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सत्य व्यास के बहुप्रतीक्षित उपन्यास ‘चौरासी’का एक अंश

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सत्य व्यास के लेखन ने निस्संदेह हिन्दी के युवा लेखकों-पाठकों में नए उत्साह का संचार किया है। उपन्यास की प्री बुकिंग करवाकर मैं भी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा हूँ। फिलहाल उपन्यास के एक पठनीय अंश का आनंद लेते हैं- प्रभात रंजन

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कहानियों को गंभीर और अलग बनाने के बहुत सारे तरीक़े हो सकते हैं। एक तरीक़ा तो यह है कि कहानी कहीं बीच के अध्याय से शुरू कर दी जाए। आप आठवें-नवें पन्ने पर जाएँ तो आपको कहानी का सूत्र मिले। आप विशद पाठक हुए तो आगे बढ़े वर्ना चौथे-पाँचवें पन्ने पर ही कहानी दूर और किताब दराज़ में चली जाए।

मैं ऐसा नहीं करूँगा। इसके चार कारण हैं। पहला तो यह कि मैं चाहता हूँ कि आप यह कहानी पढ़ें, दराज़ में न सजाएँ।

दूसरा यह कि मैं क़िस्सागो नहीं हूँ। सो, वैसी लफ्फ़ाज़ियाँ मुझे नहीं आतीं। मैं एक शहर हूँ जो उसी ज़बान और उसी शैली में कहानी सुना पाएगा जो ज़बान उसके लोगों ने उसे सिखाई है।

तीसरा यह कि प्रेम स्वयं ही पेंचीदा विषय है। तिस पर प्रेम कहानी डेढ़ पेंचीदा। प्रेम की गूढ़ और कूट बातें ऐसी कि यदि एक भी सिरा छूट जाए या समझ न आए तो मानी ही बदल जाए।

और आख़िरी कारण यह कि इस कहानी के किरदार ख़ुद ही ऐसा चाहते हैं कि उन्हें सादा दिली से पढ़ा जाए। इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि इसे सादा ज़बान लिखा भी जाए।

किरदार के नाम पर भी कहानी में कुल जमा चार लोग ही हैं। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी समझता हूँ कि कहानी जितनी ही सरल है, किरदार उतने ही जटिल। अब मुख्य किरदार ऋषि को ही लें। ऋषि जो कि पहला किरदार है। 23 साल का लड़का है। बचपन में ही माँ साँप काटने से मर गई और दो साल पहले पिता बोकारो स्टील प्लांट में तार काटने में जाया हो गए। अपने पीछे ऋषि के लिए एक मोटरसाइकिल और एलआईसी के कुछ काग़ज़ छोड़ गए। ऋषि ने काग़ज़ फेंक दिया और मोटरसाइकिल रख ली। पिछले दो सालों से बिला नागा बोकारो स्टील प्लांट के प्रशासनिक भवन के बाहर पिता की जगह अनुकंपा पर नौकरी के लिए धरने पर बैठता है। मेधावी है तो बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर ख़र्च निकाल लेता है। मुहल्ले के सारे काम में अग्रणी है। आप कोशिश करके भी किसी काम से थक गए हैं तो ऋषि ही उसका इलाज है। मोटर, बिजली बिल, चालान, जलावन की लकड़ी, कोयला, मिट्टी-तेल, बिजली-मिस्त्री, राजमिस्त्री इत्यादि सबका पता सबका समाधान ऋषि के पास है।

आप सोच रहे होंगे कि इतना अच्छा तो लड़का है। सरल, सीधा, मेधावी और कामकाजी। फिर मैंने इसे पेंचीदा क्यों कहा? क्योंकि उसका यह चेहरा बस मोहल्ले के मोड़ तक ही है। मोड़ से निकलते ही ऋषि उच्छृंखल है। उन्मुक्त है। निर्बाध है। उद्दंड है। प्रशासनिक भवन पर धरने के वक़्त बाहर निकलते अधिकारियों को जब घेर लेता है तब रोबीली आवाज़ का यह मालिक उन्हें मिमियाने पर मजबूर कर देता है। धरने-प्रदर्शन के कारण ही स्थानीय नेता से निकटता भी हासिल है जिसका ज़ोम न चाहते हुए भी अब उसके चरित्र का हिस्सा है। वह पल में तोला और पल में माशा है। मगर इन सबके उलट बाहर महज़ आँखें तरेरकर बात समझा देने वाले ऋषि को अपने मोहल्ले में, अपनी गलियों में भूगर्भ विज्ञानी का नाम दिया गया है; क्योंकि अपने मोहल्ले में वह ज़मीन से नज़रें ही नहीं उठाता। व्यवहार का यही अंतर्विरोध ऋषि को पेंचीदा बनाता है।

