‘द डायरी ऑन द फिफ्थ फ्लोर’ की युवा लेखिका रईशा लालवानी मुंबई, जयपुर, दिल्ली, दुबई में रह चुकी हैं और उनके लिए जिंदगी एक लम्बा सफ़र रहा है. उनका मानना है कि कुछ लोग पैसों के लिए लिखते हैं, कुछ लोगों के लिए लिखना उनका शौक होता है, वह उस शांति के लिए लिखती हैं जो लिखने से उनको हासिल होती है.
25 वर्षीय लेखिका रईशा लालवानी के उपन्यास ‘द डायरी ऑन द फिफ्थ फ्लोर’ की कथा वाचिका जब अस्पताल के पांचवें माले पर भर्ती होती है तो उसके हाथ में एक मोटी डायरी होती है, कपडे के गत्ते वाली. उस डायरी में ऐसी कहानियां नहीं हैं जो एक लड़की के जीवन के घटनाक्रमों से बनी हुई हैं बल्कि उनमें जीवन के कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब हम आज बड़ी शिद्दत से तलाश कर रहे हैं- हम अपने-अपने जीवन में कितने भावनाहीन होते जा रहे हैं, कई बार हमें कोई ऐसा नहीं मिलता जिसके सामने हम अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर सकें, हमारे आस-पड़ोस, अपने-परायों के जीवन में रोज-रोज यह सब घटित होता है. हम उनके बारे में सुनते हैं, थोड़ी बहुत सहानुभूति जताते हैं और भूल जाते हैं. अस्पताल के पांचवें माले पर भर्ती उस लड़की की डायरी में सब कहानियां दर्ज हैं. उसको डर है कि अगर उसने डॉक्टर को अपनी डायरी दे दी तो शायद वह उसको इस तरह की बातें सोचने के लिए, उनको लिखने के लिए पगली समझ ले. उपन्यास में डायरी के किरदार खुलते चले जाते हैं, उनकी कहानियां पसरती चली जाती हैं. लेकिन एक सवाल अहम है जो बार-बार लौट कर आता है- हम जो हो चुके हैं क्या हम उससे खुश हैं? क्या हम जिंदगी में यही हासिल करना चाहते थे?
दिलचस्प किरदारों और घटनाक्रम के ताने-बाने से बुने इस उपन्यास का प्रकाशन शीघ्र होने वाला है. इन्तजार कीजिये.
प्रभात रंजन
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