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संगीत में राजनीति और राजनीति में संगीत: मृणाल पाण्डे

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विदुषी लेखिका मृणाल पांडे ने हाल के वर्षों में भारतीय संगीत परम्परा पर इतना अच्छा लिखा है कि सहेजने लायक है. अभी हाल में ही उन्होंने नेमिचंद जैन स्मृति व्याख्यान में रागदारी संगीत और राजनीति के रिश्तों पर बहुत अच्छा लेख लिखा और उसका पाठ भी किया. पूरा लेख यहाँ प्रस्तुत है- मॉडरेटर

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किसी खास समय के कला बोध या कला रूपों को समझने का सही तरीका क्या हो सकता है? समसामयिक ग्रंथ जो उस वक्त लिखे गये ? नहीं | बेशुमार धर्म-जाति भिन्नताओं, नाना भाषाओं,बोलियों, लिपियों और साक्षरता स्तरों वाले, वाचिक परंपरा पर लगभग पूरी तरह निर्भर रहे हमारे समाज के संगीत को समझने में लिखित साहित्य की सीमायें गिनाना बेकार है | फिर दूसरी बात यह, कि कलायें जीवंत होती हैं | उन पर समय के साथ विचार, दर्शन, और नये आश्रयदाताओं, दर्शकों-श्रोताओं की रुझान के गहरे दबाव भी पडते रहते हैं | लिहाज़ा सभी कलाएं लगातार खुद को लगातार दोबारा परभाषित करती, बदलती आई हैं | इसलिये कलारूपों को किसी थिराई हुई महान् परंपरा की फोटू मान कर उस पर माला वाला चढाने की बजाय उस घाट घाट की मिट्टी गिट्टी के कण लिये मौसमी बदलाव के साथ नये नये किनारे काटनेवाली एक उन्मुक्त और नित्य पुनर्नवा धारा की तरह देखना अधिक सही होगा |

आम मान्यता है कि कला रचना के लिये शांति स्थिरता और लौकिक चिंताओं से मुक्ति ज़रूरी है | लेकिन आज उत्तर भारत में जो रागदारी की ध्रुपद, खयाल तथा अर्ध शास्त्रीय गायन प्रकार प्रचलित हैं, उनका यह स्वरूप भीषण ऐतिहासिक बदलावों के दौर में बना है | जब कलाकार अक्सर दरबदर हो कर यहाँ वहाँ घूमते रहते थे | 18वीं सदी तक अंतिम बडे मुगल शाहंशाह औरंगज़ेब की मौत के बाद शाही खानदान की भितरघात, मराठाओं के छापामार दस्तों, और ईस्ट इंडिया कं के बढते दबाव तले दिल्ली बादशाहत दरकने लगी थी, और अवध के सूबेदार नवाब भी खुद को बादशाह कहने लगे थे | यूं दिल्ली की भव्य बादशाहत का विचार भले ही एक रहस्यमय तौर से कायम रखा जा रहा था, पर पबलिक देख रही थी कि असली राजनैतिक ताकत न दिल्ली में बची थी, न अवध में | वह नस्लवादी भेदभाव से भरपूर उन अंग्रेज़ों के हाथों में लगातार केंद्रित और बनती जा रही थी, जो कभी व्यापारी बन कर आये थे, और प्लासी की लडाई के बाद धीमे धीमे मालिकी में घुसपैठ कर गये | 1857 तक भारतीय समाज अपना ‘स्व’ खो कर अपने बादशाहों की ही तरह पतनशील, सामाजिक तौर से अंतर्मुखी और आर्थिक स्तर पर असुरक्षित बनता जा रहा था | और गदर उस घायल पशु की अंतिम कराह थी |

