हिन्दी में न जाने कितने कवि-लेखक हुए हैं जिन्होने किसी फल की चिंता के बगैर निस्वार्थ भाव से लेखन किया, साधना भाव से। विद्याभूषण जी ऐसे ही एक लेखक-कवि हैं। आज उनकी पाँच कविताएं प्रस्तुत हैं- मॉडरेटर
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शब्द
शब्द
खा़ली हाथ नहीं लौटाते।
तुम कहो प्यार
और एक रेशमी स्पर्श
तुम्हें छूने लगेगा।
तुम कहो करुणा
और एक अदृश्य छतरी
तुम्हारे संतापों पर
छतनार वृक्ष बन तन जायेगी।
तुम कहो चन्द्रमा
और एक दूधपगी रोटी
तुम्हें परोसी मिलेगी,
तुम कहो सूरज
और एक भरा-पुरा कार्यदिवस
तुम्हें सुलभ होगा।
शब्द
किसी की फरियाद
अनसुनी नहीं करते।
गहरी से गहरी घाटियों में
आवाज़ दो,
तुम्हारे शब्द तुम्हारे पास
फिर लौट आयेंगे,
लौट-लौट आयेंगे।
कविता : एक उम्दा ख़्याल
कविता
एलार्म घड़ी नहीं है दोस्तो
जिसे सिरहाने रख कर
तुम सो जाओ
और वह हर नियत वक़्त पर
तुम्हें जगाया करे।
तुम उसे
संतरी मीनार पर रख दो, तो
वह दूरबीन का काम देती रहेगी।
वह सरहद की मुश्किल चौकियों तक
पहुंच जाती है रडार की तरह,
तो भी
मोतियाबिंद के शर्तिया इलाज का दावा
नहीं उसका।
वह बहरे कानों की दवा
नहीं बन सकती कभी।
हां, किसी चोट खाई जगह पर
उसे रख दो
तो वह दर्द से राहत दे सकती है
और कभी सायरन की चीख बन
ख़तरों से सावधान कर सकती है।
कविता ऊसर खेतों के लिए
हल का फाल बन सकती है,
फरिश्तों के घर जाने की खातिर
नंगे पांवों के लिए
जूते की नाल बन सकती है,
समस्याओं के बीहड़ जंगल में
एक बागी संताल बन सकती है,
और किसी मुसीबत में
अगर तुम आदमी बने रहना चाहो
तो एक उम्दा ख़्याल बन सकती है।
शर्त
एक सच और हजार झूठ की बैसाखियों पर
सियार की तिकड़म और गदहे के धैर्य से
शायद बना जा सकता हो महामहिम,
लेकिन आदमी कैसे बना जा सकता है!
पुस्तकालयों को दीमक की तरह चाट कर,
पीठ पर लाद कर उपाधियों का गट्ठर
लोग पा ले सकते हैं स्कालर का सम्मान,
मेहनत से आला अफसर भी बना जा सकता है।
किंचित ज्ञान और सिंचित प्रतिभा जोड़ कर
सांचे में ढाले जा सकते हैं
इंजीनियर, डाक्टर, वकील या कलमकार।
तब भी यह अहम सवाल बच जाता है
कि आदमी बनने का नुस्खा कैसे गढ़ा जाये!
साथियो, दोस्तो,
सरोकार तय करते हैं तहजीब का मिजाज।
सीढ़ी-दर-सीढ़ी मिली हैसियत से बड़ी है
बूंद-बूंद जमा होती संचेतना।
धन और शक्ति के दम से हिंसक गैंडा
मेमने का मुखोश पहन सकता है
और ज्ञान तथा चातुरी में
धूर्त लोमड़ी की चाल छुपी हो सकती है।
यकीनन, आदमी होने की सिर्फ एक शर्त है
कि हम पड़ोसी के दुख में शरीक हैं या नहीं!
