सोशल मीडिया के माध्यम से इधर कुछ लेखक-लेखिकाओं ने अपनी अच्छी पहचान बनाई है। इनमें एक नाम अंकिता जैन का भी है। उनके कहानी संग्रह ‘ऐसी वैसी औरत’ की एक अच्छी समीक्षा लिखी है युवा लेखक पीयूष द्विवेदी भारत ने- मॉडरेटर
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अंकिता जैन के कहानी संग्रह ‘ऐसी वैसी औरत’ की कहानियाँ स्त्री-जीवन से जुड़ी उन व्यथा-कथाओं को स्वर प्रदान करती हैं, जिनके आधार पर समाज उन्हें पतित घोषित कर देता है। संग्रह में कुल दस कहानियाँ हैं और इनमें से सभी कहानियों की मुख्य पात्र समाज की दृष्टि में पतित हो चुकी एक स्त्री है। अच्छी बात यह है कि ज्यादातर कहानियों में लेखिका ने केन्द्रीय पात्रों के प्रति किसी प्रकार की सहानुभूति जताने या समाज की नजर में खटकते उनके आचरण को सही सिद्ध करने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया है, बल्कि वे एक सीमा तक निरपेक्ष भाव से उनकी व्यथा-कथा को शब्द देते हुए शेष सब पाठक पर छोड़ती चली हैं।
इस संग्रह की पहली कहानी ‘मालिन भौजी’ एक ऐसी विधवा स्त्री की कहानी है, जो पति की मृत्यु के पश्चात् ससुराल व मायके द्वारा त्याग दिए जाने के बाद कानूनी लड़ाई के जरिये ससुराल से अपने हिस्से की जमीन-जायदाद प्राप्त कर अकेले रह रही है। कानूनी लड़ाई के दौरान परिचित हुए एक वकील साहब का उसके यहाँ आना-जाना है, जिस कारण समाज उसके चरित्र के प्रति एक संदिग्ध दृष्टि रखता है। मालिन भौजी का चरित्र एक जुझारू और जिजीविषा से भरी स्त्री का है, परन्तु समाज में उसके संघर्ष की नहीं, चारित्रिक संदिग्धता की ही चर्चा चलती है। बगावती स्त्री चरित्र पर केन्द्रित हिंदी की बहुधा कहानियों में मालिन भौजी के मिजाज से मिलते-जुलते पात्र मिल जाएंगे, लेकिन इस कहानी के अंत में मालिन भौजी के चरित्र को जो आयाम दिया गया है, वो इसे आगे की चीज बनाता है। कहानी का अंत न केवल कुछ हद तक चकित करता है, बल्कि दिमाग को सोचने के लिए भरपूर खुराक भी दे जाता है।
पति द्वारा छोड़ दी गयी स्त्री के जीवन पर आधारित कहानी ‘छोड़ी हुई औरत’ के आखिरी हिस्से में इसकी मुख्य पात्र रज्जो मन्नू भण्डारी की कहानी ‘अकेली’ की सोमा बुआ की बरबस याद दिलाती है। ‘रूम नंबर फिफ्टी’ लड़कियों के समलैंगिक संबंधों का विषय उठाती है। समलैंगिकता के प्रति समाज की संकीर्ण दृष्टि का पक्ष तो कहानी की सामान्य बात है, लेकिन इसका उल्लेखनीय पक्ष लड़कियों में प्रचलित इस धारणा कि प्रेम संबंधों में सिर्फ लड़के ही स्वार्थी, छली और निर्दयी होते हैं, पर चोट करना है। समलैंगिक शैली को उसकी साथिन निधि द्वारा प्रताड़ित कर छोड़ देना यह दिखाता है कि ‘प्यार में जो दूसरी तरफ होता है, वो सख्त ही होता है, फिर चाहें वो लड़का-लड़की के बीच का प्यार हो या दो लड़कियों के’। हालांकि समलैंगिकता की समस्या केवल स्त्रियों तक सीमित नहीं है, समलैंगिक पुरुषों के समक्ष भी समान दिक्कतें आती हैं। इस तथ्य का जिक्र कहानी में होना चाहिए था। इसके अलावा समलैंगिकता के नकारात्मक पक्षों जिसकी पुष्टि विज्ञान भी करता है, की चर्चा न होना भी कहानी के प्रभाव को कम ही करता है।