गजब यह कि उधर जब दिल्ली टुकडों में गिर रही थी, तो बोलियाँ उठने लगीं | वे बोलियाँ जो कि हरम और छावनियों में वैसे भी पैठ बना चुकी थीं | और चूंकि सत्ता से दूर कर दिये गये बादशाहों सामंतों के पास बहुत काम नहीं था, वे कलाओं की तरफ मुडे | अब संगीत, कविता और चित्रकला कला की मार्फत अब संगीत, कविता और चित्रकला कला की मार्फत कभी स्त्रैण और बाज़ारू मानी जानेवाली इन भाषाओं ने साधिकार दरबार में कदम रखे और राज काज की भाषा फारसी और संस्कृत की बदहाली के बीच राजकीय सराहना पाकर आत्मविश्वास से भर उठीं | फारसी संस्कृत और जाति धर्म की दीवारें टूटने लगीं, तो दरबार में शास्त्रीय और लोककलाओँ के रूप पास आगये | देखते देखते तो फारसी के गले में बाँहें डाल कर ब्रजभाखा, अवधी और पुरबिया बोलियों ने सारे हिंदी इलाके में ऐसी आमफहम भाषा को परवान चढाया जो बडी सहजता से बादशाही हरम से छावनियों और जामा मस्जिद की सीढियों तक बोली समझी और गाई जाती थी | यह भाषा सीधे फोर्ट विलियम में बिठाये गये अंग्रेज़ों के चार भाखा मुंशियों तक जा पहुँची | जिनको शुद्ध राजनैतिक विभेदकारी वजहों से नागरी लिपि को हिंडूज़ व उर्डू पर्शियन को मुस्लिम्स की भाषाओं के रूप में मानते हुए पाठ्यपुस्तकों, कचहरियों और सरकारी घोषणापत्रों के लिये दफ्तरी मानकीकरण करने का गूढ काम दे दिया गया था |

उस समय के ग्रंथों में जिनमें संगीत की बंदिशें और बिहारी,घनानंद, देव आदि की गेय रचनायें भी थीं, लिपि की बतौर नागरी बहुत कम, रेख्ता या फारसी ही अधिक आम थी | पर वाचिक परंपरा, खासकर गुरु शिष्य परंपरा की तहत सीना ब सीना बैट कर सीखे सिखाये जा रहे संगीत में इससे क्या फर्क होना था ? फोर्ट विलियम की राजनीति के परे भी उत्तर भारत का जो बडा देसी समुदाय था, वहाँ उच्च जातियों की पावर लैंगुएजेज़, संस्कृत, फारसी के बरक्स समाज के निचले वर्गों और आम जनता की बोली ठोली खासकर उर्दू, ब्रज, पंजाबी और अवधी को दरबारों और सामंतों के ढिंग हाथ पैर फैलाने की नई जगह ही मिल चुकी थी | जब बादशाह सलामत खुद भी फारसी की बजाय उर्दू के सुखन और ब्रज या अवधी में दोहे बरवै छप्पय सरीखे देसी छंदों में लिखने लगे तो तो गुरुगंभीर ध्रुपद के कसे हुए तंबूरे के कान भी पहली बार जनता द्वारा उमेठे जाने ही थे | संस्कृत के ध्रुपद फारसी काव्य सरकारी बहियों व मंदिरों में भले कायम रहे, दरबारी महफिलों में खयाल गायकी उन पर बीस पडने लगी और जब लोकभाषा की बंदिशों ने लोकसंगीत के रूपों से भी इस गायकी की गाँठ जोडी तो उस नई सुरसरिता ने पुराने रसिकजनों के साथ जामा मस्जिद, चौक और नक्खास के ठलुआ संगीत प्रेमियों का एक नई तरह के कल्पनाशील संगीत की दुनिया से साक्षात्कार कराया | अब महफिलें खयाल गायकी के विलंबित द्रुत रूपों से होती हुई ठुमरी कजरी और चैती के साथ विसर्जित होने लगीं | और उनको गुनगुनाते घर जाते देख महफिलों के पुराने अड्डेबाज़ भारतेंदु ने चट लिखा, कि ‘नृपगण लाज छोडि मुँह लगाई लई ठुमरी’ |