फर्क
सागर तट पर
एक अंजुरी खारा जल पी कर
नहीं दी जा सकती सागर की परिभाषा,
चूंकि वह सिर्फ जलागार नहीं होता।
इसी तरह ज़िन्दगी कोई समन्दर नहीं,
गोताखोरी का नाम है
और आदमी गंगोत्री का उत्स नहीं,
अगम समुद्र होता है।
धरती कांटे उगाती है।
तेजाब आकाश से नहीं उतरता।
हरियाली में ही पलती है विषबेल।
लेकिन मिट्टी को कोसने से पहले
अच्छी तरह सोच लो।
फूल कहां खिलते हैं?
संजीवनी कहां उगती है?
अमृत कहां मिलता है?
चन्दन में सांप लिपटे रहें
तो जंगल गुनहगार कैसे हुए?
मशीनें लाखों मीटर कपड़े बुनती हैं,
मगर यह आदमी पर निर्भर है
कि वह सूतों के चक्रव्यूह का क्या करेगा!
मशीनें साड़ी और फांसी के फंदे में
फर्क नहीं करतीं।
यह तमीज
सिर्फ़ आदमी कर सकता है।
बिरसा के नाम
ओ दादा!
कब तक
बंधे हाथ खड़े रहोगे
वर्षा-धूप-ठंढ में
एक ठूंठ साल के तने से टिके हुए?
ओ दादा !
खूंटी-रांची-धुर्वा के नुक्कड़ पर
तेज रफ्तार गाड़ियों की धूल-गर्द
फांकते हुए
कब तक
बंधे हाथ खड़े रहोगे खामोश?
किसने तुम्हें भगवान कहा था?
पूजा गृह की प्रस्तर-प्रतिमा की तरह
राजनीतिक पुरातत्त्व का अवशेष
बना दिया गया है तुम्हें,
जबकि तुम अमृत ज्वालामुखी थे,
जोर-जुल्म के खिलाफ
और ‘दिक्कुओं‘ के शोषण से दुखी थे।
आजाद हिन्दुस्तान में
शहीदों को हम इसी तरह गौरव देने लगे हैं
कि ज़िन्दा यादगारों को मुर्दा इमारतों में
दफ़न करते हैं,
बारूदी संकल्पों का अभिनन्दन ग्रन्थ
छाप कर समारोहों को सुपुर्द कर देते हैं,
ताकि सुरक्षित रहे कोल्हू और बैल का
सदियों पुराना रिश्ता
और इतिहास की मजार पर
मत्था टेकते रहें नागरिक।
आज कितना बदल गया है परिदृश्य :
नये बसते नगरों-उजड़ते ग्रामांचलों में
एक तनाव पसरा रहा है,
झरिया-धनबाद-गिरिडीह की खदानों में
ज़िन्दगी सुलग रही है,
बोकारो की धमन भट्ठियां और चासनाला के लोग
एक ही जलती मोमबत्ती के दो सिरे हैं।
पतरातू-भवनाथपुर-तोरपा की मार्फत
तिजोरियों, बैंक लाकरों, बेनामी जायदादों के लिए
राजकोष खुल गया है
और आमदनी के रास्ते खोजती सभ्यता के मुंह
खून लग गया है दादा!
आज कितनी बदल गयी हैँ स्थितियां :
जगन्नाथपुर मन्दिर के शिखर से ऊपर उठ गयी हैं
भारी इंजीनियरी कारखाने की चिमनियां,
सूर्य मंदिर के कलश
और रोमन-गोस्सनर चर्चों के
प्रार्थना भवनों से ऊंचा है
दूरभाष केन्द्र का माइक्रोवेव टावर।
लहराते खेतों को उजाड़ कर बनी हवाई पट्टी
औद्योगिक विकास के नाम पर
खुली लूट का आमंत्रण देती है
आला अफसरों को,श्रेष्ठि जनों को,जनसेवकों को।
हटिया कारखाने की दिन-रात धड़धड़ाती मशीनें
लौह-इस्पात संयंत्र उगलती रहती हैं
देश-देशांतर के लिए और,
मेकान-उषा मार्टिन के ग्लोबल टेंडर खुलते हैं,
और खुलते जा रहे हैं
आरामदेह अतिथि गृह, चकला केन्द्र, आलीशान होटल,
जनतंत्र को उलूकतंत्र में ढालते हुए।
दादा!