दूसरे किरदार छाबड़ा साहब हैं। छाबड़ा साहब सिख हैं। पिता की ओर से अमृतधारी सिख और माता की ओर से पंजाबी हिंदू। अपने घर में सबसे पढ़े-लिखे भी। मसालों का ख़ानदानी व्यवसाय था मोगा में। अगर भाइयों से खटपट नहीं हुई होती तो कौन आना चाहता है इन पठारों में अपना हरियाला पिंड छोड़कर! अपने गाँव, अपने लोग छोड़कर! ब्याह औरतों से आँगन छीनता है और व्यापार मर्दों से गाँव। बहरहाल, कर्मठ इंसान को क्या देश क्या परदेस! वह हर जगह ज़मीन बना लेता है। बोकारो शहर के बसते-बसते ही छाबड़ा साहब ने अवसर भाँप लिया था और यहाँ चले आए। थोड़ी बहुत जान-पहचान से कैंटीन का काम मिल गया। पहले काम जमाया फिर भरोसा। काम अच्छा चल पड़ा तो एक बना-बनाया घर ही ख़रीद लिया। ऋषि ने इनके कुछ अटके हुए पैसे निकलवा दिए थे; इसलिए ऋषि को जब कमरे की ज़रूरत पड़ी तो छाबड़ा साहब ने अपना नीचे का स्टोरनुमा कमरा उसे रहने को दे दिया। बस शर्त यह रखी कि किराये में देर-सबेर भले हो जाए; घर सराय न होने पाए। अर्थात् बैठकबाजी और शराबनोशी बर्दाश्त नहीं की जाएगी। उन्होंने अपने घर के एक कमरे में गुरुग्रंथ साहब जी का ‘परकाश’ भी कराया। बाद में गाँव से पत्नी को भी ले आए। उनकी बेटी मनु हालाँकि तब गाँव में ही थी। वह एक साल बाद आई।

एक साल बाद आई ‘मनु’ ही इस कहानी की धुरी है। मनजीत छाबड़ा। मनु जो मुहल्ले में रूप-रंग का पैमाना है। मुहल्ले में रंग दो ही तरह का होता है- मनु से कम या मनु से ज़्यादा। आँखें भी दो तरह की- मनु से बड़ी या मनु से छोटी। मुस्कुराहट मगर एक तरह की ही होती है- मनु जैसी प्यारी। ‘आए बड़े’ उसका तकिया-कलाम है जिसके ज़रिये वह स्वतः ही सामने वाले को अपने स्तर पर ले आती है। भोली इतनी कि रास्ते में मरे जानवर की दुर्गंध पर छाबड़ा साहब अगर साँस बंद करने को कहें तो तबतक नहीं खोलती जबतक वह साँस छोड़ने को न कह दें। बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा है और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी सिर्फ़ इस भरोसे से करती है कि एक दिन ऋषि उसे भी पढ़ाएगा। ऋषि एक-दो बार इसके लिए यह कहकर मना कर चुका है कि वह स्कूल के बच्चों को पढ़ाता है, कॉलेज के बच्चों को नहीं।

चौथा और सबसे महत्वपूर्ण किरदार यह साल है, 1984। साल जो कि दस्तावेज़ है। साल जो मेरी छाती पर किसी शिलालेख की भाँति खुदा है। मैं न भी चाहूँ तो भी तारीख़ मुझे इसी साल की बदौलत ही याद करेगी; यह मैं जानता हूँ।

बाक़ी, इसके अलावा जो भी नाम इस किताब में आएँ वे महज़ नाम हैं जो कहानी के किसी चरण में ही खो जाने हैं।

अब मेरा परिचय? मैं शहर हूँ- बोकारो। मेरे इतिहास में न जाएँ तो वक़्त बचेगा। वैसे भी इतिहास तो मैदानी इलाकों का होता है जहाँ हिंदुकुश की दरारों के बरास्ते परदेशी आते गए और कभी इबारतें तो कभी इमारतें बनाते गए। उनके मुकाबिल हम पठारी, लल-मटियाई ज़मीनों को कौन पूछता है? हमारी कहानियाँ किसी दोहरे, किसी माहिये या तवारीख़ में भी नहीं आतीं। इसीलिए हम अपनी कहानी ख़ुद ही सुनाने को अभिशप्त हैं।

अभिशप्त यूँ कि आज़ादी के 25 साल बाद भी 3 अक्टूबर 1972 को पहला फावड़ा चलने से पहले तक मुझे कौन जानता था! उद्योगों में विकास खोजते इस देश को मेरी सुध आई। देश की प्रधानमंत्री ने मेरी छाती पर पहला फावड़ा चलाया और मैं जंगल से औद्योगिक नगर हो गया। नाम दिया गया- ‘बोकारो इस्पात नगर।’ पहली दफ़ा देश ने मेरा नाम तभी सुना।

मगर दूसरी दफ़ा जब देश ने मेरा नाम सुना तो प्रधानमंत्री की हत्या हो चुकी थी और मैं शर्मसार हो चुका था। मैं आपको अपनी कहानी सुना तो रहा हूँ; लेकिन मैंने जानबूझकर कहानी से ख़ुद को अलग कर लिया है। इसके लिए मेरी कोई मजबूरी नहीं है। पूरे होशो-हवास में किया गया फ़ैसला है। बस मैं चाहता हूँ कि मुझे और मेरे दुःख को आप ख़ुद ढूँढ़ें और यदि ढूँढ़ पाएँ तो समझें कि आप के किए की सज़ा शहर को भुगतनी पड़ती है। तारीख़ किसी शहर को दूसरा मौक़ा नहीं देती।

अब ख़ुद को बीच से हटाता हूँ। आप किरदारों के हवाले हुए। बिस्मिल्लाह कहिए!

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किताब का नामः चौरासी

लेखकः सत्य व्यास

प्रकाशकः हिंद युग्म

उपन्यास, पेपरबैक, पृष्ठः 160, मूल्यः रु 125

 

अमेज़ॉन से 11 अक्टूबर 2018 तक या उससे पहले प्रीबुक करने वाले 500 भाग्यशाली पाठकों को स्टोरीटेल की तरफ़ से रु 299 का गिफ़्ट कार्ड फ़्री। किंडल पर किताब का प्रीव्यू एडिशन बिलकुल फ़्री।

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