लोकभाषा और लोकमानस मुसलिम राज के छ: सौ सालों में अब जाकर एक समन्वित संस्कृति बनी जो जनभाषा और लोक सुरों की पुकार को शास्त्रीय जडों से जोड सकती थी | यह मेल इस इस कदर फला फूला, कि नादिरशाह लूटपाट के बीच भी बुला बुला कर खयालियों और बडी गवनहारियों को सुनता विभोर होता रहा |

अंतिम मुगल शासकों में से कुल दो काफी समय तक गद्दीनशीन रहे, एक मुहम्मद शाह ‘रंगीले’ (1719-1748), दूसरे ‘शाह आलम’ (1759 से 1806) | दोनो ही  राजकाज के सर्वेसर्वा बन बैठे अंग्रेज़ों के वर्चस्व को स्वीकार कर युगांतरकारी राजनैतिक हलचलों के बीच शुतुर्मुर्ग बने इतिहास से फिरंट होने को मजबूर थे | सक्रिय राजकाज और आडंबरी प्रशासनिक फारसी का जुआ शाही गरदन से उतरा तो पंजाब से मिथिला तक और काश्मीर से सतारा तक सामंती कुलीन समाज का दिल बेझिझक बन कर जनभाषा के छंदों : दोहा, घनाक्षरी, कवित्त, सवैया और लोकगीतों के कसे हुए सहज पकेपन का स्वाद लेने लगा | उनकी उदार सरपरस्ती का फायदा ले कर ब्रज अवधी और उर्दू से लैस कलावंत और कवि लोक संगीत को मार्गी संगीत और कविता को लोक लय से पुष्ट साहित्य की तरफ तेज़ी से ले चले | फारसी संस्कृत की अभिजात जकडबंदी से मुक्त बोलियाँ कोने कोने में हाथ पैर फेंकने और तमाम लोक मुहावरे कहावतें और रूपाकार बटर कर कलाकारों की प्रयोगशालाओं को देने लगीं | बरास्ते छावनी बाज़ार और ज़नानखाना, हरम की औरतों और उनके बीच रहनेवाले रुहेलखंड, अवध, बनारस, पटना दरभंगा आदि के सामंती सरदारों, रसिकजनों का यूं भी इस बोली से, जिसे कोई भाखा तो कोई हिंदवी या उर्दू कहता, गहरी आत्मीयता और समझ का नाता बना हुआ था | घनानंद, सदारंग अदारंग की ब्रजभाषा के कसक मसक भरे और छंद रागदारी बंदिशें देखिये | वे एकदम ठेठ हैं, न संस्कृत की कर्ज़दार, न फारसी की | रीतिकाल की रचनाओं में वे एक नया बौद्धिक श्रृंगार रस सामने लाईं जो यौन शुचिता के प्रतिगामी आग्रहों से मुक्त था. अफसोस कि बाद को विक्टोरियाई मध्यवर्ग की मानसिकता से वे मुफ्त हुईं बदनाम और अचर्चित | हमारे बेतरह बातून पर आलसी संगीतशास्त्रियों तथा भाषा विद्वानों द्वारा उनका नस्तलीख से नागरी हरुफों में भाषायी परिमार्जन- संपादन और टटका मूल्यांकन किया जाना बाकी है |

खैर |

दिल्ली के पतनशील बादशाहों में मुहम्मद ‘रंगीले’ शाह फितरतन रंगीन मिजाज़ दिल रखते रहे | संगीत कल्पद्रुम में ‘मम्मद शा’ पिया सदा रंगीले’ के फिकरेवाली राग कल्याण की किरानावालों की मशहूर ‘बाजो रे बाजो मन्दलरा’ जैसी कई बंदिशें मिलती हैं | यह भी कहा जाता है कि ऐसी संयुक्तनाम वाली बंदिशें जो कालांतर में आश्रयदाता की भी ब्रैंडिंग बतौर कलाकार कर सकें, रच कर ही वाग्गेयकार सदारंग से ले कर रहीम तक रूठे बादशाहों की गुड बुक्स में दोबारा शामिल हुए | खैर | बडे लोगों की बडी बात | यह संयोग नहीं था कि पूरब के साकिनों से विरक्त खुद को उजडे दयार का रहनेवाला बतानेवाले ‘मीर’ के समकालीन कवि घनानंद रंगीले के मुंहलगे कविगुरु सदारंग के भी काफी करीबी होने से दरबार का वरदहस्त पा गये थे | बेचारे बाद को एक नर्तकी के प्रेम में गिरफ्तार हो यह गुलफाम साहिब दरबार से बरखास्त हुए और वृंदावन चले गये और भाषाई गलतफहमी की वजह से नादिरशाह के सैनिकों के हाथों मारे गये |