‘एक रात की बात’ और ‘गुनाहगार कौन’ जैसी कहानियों के द्वारा लेखिका ने स्त्री की दैहिक इच्छाओं के प्रति समाज की बेपरवाही और संकुचित दृष्टि को बेपर्दा करने की कोशिश की है। ‘गुनाहगार कौन’ कहानी की मुख्य पात्र सना जो नपुंसक पति होने के कारण शारीरिक सुख नहीं मिल पाता, विवाहेतर सम्बन्ध में पड़कर घर से भागती है और जिस्मफरोशी के धंधे में पड़ जाती है। सना की शारीरिक सुख की आकांक्षा गलत नहीं है, परन्तु अंततः अन्य पात्रों की अपेक्षा उसे हम कहानी का एक कमजोर पात्र ही पाते हैं। वो पहले नपुंसकता के कारण जिस पति को छोड़कर भाग जाती है, जिस्मफरोशी के दलदल में धंसने के बाद जब वही पति मिलता है और फिर शादी करने की बात कहता है, तो उसकी नपुंसकता को भूलकर दुबारा उसके साथ घर बसाने का इरादा कर लेती है। इस कहानी के पुरुष पात्र जैसे कि सना का भाई और पति भी समाज से भयभीत और परिस्थितियों के उतने ही शिकार हैं जितनी कि स्त्री पात्र के रूप में सना है, लेकिन पुरुष जहां चुनौतियों का मजबूती से सामना किए हैं, वहीं सना एक पलायनवादी और विरोधाभासों से भरा चरित्र ही साबित होती है। संभव है कि लेखिका ने कहानी में इससे अलग कुछ कहना चाहा हो, लेकिन संप्रेषित यही हुआ है।
इन कहानियों को पढ़ते हुए यह स्पष्ट होता है कि अंकिता की कलम में पात्र-निर्माण की सामर्थ्य है। हालांकि इस संग्रह में उन्होंने स्त्री-चरित्रों को केंद्र में रखकर कहानियाँ लिखी हैं, इसलिए यह कहना कठिन है कि उनकी इस सामर्थ्य की सीमा स्त्री पात्रों से बाहर कितनी प्रभावी है, परन्तु स्त्री पात्रों को गढ़ने में वे निस्संदेह सफल रही हैं। उनकी कहानियों के स्त्री पात्र अपने आचार-विचार में कई बार नाटकीय होते हुए भी बनावटी नहीं लगते।
लगभग सभी कहानियों की प्रस्तुति का ढंग कमोबेश एक ही जैसा है, मगर रोचकता से भरपूर है। हर कहानी बेहद शांत ढंग से शुरू होने के बाद कहानी की बजाय किसीकी व्यथाओं की अभिव्यक्ति लगने लगती है, लेकिन तभी अचानक उसका अंत आता है और अंत में कुछ ऐसा नाटकीय-सा घटित होता है कि पाठक को उस कहानी में कहानीपन का अनुभव हो उठता है। कह सकते हैं कि अंकिता के पास कहानियाँ भी हैं और उनको कहने का कौशल भी।
ज्यादातर कहानियों में वर्णन के लिए पूर्वदीप्ति (फ्लैशबैक) शैली का प्रयोग हुआ है। लेखिका ने अनावश्यक प्रयोगों में उलझने की बजाय कथा-वस्तु की कसावट पर ध्यान लगाया है, जिसमें वो सफल भी रही हैं। सीधे शब्दों में कहें तो यथार्थ और कल्पना के समुचित मिश्रण से तैयार ये कहानियाँ अपने कथ्य की गंभीरता के बावजूद रोचक प्रस्तुति के दम पर पाठक को अंत तक बाँधे रखने में कामयाब नजर आती हैं।
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