नीलोत्पल मृणाल का उपन्यास ‘डार्क हौर्स’ अपने नए कलेवर में हिन्द युग्म-वेस्टलैंड से छपकर आया है. नए सिरे से उसको लेकर पाठकों-अध्येताओं में उत्साह है. एक टिप्पणी इस उपन्यास पर रोहिणी कुमारी की- मॉडरेटर
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नीलोत्पल मृणाल को किसी ख़ास परिचय की ज़रूरत नहीं और न ही उनकी किताब “डार्क हॉर्स” को. पिछले कई महीनों से कोई भी किताब पढ़ पाना सम्भव नहीं हो पा रहा था, ऐसे में पढ़ाई लिखाई के इसी टूटे हुए तारतम्य को फिर से जोड़ने के लिए मुझे “डार्क हॉर्स” से अच्छा कुछ नहीं सूझा. पिछले सप्ताह किताब ख़रीद भी ली लेकिन अपने लक्षणों को देखकर शक ही था कि पढ़ पाऊँगी.
ख़ैर हुआ इसके उलट और किताब आते ही बाक़ी काम और बातें सब भूल गई. यहाँ तक कि इस किताब के लेखक को उनके जन्मदिन पर संदेश देना भी बस रह ही गया…ख़ैर थोड़ी सी बात किताब के बारे में…
“डार्क हॉर्स” एक ऐसी किताब है जिसे मेरे जैसा पाठक शायद किताब कहना पसंद नहीं करेगा, मेरे हिसाब से यह अनुभवों का एक संग्रह है या पढ़ने लिखने और प्रतियोगिता परीक्षाओं से मिलने वाली गाड़ी के ऊपर उस लालबत्ती की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ने और अपने आधे से अधिक जीवन को जाया कर देने वाले युवाओं की आत्मकथा या फिर उनकी रोज़ की डायरी जिसे वो शब्दों में उकेर नहीं पाते. किताब के विषय के बारे में ज़्यादा कुछ कहना बातों को दोहराना भर होगा, हाँ इसके पात्रों का जवाब नहीं है। एक एक पात्र जीवंत है और चूँकि पिछले कई सालों से मैंने अपना समय ऐसे ही लोगों के आस पास बिताया है तो कह सकती हूँ कि किताब के हर एक इंसान को मैंने अपने सामने देखा है और कम या ज़्यादा समय उनके साथ बिताया है वो चाहें राय साहब हों, गुरु हो या विदिशा या फिर मयूराक्षी…
सिविल प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करने वाले प्रतियोगी आते भले ही अलग अलग परिवेश से हो लेकिन मुखर्जी नगर के उस यूटोपिया में आकर सब एक ही हो जाते हैं…गाँव,देहात,डीयू,जेएनयू सभी जगह से आकर मुखर्जी नगर के बतरा सिनेमा के उस चौक पर जमा हुए लोगों के सपने इस क़दर एक होते हैं कि इन लोगों की विविधता भी मिट जाती है और एक के चेहरे में दूसरे का व्यक्तित्व झलकने लगता है और हम जैसे बाहरी दुनिया वाले लोग उन्हें देखकर, अपने सपने को लेकर उनके पागलपन और ईमानदारी को देखकर मुस्कुरा भर देने के सिवा कुछ नहीं कर पाते हैं…
परीक्षा की तैयारी करने के संकल्प से लेकर मंज़िल को हासिल कर लेने तक की यात्रा का जीवंत वृतांत नीलोत्पल जी ने बिलकुल उसी अन्दाज़ में किया है जिस अन्दाज़ में मैं या आप छुट्टियों में घर जाने पर चाय पीते पीते घरवालों को अपने क्लासमेट या रूममेट की कहानी सुनाते हैं.
अंत में, वैसे तो इस किताब के बारे में बहुत सी बातें ऐसी हैं जो अच्छी हैं लेकिन उनमें से एक बात जो सबसे ज़रूरी लग रही है कहनी वह यह है कि लुगदी साहित्य और नई हिंदी के इस लिक्खाड दौर में यह एकमात्र किताब है जो मैं बार बार पढ़ना चाहूँगी और किसी को भी पढ़ने कहूँगी इसलिए नहीं कि यह मुझे व्यक्तिगत तौर पर पसंद है बल्कि इसलिए कि भावी अफ़सरों की चमकती गाड़ियाँ और लालबत्ती तक पहुँचने के उनके सफ़र को जानना भी मेरे हिसाब से उतना ही ज़रूरी है जितना कि मोबाइल के कांटैक्ट लिस्ट में किसी आइएएस या आइपीएस के फ़ोन नम्बर का होना. ख़ैर जाते जाते एक और सबसे अच्छी और अलग बात इस किताब को लेकर जो है वो यह कि इसका लेखक आपके इन्बाक्स में आकर ज़बरदस्ती किताब ख़रीदने और समीक्षा लिखने के लिए लिंक पर लिंक पोस्ट नहीं करता…
मरे हुए और मरते हुए लोगों के लिए लिखी गई एक जीवंत किताब