‘रंगीले’ को अंत तक कवियों की सोहबत उतनी ही प्यारी थी रही, जितनी मुगलकला के चितेरों और लोकसंगीतकारों की | खुद उनने कुछ बंदिशें भी रचीं :’ ‘मम्मद शा सब मिल मिल खेलें, मुख पर मलो अबीर री !’ जैसी होरी उनकी ही मानी जाती है | उनके बाद भी बादशाहों के लोकगीत लिखने (या दरबारी घोस्ट राइटर्स से लिखवाने ) का निपट भारतीय क्रम जारी रहा | जितने कमज़ोर सुल्तान, उतनी ही बडी रस रंग की उडान | कुछ ही दिनों के बादशाह बने  अज़ीज़ अल दीन आलमगीर तक खुद अपनी बादशाही पर ब्रज में बंदिश बना या बनवा गये :

‘हिंद में आनंद भयो कोटि दुरजन गये

बैठे तखत वली आलमगीर सा’ |

दिल्ली तख्त पर 1759 में  आये ‘शाह आलम’ | तब तक Battle of Patpadgunj में उनके मराठा दौलतराव सिंधिया और लुईस बरकैन के सैनिक जनरल ले की अंग्रेज़ कंपनी सेना से हार चुके थे और मुगलिया बादशाहत ‘अथ दिल्ली तौं पालम’ बच रही थी, सो राजकाज की सांसारिक भौबाधाओं को मैटकाफ साहिब और डेविड अख्तरलूनी साहिब को सौंप कर, शाहआलम कला में और गहरे उतर गये | प्रचलित लोकछंदों के अलावा उन्होने महिलाओं के लिये कुछ मांगलिक गीत भी रचे जैसे बर्ज्य द्विअर्थी सीठने यानी गारी, और होरा | फारसी, उर्दू और ब्रज भाखा तीनों में वे क्रमश: ‘आफताब’ और ‘शाह आलम’ नाम से लिखा किये | नवाब दरगाहकुली खां ने उन्नीसवीं सदी के उन्हीं दिनों में सदारंग की दो पट्ट शिष्याओं धन्नाबाई और पन्नाबाई की भी चर्चा अपनी किताब में की है | धन्नाबाई न सिर्फ उत्तम गायिका थी, वह एक श्रेष्ठ शास्त्रज्ञ और वाग्गेयकार भी थी और उसने खुद भी कई नये राग रचे थे | यह राग कौन से थे ? वे बंदिशें कैसी थीं ? औरतों के मामले में प्रशंसा कृपण हमारे राज समाज ने इन सब ब्योरों को करीने से बचा कर उस तरह क्यों नहीं नहीं रखा, जिस तरह उसके गुरु सदारंग की रचनाओं को ? यह सवाल आज तक अनुत्तरित ही हैं | बीसवीं सदी में बंदिशें बटोरने निकले भातखंडे जी ने भी पुरुष गायकों की ही तरफ रुख किया | महिलाओं की तरफ नहीं | किया होता तो शायद संगीत ग्रंथावली में कुछ नये अध्याय, कुछ नये चर्चे जुडते |

अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फर’ भी तबीयतन कवि थे और ‘ज़फर’ तखल्लुस से शायरी करते थे | मूलत: फारसी में लिखनेवाले पर अब नफासत कसावट भरी उर्दू को गालिब और ज़ौक जैसे शायरों की कलम मिलने से उर्दू अब नये नये पैमाने रच रही थी | उधर लखनऊ में भी तख्त पर निहायत रंगीन तबीयत वाजिद अली शाह थे | कदर पिया(कादिरबख्श), सनद पिया (तवाक्कुल हुसैन), प्यारा साहिब उनके चंद प्रिय गायक थे | चूंकि वाज़िद अली शाह की नासमझी और अंग्रेज़ों की समझदारी से गाँवों में डकैतों और शहरों की कुटनियों के बीच सडकों पर गुंडागर्दी का आलम बन चला था, लिहाज़ा अवध की शाही महफिलें रहस सरीखे लोकप्रकारों में भी रुचि ले रही थी जो बाद को नौटंकी के रूप में पक कर तैयार हुईं | वाजिद अली शाह उर्फ अख्तर पिया दिनरात खुद महल में अपनी प्यारी हरमवासिनियों के साथ तरह तरह का नाच गाना करते रहते थे | उनको कृष्ण का किरदार इतना भाया कि अमानत अली खान ने उनकी ज़िद पर भाखा का पहला औपेरा इंदरसभा लिख दिया | रचना में सुर भरने को उस्तादों का होना ज़रूरी था | लिहाज़ा शक्कर खाँ, उनके बेटे मुहम्मद खाँ, हद्दू हस्सू की जोडी, सरोदिये सादत खान नन्हे खान, पखावजिये कुदऊ महाराज सरीखे नाज़ुक दिल गायक वादक आन जुटे | पर 1856 में जब इस कलासंरक्षक बादशाह को अंग्रेज़ों ने बेरहमी से दरबदर किया, तो कुछ तो उनके साथ मटिया बुर्ज़ जा कर बंगाल की शोभा बढाने लगे | शेष में से कोई सिंधियाओं के ग्वालियर दरबार जा पहुँचे |  अब्दुल कलाम साहिब मीरज चले आये | गवालियर वाडोदरा के समृद्ध राजघराने भी खयाल गायकी के नये घर बने | बादशाहत का असर था या मौसम का,

अंग्रेज़ों पर तब तक फारसी उर्दू और प्राच्य परंपरा का नशा चढने लगा था | 1846 में सर सैयद ने मैटकाफ साहिब के कहे से दिल्ली की पुरातन इमारतों पर ‘असर उल सनादीद’ लिखी और Royal Asiatic Society के मानद सदस्य बने |

उधर बादशाहत की आखिरी घडियों में गरीबी की पृष्ठभूमि से इस पेशे की मार्फत असुरक्षित माहौल के बीच गायक वादक फिर बिछडे बछडे बन गये | किसी तरह गुण के बूते दरबारों में आये तब के यह कई गायक वादक प्राय: निरक्षर या अर्ध साक्षर थे | रईसों की उदारता से वे अपने प्रतिभावान् चेले चेलियों को आमने सामने बैठा कर संगीत की धरोहर उनके हाथों सुरक्षित तो बना सकते थे, अलबत्ता उसे विस्तार से परवर्ती पीढियों को समझा पाने के लिये उस ज्ञान के मूल दर्शन और स्वरों के (श्रुत्यानुसार) बने जटिल रूपों की जानकारी उनको कम ही थी | पूर्ववर्ती ग्रंथों : आनंदवर्धन के ध्वन्यालोक, या दत्तिलम् या भरत मुनि के नाट्यशास्त्र को तर्क सम्मत बना कर अपने युग के संगीत से जोडो का प्रयास शायद इसी वजह से हमको नहीं दिखाई देता | अक्सर सहज सवाल का तर्कसंगत जवाब देने की बजाय गुरु शिष्य पर हाथ उठा कर या यह कह कर कि हमारे घराने में ऐसा ही होता है, उसे चुप कर देते थे | पेशेवर गायिकाओं को वे काफी मोटी फीस देकर ही सिखाते थे और अवहेलना के साथ, बिना महफिलों में अपने होनहार छात्रों के साथ उनका नाम जोडे, लिहाज़ा गायिकाओं के सवाल पूछने की बात अकल्पनीय ही थी | वे यही मान कर धन्य हो रहती थीं, कि उनको किसी बडे घराने की तालीम हासिल हो रही है, और बडे बादशाही घराने के लोगों, शायरों कवियों की रचनायें बंदिश की बतौर उनको मिल रही हैंगी |