विकास के इसी रास्ते
टिमटिमाती ढिबरियों की लौ
पहुंचती है मजदूर झोपड़ों में, खपड़ैल मकानों में,
दूरदराज गांवों में।
सच, कितना बदल गया है परिवेश :
अल्बर्ट एक्का के नाम।
वसीयत होने के बावजूद
नगर चौक पर फिरायालाल अभी तक काबिज है।
तोरपा-भवनाथपुर-पतरातू-हटिया-डो
सरकारी इमारतों के फाटकों पर
विस्थापितों की एक समान्तर दुनिया
उजाड़ के मौसम का शोक गीत गा रही है।
चिलचिलाती धूप में अंधेरा फैलाता है
हटिया विद्युत ग्रिड स्टेशन नावासारा-तिरील में।
कोकर-बड़ालाल स्ट्रीट में टेलिप्रिंटर-आफसेट मशीनों पर
समाचार का आयात-निर्यात व्यवसाय
दिन-रात चल रहा है।
मगर दीया तले अंधेरा है दादा!
अंधेरा है पतरातू ताप घर की जमीन से उजाड़ कर
बनाई गयी बस्ती में,
अंधेरा है
झारखंड के गांवों में, जंगलों में, पहाड़ों पर,
प्रखंड विकास अंचल कार्यालयों के इर्द-गिर्द,
वन उद्योग के सरकारी महकमों के चारों ओर
अंधेरा है।
दादा, झारखंड के गर्भ गृहों की लूट ज़ारी है।
जंगल उजाड़ हो गये हैं राजपथ की अभ्यर्थना में।
पहाड़ों पर
कितने साल वृक्ष अरअरा के कट चुके हैं,
खदानों के बाहर काला बाजारियों के ट्रकों की
श्रृंखला अटूट लग रही है,
पतरातू विद्युत गृह अनवरत जल रहा है
राजधानी की मोतियाबिंदी आंखों में
रोशनी भरने के लिए।
उस दिन लोहरदगा रेल लाइन की पटरियों पर
उदास चलती मगदली ने पूछा था मुझसे,
सिसलिया और बुंची के चेहरों पर
छले जाने का दर्द था,
सावना की आंखों में वही हताशा झांक रही थी
जो ब्रिटिश राज से जूझते हुए
रांची सदर जेल में
सुकरात की तरह ज़हर पी कर बुझते हुए
तुमने महसूस की होगी।
तुम कौन थे?
क्या किया था तुमने अपनी कौम की खातिर?
उस दिन यही सवाल पूछा था क्लास में।
मास्टर जी सिर खुजलाते बोले थे-
भगवान थे, फिरंगियों की कैद में मरे थे
बीमार हो कर।
दादा! दन्तकथाओं की मालाओं से दब कर
तुम पुराण कथाओं के नायक बन गये हो,
मगर जुल्म से टक्कर लेने वाले उस आदमी
की चर्चा क्यों फीकी है?
अनामिका तिर्की तुम्हें भगवान मानती है,
यही जानता है विवेक महतो।
रांची विश्वविद्यालय के परीक्षा केन्द्रों से
उफनती युवा ज्वालामुखी
डैनी-अमजद-राज बब्बर और
पद्मिनी कोल्हापुरी को समर्पित है।
पार्टियां इस भीड़ को अपनी फौज में
बदलने की कोशिश कर रही हैं लगातार…
वैसे शहर में पार्टियां अकसर चलती हैं!
किसी घोटाले से बेदाग बचने की खुशी में
जश्न की महफ़िल सजती है,
थैली पार्टियों से झंडा पार्टियों की दोस्ती
खूब जमती है,
क्योंकि सफेदपोशों के इस देश में
बिचौलियों की चांदी है,
जनता नेता की बांदी है।
लेकिन तुम, दादा तुम
कब तक, कब तक
बंधे हाथ खड़े रहोगे
खूंटी-रांची-धुर्वा के तिराहे पर
खामोश?
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