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चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’की कहानी ‘उसने कहा था’पर एक नजर

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आज चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की पुण्यतिथि है। ‘उसने कहा था’ कहानी के इस लेखक से हिन्दी के हर दौर के लेखक-पाठक जुडते रहे है। युवा लेखक पीयूष द्विवेदी भारत ने आज उनको याद करते हुए यह लेख लिखा है- मॉडरेटर

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प्रेमचंद ने तकरीबन 300 कहानियाँ और लगभग दर्जन भर लोकप्रिय उपन्यास लिखे और हिंदी के कथा-सम्राट कहलाए; प्रसाद ने उपन्यास, कहानी, नाटक से लेकर महाकाव्य तक गद्य-पद्य दोनों में जमकर कलम चलाई और हमारे लिए स्मरणीय हुए; पन्त और निराला ने पारंपरिक काव्य-विधानों को धता बताते हुए कविता के नव-विधान गढ़े और युगांतरकारी कवियों में शुमार हुए तो राष्ट्रकवि दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसे श्रमसाध्य शोध-ग्रंथ से लेकर महाकाव्य ‘उर्वशी’ तक की रचना कर हिंदी साहित्य के क्षेत्र में अमिट स्थान बनाया – ये श्रृंखला और बहुत लम्बी हो सकती है। अपनी सुविधा के अनुसार जितने चाहें नाम इसमें जोड़े जा सकते हैं। मगर मजमून केवल इतना है कि हमारे ये सभी महान रचनाकारों ने खूब लिखा और कई-कई श्रेष्ठ व चर्चित ग्रंथ रचकर हिंदी के साहित्याकाश में अटल नक्षत्र की तरह दीप्तिमान हुए। लेकिन इन सबसे अलग एक लेखक ऐसा भी हुआ, जिसने लिखने को तो फुटकर रूप में निबंध, शोधपत्र, लेख, कहानी, कविता आदि बहुत कुछ लिखा लेकिन इनमें प्रसिद्धि सिर्फ एक कहानी को मिली, बाकी रचनाओं का तो नाम भी कम ही लोगों को मालूम होगा। लेकिन उस एक कहानी को ही ऐसी प्रसिद्धि मिली कि उसका असर आज शताब्दी गुजर जाने के बाद भी कम नहीं हुआ है। वो महान कहानी है ‘उसने कहा था’ और उसके अमर लेखक हैं पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी जिनकी आज पुण्यतिथि है।

‘उसने कहा था’ की रचना से पूर्व हिंदी में कहानी के नाम पर जादू-तिलिस्म की प्रतिपाद्यविहीन कपोल-कथाएँ ही रची जा रही थीं। बीसवीं सदी का दूसरा दशक अधिया चुका था। तब प्रेमचंद भी लिख जरूर रहे थे, लेकिन हिंदी में नहीं, उर्दू में। कुल मिलाकर हिंदी कहानी के लिए ये नाउम्मीदी का ही दौर था। ऐसे वक्त में युगांतकारी पत्रिका सरस्वती में ‘उसने कहा था’ का प्रकाशन हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध, जो अभी शुरू ही हुआ था, की यथार्थवादी पृष्ठभूमि पर प्रेम, शौर्य और बलिदान की भावना से पुष्ट एक आदर्शवादी नायक की इस गाथा ने प्रसिद्धि तो पाई ही, तत्कालीन दौर में दिशाहीन हिंदी कहानी को मार्ग दिखाने का भी काम किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तब इस कहानी में यथार्थवाद की पहचान करते हुए लिखा था, “इसमें पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है।” कालांतर में इसे कथा-तत्वों के आधार पर हिंदी की पहली मौलिक कहानी माना गया। हालांकि इस विषय में कुछ मतभेद भी हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल किशोरीलाल गोस्वामी की इंदुमती को हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी मानते थे, लेकिन राजेन्द्र यादव ने ‘इंदुमती’ में शेक्सपीयर के नाटक ‘टेम्पेस्ट’ का प्रभाव बताते हुए ‘उसने कहा था’ को हिंदी की पहली मौलिक कहानी कहा। खैर हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी को लेकर और भी कई दावे हैं, सो इसपर पक्के ढंग से कुछ कहना कठिन है, मगर कथा-तत्वों के आधार पर ‘उसने कहा था’ को हिंदी की पहली पूर्ण कहानी कहने में कोई संशय नहीं होना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो इस कहानी के द्वारा गुलेरी जी ने हिंदी को ‘कहानी’ नामक विधा की ताकत का बताने का काम किया था।

आज ‘उसने कहा था’ 103 साल की हो चुकी है और इस दौरान हिंदी कहानी ने परिवर्तन के अनेक पड़ावों को पार किया है। आदर्शवाद से यथार्थवाद, फिर बीच में जादुई यथार्थवाद और अब अति-यथार्थवाद तक हिंदी कहानी के इस यात्रा-क्रम में अनेक महान कथाकारों और कृतियों से हिंदी का दामन भरता गया है। मगर अति-यथार्थवाद के इस दौर में भी ‘उसने कहा था’ का आदर्शवाद हमें तार्किक ढंग से आकर्षित करता है।

देखा जाए तो इस रचना ने सिर्फ हिंदी कहानी को ही दिशा नहीं दी, बल्कि कहीं न कहीं इसका प्रभाव हमारी सिनेमा पर भी पड़ा। बिमल रॉय ने सुनील दत्त और नंदा को लेकर इसपर आधारित इसी नाम से फिल्म भी बनाई। इसकी प्रस्तुति के तौर-तरीकों को सिनेमा में विशेष स्थान मिला। आपने अनेक ऐसी फ़िल्में देखी होंगी जिनमें शुरुआत में एक कोई घटना दिखा दी जाती और उसके बाद अचानक पूरा दृश्य ऐसे बदल जाता है कि दर्शक अंत तक शुरुआत के दृश्य का भेद जानने के लिए बैठा रहता है। सिनेमा के प्रस्तुति की ये पद्धति अनाधिकारिक रूप से गुलेरी जी की ही देन है, सो साहित्य तो उनका शुक्रगुजार है ही, सिनेमा को भी होना चाहिए।

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