19वीं सदी के अंत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारतीय समाज से गुज़रता हुआ बीसवीं सदी की शुरुआत तक संगीत पर भी असर डालने लगा था | 1784 में On the Musical Modes of Hindooz के लेखक सर विलियम जोंस जैसे अंग्रेज़ इतिहासकारों प्राच्यविदों की समीक्षा से प्रभावित, और संस्कृत प्राकृत तथा बोलियों के साहित्य से अलग थलग हो गया पढा लिखा मध्यवर्ग और व्यवसायी वर्ग 19वीं सदी में नये सिरे से भारतीय शास्त्रीय गायन पद्धतियों और प्रकारों को अंग्रेज़ प्राच्यविदों की दृष्टि से देखने गुनने लगा | घरानेदार संगीत, डेरेदार तवायफें और उनके साज़िंदे अभी भी उनके सामने कायम थे और तालीम अभी भी सीना ब सीना ही थी, पर अंग्रेज़ों साथ लगातार उठने बैठनेवाले मध्य वर्ग के फैलने के साथ समाज बदलने लगा था | पारसी इस बदलाव के बडे पक्षधर थे | 1870 में मुंबई के पारसी व्यवसायी के एन काबरा ने ही पहली संगीतप्रेमियों की सोसायटी में बनाई | नगरी अब वणिज व्यापार का केंद्र और मध्यवर्गीय पेशेवरों की नगरी बन चली थी | पुणे में सर जेम्स फर्गुसन साहिब की सरकार की प्रेरणा से दूसरी मंडली बनी, और मराठी ब्राह्मणमूलक गायन समाज को भी युवराज प्रिंस अॅफ वेल्स और ड्यूक आफ एडिनबरो के वरदहस्त मिला | यह तमाम गुट सर जोंस के उस  प्राच्यवाद से कमोबेश सहमत थे, जिसकी तहत भारतीय क्लासिकी संगीत हिंदुओं की ही निर्मिति था, और उसका इकलौता उत्स वेदों में था | पुराने संस्कृत ग्रंथों में दी गई रागदारी से वे सब कितने अपरिचित रहे आये | चूंकि जोंस सरीखे प्राच्यविदों ने बिना सीधे गायक समाज से रिश्ता बनाये पुराने संगीत दर्पण, संगीत पारिजात सरीखे ग्रंथों के संदर्भ से ही सारे हिंदुस्तानी गायन को आँका उन्होने उसे नये रईसों के लिये लगातार हिंदू संगीत बना कर धरा, और भूरे साहब तथा भारत का शिक्षा जगत पर हावी नवजागृत ब्राह्मण समुदाय उसी थीसिस को सर पर धरे फिरने लगा |

पूरब में 1871 में पथुरिया घाट के बडे ज़मींदार व कोयले के व्यापारी सौरींद्र मोहन टैगोर ने बंगाल अकादमी ऑफ म्यूज़िक खोली | वायसरॉय डफरिन साहिब और उनकी मेमसाहिबा इसके अध्यक्षीय संरक्षक (हाई प्रोटेक्टर) घोषित हुए | और वडोदरा जैसे नगरों में बडे घरानों में औरतों की शिक्षा दीक्षा और संचरणशीलता बढीं जिनको संगीत से सहज लगाव भी था | पर पेशेवर घरानेदार संगीतकारों का समाज में बराबरी का दर्जा तब भी नहीं बन सका था |

