला पर एक छोटा-सा लेख मैंने लिखा था. आपने न पढ़ा हो तो आज पढ़ सकते हैं- प्रभात रंजन

==========================================

यह रामलीला लाइव का ज़माना है. 10 अक्टूबर से नवरात्रि की शुरुआत के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में रामलीला शुरू हो जाएगी. बचपन में जब मैं सीतामढ़ी में रहता था गाँव की रामलीला साक्षात देखता था. हर दिन राम की कथा का कोई विशेष अंश मानचित होता था. कैकेयी-मंथरा संवाद वाले दिन सबसे अधिक चला-पहल होती थी. जिस दिन रामवनगमन का दृश्य मंचित होता उस दिन महिलाएं बहुत रोती थीं- “मोरे राम के भीजे मुकुटवा/लछिमन के पटुकवा/मोरी सीता के भीजै सेनुरवा/त राम घर लौटहिं।”

सबसे भव्य राम की बारात का आयोजन होता था. उसकी मुझे ख़ास याद है क्योंकि जब बारात रामलीला मंडप के पास पहुँच जाती थी तो हम बच्चों को बताशे दिए जाते थे. केवल बताशे ही नहीं लक्ष्मण का बात-बात में गुस्सा हो जाना और सीन के बीच बीच में हनुमान द्वारा नारद मुनि को चिढाने के सीन भी गाँव की रामलीला में हमें आधी रात तक जगाये रखते थे. पास में कुछ रेहड़ी वाले मिटटी के तेल का दिया जलाए नमकीन सेवैयाँ, जलेबी बनाते रहते थे. जिस दिन दादी बहुत खुश होती थी उस दिन दस पैसे की जलेबी खरीद देती थीं. बरसों बाद भी जब उस रामलीला की याद आती है तो साथ लगने वाला मेला भी याद आ जाता है.

जैसे हमारे देश में अलग-अलग भाषाओं में, अलग-अलग प्रान्तों में सैकड़ों रामकथाएं हैं उसी तरह सैकड़ों-हजारों रामलीलाएं, हर रामलीला का अपना-अपना आकर्षण होता है. जैसे दिल्ली के प्रसिद्ध रामलीला मैदान की रामलीला का सबसे बड़ा आकर्षण होता विजयादशमी के दिन रावण का पुतला दहन, जिसमें अक्सर प्रधानमंत्री भी शामिल होते हैं. उसी तरह लालकिले के मैदान में होने वाली रामलीला में हर बार समाज के अलग-अलग पेशों से जुड़े लोगों को अभिनेता के रूप में पेश किया जाता है. जैसे उन्होंने पिछले साल से नेताओं को अभिनेता बनाना शुरू कर दिया है. पिछले कुछ साल से रामलीला के दौरान स्वच्छता अभियान का सन्देश भी दिया जाने लगा है.

यह डिजिटल एज है. रामलीला भी हाईटेक होती जा रही है. इस साल एक रामलीला में तकनीक के कमाल से हवा में रावण और जटायु की लड़ाई दिखाई जायेगी तो एक रामलीला ने राम कथा में पहली बार सीता जन्म की कथा दिखाने की घोषणा की है. प्रसिद्ध लवकुश रामलीला समिति ने अपनी वेबसाईट बना रखी है. वेबसाईट पर रामलीला से जुड़ी हर अपडेट तो रहती है लाइव रामलीला की व्यवस्था भी है. यानी घर बैठे-बैठे 11 दिन तक चलने वाली रामलीला का आनंद उठाया जा सकता है. स्मार्ट फोन और यूट्यूब चैनल के इस दौर में सारी लोकल रामलीलाएं ग्लोबल हो रही हैं. यूट्यूब पर सर्च कीजिये अयोध्या से लेकर सीतामढ़ी तक हर जगह की रामलीला के वीडियो मौजूद हैं. रोज-रोज अपलोड किया जाता है, फेसबुक लाइव किया जाता है. कथा है कि राम लीला के लिए पृथ्वी पर आये थे आज जगह-जगह अनेक रूपों में उनकी लीला देखी-दिखाई जा रही है.

लेकिन रामलीला क्या वही है जो मंच पर दिखाई जाती है?

रामलीला का असली मजा राम की कथा का मंचन नहीं होता है बल्कि उसके साथ लगने वाले मेले की लीला होती है. जहाँ-जहाँ रामलीला होती है वहां आसपास मेला जरूर लगता है. रामलीला का इतिहास मेलों का इतिहास भी रहा है. पुरानी दिल्ली की रामलीलाओं में रोजाना मंच पर रामकथा के प्रसिद्ध अंशों का मंचन बमुश्किल आधे घंटे होता है लेकिन तरह-तरह के चाटों के स्टाल से लेकर अलग अलग तरह के झूलों के आसपास रौनक आधी रात तक बनी रहती है. पुरानी दिल्ली के खानपान को लोकप्रिय बनाने में वहां होने वाली रामलीलाओं का भी बड़ा योगदान रहा है. अगर रामलीलाएं न होती, उसके साथ लगने वाले मेलों की रौनक न होती तो कितने लोग जान पाते कि पुरानी दिल्ली अपने निरामिष खाने के लिए ही नहीं शुद्ध शाकाहरी खाने के लिए भी बेहद प्रसिद्द है. सीताराम बाजार की रामलीला के साथ वहां की छोटी-छोटी नागौरी कचौरी की भी धूम मच गई थी. खान-पान की बात चल रही है तो लगे हाथ बता दूँ कि सीतामढ़ी की मशहूर सोन पापड़ी का स्वाद भी हम लोगों ने रामलीला के मेले में ही चखा था.

रामलीला हमारी उत्सवधर्मी संस्कृति का प्रतीक है. कहीं न कहीं हमें यह अपने आदिम अतीत से जोड़े रखता है, सभ्यता की अनेक करवटों के बावजूद जो हमारे अन्दर राम की कथा के रूप में बचा हुआ है. संस्कृतिविद विद्यानिवास मिश्र ने अपने निबंध ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’ में यह प्रश्न उठाया है कि ‘क्या बात है कि आज भी वनवासी धनुर्धर राम ही लोकमानस के राजा राम बने हुए हैं? कहीं-न-कहीं इन सबके बीच एक संगति होनी चाहिए।‘ वास्तव में रामलीला के दिन ऐसे होते हैं जब हम अपनी आधुनिकता को भूल कर अपनी परम्परा के साथ एकाकार हो जाते हैं, खान-पान, धूल-धक्कड़, मेले-ठेले, खेल-खिलौने सब हमें अपने-अपने अतीत में ले जाता है. रामलीला धर्म का नहीं संस्कृति का उत्सव है. अकारण नहीं लगता है कि विविधता में एकता वाले हमारे देश में रामलीला का समापन रावण वध के अगले दिन राम-भरत मिलाप के साथ होता है. बुराइयों का अंत करके हम खुले दिल से एक हो जाएँ. हर साल रामलीला यही सन्देश दे जाता है.

The post मेला, रेला, ठेला रामलीला! appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1473

Trending Articles