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‘देह ही देश ‘स्त्री यातना का लोमहर्षक दस्तावेज़ है

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गरिमा श्रीवास्तव की किताब ‘देह ही देश’ पर यह टिप्पणी कवयित्री स्मिता सिन्हा ने लिखी है. यह किताब राजपाल एंड संज से प्रकाशित है- मॉडरेटर

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कुछ किताबें अप्रत्याशित रुप से आपको उन यात्राओं पर ले चलती है जहां यातनायें हैं , हत्यायें हैं , क्रूरता है ,सिहरन है ,  विचलन है , विक्षिप्ति है ………एक ऐसी यात्रा जहां हर क़दम पर आपकी संवेदनायें सुन्न पड़ती जाती हैं , जड़ हो जाती है आपकी बौद्धिकता । आप रुकते हैं , झिझकते हैं , फिर सम्भल कर आगे बढ़तेे हैं ……..और , और फिर एक हठात सा सच सामने आकर खड़ा हो जाता है । उफ़्फ़ ……

              अपने दो साल के क्रोएशिया प्रवास के दौरान गरिमा श्रीवास्तव जी ने युगोस्लाविया विखंडन में हताहत हुए आख्यानों को अपनी डायरी में दर्ज करने की कोशिश की । इस यात्रा वृतांत के टुकड़ेे ‘ हंस ‘ में क्रमानुसार छापे भी गये । डायरी के पन्ने अद्भुत रुप से पाठकों के बीच लोकप्रिय हुए ।एक किताब की शक्ल में ‘ देह ही देश ‘ उन्हीं पन्नों का एक कोलाज़ है । यह किताब वस्तुतः रक्तरंजित स्मृतियों का तीखा और सच्चा बयान है , जो सर्ब -क्रोआती बोस्नियाई संघर्ष के दौरान वहां के स्त्री जीवन की विभीषिका और विवशता को परत दर परत खोलता नज़र आता है । इस संघर्ष में भीषण रक्तपात हुआ और लगभग बीस लाख लोग शरणार्थी हो गये । क्रोएशिया और बोस्निया के खिलाफ़ सर्बिया के पूरे युद्ध का एक ही उद्देश्य था कि यहां के नागरिकों को इतना प्रताड़ित किया जाये कि वो अपनी जमीन और देश छोड़कर चले जायें और विस्तृत सर्बिया का सपना पूरा हो सके । सामुहिक हत्या , व्यवस्थित बलात्कार और यातना शिविर भी इसी सोची समझी रणनीति के तहत बनाये गये और औरतों को एक कॉमोडिटी के रुप में इस्तेमाल किया गया । सर्ब कैम्प रातों रात ‘रेप कैम्पों ‘ में तब्दील हो गये और क्रोआती बोस्नियाई औरतें योनिओंं में सिमट आयीं । फ़िर शुरु हुआ शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना का लोमहर्षक घृणित खेल ।
               युद्ध में बलात्कार को हमेशा से ही एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है । पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बांग्लादेशी औरतों का बलात्कार हो या युगांडा व ईरान में औरतों का यौन शोषण या सर्बों द्वारा क्रोआतीओंं बोस्नाईयोंं पर बर्बरता , इतिहास ऐसे तमाम किस्सों से अटा पड़ा है । उग्रराष्ट्रवाद के नाम पर निर्वासन , उत्पीड़न एवं शोषण के ये आख्यान विभस्त और संक्रामक हैं । फिक्रेत , मेलिसा , दुष्का , लिलियाना ………हर नाम के साथ रूह कंपा देने वाली कहानी । एक पाठक के रुप में खुद को व्यवस्थित रखनेे के लिये मुझे कुछ अंतराल चाहिये था,  तो गरिमा जी के लिये ये सबकुछ सुनना और लिखना कितना मुश्किल रहा होगा ! !  बेचैनी और अवसाद से गुज़रते हुए धैर्य और साहस के साथ खुद को तटस्थ रखना आसान तो नहीं ही रहा होगा ! ! मैं सहज अंदाजा लगा पा रही हूँ कि कितना कठिन रहा होगा एक एक कर इतिहास के उन विद्रूप पन्नों को खोलना जो बस आंकड़ों की तहरीर बनकर दर्ज़ हो गयी ।
           पूरी डायरी में सिमोन द बोउआर लेखिका के समानांतर चलती दिखती हैं । स्त्रीवाद के वैचारिक और राजनीतिक विमर्श वक़्त के कालखंडों पर व्यावहारिक पक्ष की पड़ताल करते दिखते हैं । सिमोन के आत्मकथ्यात्मक उपन्यासों के साथ गरिमा जी के ज़ाग्रेब के व्यापक जीवनानुभवों से होकर गुजरना दिलचस्प और रोमांचक लगता है ।
             यायावरी लेखन में बेहद नये आयाम रचती यह किताब भोगे गये यथार्थ का दस्तावेज़ है , जिनमें खून में सनी औरतें और बच्चियां हैं । क्षतविक्षत और छलनी जिस्म हैं । जबह होतेे मासूम हैं और ज़बरन गर्भवती होती स्त्रियाँ भी …….जो टायलेट में , तहख़ानों में और छावनियों में घसीटी जा रही हैं ।  जो धकेली जा रही हैं सरहदों के पार , बेची खरीदी जा रही हैं जानवरों की तरह । औरतें जो वहशियों से खुद को बचाने के लिये नदी में डूब रही हैं , जमीन में कब्र बनाकर छिप रही हैं । पढ़ते पढ़तेे आप पथराने लगते हैं तो कभी दर्द से फफक उठते हैं । जख्मी जिस्म के अनगिनत घाव आपके शरीर पर रिसने लगते हैं । अनुपस्थित होकर भी हर कहानी में आप उपस्थित होते हैं ……एकदम मूक और मौन । धीरे धीरे आप एक उदास उचाटपन में घिरते चले जाते हैं और तभी गरिमा हमें अपने दोस्तों और परिवार से मिला लाती हैं । कहानी से माकूल बैठती कुछ संदर्भित कवितायें सुना देती हैं । शांतिनिकेतन और जाग्रेब के मनमोहक लुभावने परिवेश की सैर करा देती हैं । अब सहज हो चलते हैं ।
                   ‘देह ही देश ‘ में सबसे चमत्कृत करने वाली बात लेखिका की शोध है । सभी ज़रूरी आंकड़ों और प्रवाहमय भाषा शैली के साथ उन्होंंने विस्थापन , सेक्स ट्रैफिकिंग से लेकर पुनर्वास तक हर पक्ष की गहरी पड़ताल की । बड़ी ही सूक्ष्मता और व्यापकता से युद्ध के बाद के परिदृश्यों का आंकलन किया ।अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी और स्त्रीवादी संगठनों के मानवाधिकार मानकों को सीधे सीधे कटघरे मेंं खड़ा किया , जिनकी रपटें चौंकानेवाली और परस्पर विरोधी थीं ।
            ‘ देह ही देश ‘ गुमनामी के अंधेरों में खोई हुई कहानियोंं को खुद में समेटता चलता है । दिखाता चलता है कहे अनकहे किस्सों का सच । सच जिसमें भय, घृणा और वितृष्णा है । घुटती हुई चीखें हैं । निर्वसन होती जिस्में हैं । खुरँचती हुई ज़िंदगी और धुंधलाती स्मृतियाँ हैं । सच जिसमें बीत चुके को नियति स्वीकार कर बचे हुए आत्मसम्मान के साथ आगे की ज़िंंदगी के सफ़र पर निकल चुके कई क़दम हैं ।

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