गुजरात में भी हलचल बढने लगी जब 1899 में वडोदरा दरबार ने संगीतकारों के लिये एक अलग विभाग और नियामक तथा नियमावली(कलावंत खात्याचे नियम) गढे | इनकी तहत एक संगीतविद् पहलवान घिस्से खान ने संगीतकारों को श्रेणियों में बाँट कर उनके लिये दरबारी महफिली गायन वादन के अलग अलग रेट तय किये | यह भी प्रावधान सवर्ण प्रधान नौकरशाही ने बनाया कि हर गायक वादक नियमित रूप से नियामकों को सलाम बजाये और काम माँगे | इस तरह कलावंतों के लिये सीधे दरबार में जाने की बजाय घिस्सेखान तथा सरदारों की शरण में जाना और पूर्व मंज़ूरी लेना अनिवार्य बनता गया |

पर आज के उच्चशिक्षा शोध संस्थानों की तरह ऐतिहासिक साक्ष्य सहित लिखे गये शास्त्रों और बडे उस्तादी शिक्षकों की कमी महसूस होने लगी | उधर समाज में क्षेत्र जाति, कुलीनता के आग्रह कम तो हुए थे पर बहुत नहीं, लडकियों युवतियों पर सामाजिक जकडबंदी बनी रही जिसके कारण लडकियों के लिये अलग गुरुकुलों की बाध्यता भी थी |

उधर राजनैतिक तौर से अंग्रेज़ी शासन तले राजनैतिक आग्रहों की तहत तमाम स्तरों पर हिंदू- मुस्लिम समाज ‘बाँटो और राज करो’ की योजनाबद्ध  बढत का शिकार बनता जा रहा था | अच्छी बात यह थी कि कला के इलाके में तब भी हिंदू मुसलमान का विभेद नहीं बन पाया, और धरानेदार संगीत में तो बिलकुल नहीं | लखनऊ, पटना, बनारस या ग्वालियर और बडोदा के साथ ही नये औद्योगिक विकास से जुडे कलकत्ता तथा मुंबई भी अब एक साथ नव हिंदू सुधारवाद और शास्त्रीय प्रयोगधर्मिता के एक साथ बडे केंद्र बने संगीतज्ञों को खींचने लगे थे | लेकिन शुरुआती दौर में अंग्रेज़ों की बनाई इन महानगरियों में जब नेटिव बाबुओं को ही जिमखाना या क्रिकेट क्लब की सदस्यता मिलनी दूभर थी, पुरानी शैली के बडे बडे देसी कलावंतों के लिये भी कोई इज़्ज़तदार रिहायशी स्पेस या प्रदर्शन के मंच सहज उपलब्ध नहीं बन सके | तिस पर विक्टोरियाई मानसिकता तले नॉच गर्ल्स के सार्वजनिक कलाप्रदर्शन पर गोरे माथों पर सलवटें पड जाती थीं, भारतीय उच्चमध्यवर्ग भी उस मानसिकता को अपना रहा था | मारकेस अॅफ हेस्टिंगस साहिबा भारत भ्रमण पर आईं और भारतीय संगीत खासकर पेशेवर तवायफों की संगीत महफिलों में शिरकत के खिलाफ लिख गईं | कुल मिला कर 18वीं और 19वीं सदी तक मोटी तौर से अंग्रेज़ शासकवर्ग और उसके नेटिव सदस्यों के बीच शास्त्रीय संगीत की समझ या आग्रह बहुत सतही और नस्लवादी दिखते हैं |

फिर भी धीमे धीमे संगीत की सरिता महानगरों में अपने लिये नये किनारे काटती रही | प्राच्यविदों के बीच घरानेदार संगीत में मुसलमान उस्तादों के महती योगदान की अवहेलना के बावजूद आगरे के शेर खाँ साहिब, और नत्थन साहिब से लेकर अल्लादिया खाँ और अब्दुल करीम खाँ साहिब तक कई नामी गिरामी उस्तादों को तारा बाई शिरोदेकर, केसर बाई, मेनका बाई या मोघूबाई जैसी बडी पेशेवर गायिकाओं और कुछ बडे सेठिया घरों में महिलाओं को तालीम देने की एवज में ठीक ठाक कमाई होने लगी | धीमे धीमे उनके अन्य रिश्तेदार तथा साज़िंदे भी इन शहरों में सपरिवार आन बसे | रागदारी के जीनियस अल्लादिया खान, फैयाज़ खाँ या अब्दुल करीम खाँ साहिब सरीखे कुछ बडे नामी उस्तादों की बडे वकीलो, कंपनी मालिकों, उद्योगपतियों के घर में निजी महफिलें भी बुलाई जाने लगीं | इन महफिलों तथा पैसा देनेवालों की रुचियों के अनुसार गायकी के रात रात चलनेवाले पुराने तरीके, संगीत के दंगल और गायन की समय सीमायें भी नये संरक्षकों की आदतों और इच्छानुसार बदली जाने लगी |

घरानेदार संगीत और उसके शिरमौरों का नाम फैला तो छोटी बडी रियासतों : पटियाला, जामखेड, इचलकरंजी, कोल्हापुर आदि से भी महफिलों के न्योते आने लगे | शास्त्रीय उपशास्त्रीय संगीत में जागती रुचि के चलते और आज़ादी की सुगबुगाहट के बीच संगीत के प्रसार प्रचार से नया प्रोफेशनल मध्यवर्ग उत्साह से जुडने लगा | नये म्यूज़िक क्लब व मंडलियाँ बनने लगीं, तालीमी स्कूल खुले | 1880 में सयाजीराव गायकवाड ने लडकियों के लिये संगीत शाला खोली | और कुछ शुरुआती हिचकियों के बावजूद दो महान गुरुओं, महाराष्ट्र के पं विष्णु दिगंबर पलुस्कर और पं भातखंडे ने सही तरह ग्रंथ रच कर और शिक्षाविधियां कोडिफाय करते हुए  स्थिति में गहरे नये बदलाव की शुरुआत की |

भातखंडे जी, जैसा उनके टैगोर परिवार के अपने भरोसेमंद गुणी मित्र गौडहरि को लिखे पत्रों सेज़ाहिर है, मूलत: राजनीति और संगीत को अलग रखने के पक्षधर थे | वे पश्चिमी संगीत के अलावा पुराने संस्कृत ग्रंथों के अध्येता और गहरे जानकार भी | वे जल्द ही समझ गये कि जोंस महोदय की थीसिस संस्कृत के चंद गिने चुने ग्रंथों और वाराणसी के संगीत के ना जानकार पंडितों से चर्चा पर आधारित ती, समसामयिक गायक वादकों से बातचीत विमर्श पर नहीं | इसलिये वह व्यावहारिक तो कतई न थी, साथ ही संगीत के ईरानी, अफगानी तथा लोकसंगीत प्रकारों से 600 बरसों से लगातार होते आये संकरण और संविलयन से भी कतई फिरंट थी | जनस्तर पर भातखंडे हिंदू इतर पारसी संगीत रसिकों के( गायन उत्तेजक मंडली जैसे) मर्मी संगीत पारखियों से भी जुडे थे जहाँ 1890 से 1905 तक कई विचारोत्तेजक व्याख्यान उन्होने दिये | उन्होने ही कई मतभेदों को नकारते हुए सीमाओं के बावजूद संगीत की बंदिशों का अंग्रेज़ी स्टाफ नोटेशन पद्धति से संकलन और राष्ट्रीय संगीत सम्मेलनों का भी विचारोत्तेजक तरतीबवार सिलसिला 1916 से शुरू किया |

घरानेदार संगीत का एक बडा अवगुण था, अपनी बंदिशों तथा रागदारी को गोपनीय रखना | भातखंडे जी ने देश में घूम घूम कर हर घराने के उस्तादों- गुरुओं के सामने बैठ कर बहुत धीरजभरे वैज्ञानिक तरीके से (साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल कर) शास्त्रीय गायन की बिखरी संपदा को उनके छुपे तलघरों से उबारा और फिर लिखित नोटेशन का रूप दे कर 1915 में गीत मालिका व छ: खंडों की क्रमिक पुस्तक मालिका छपवाई और गुप्त माल को सर्वसुलभ बनाया | फिर भी बडी संगीतकार स्टाफ पद्धति तथा पेटी बाजे को जो टेंपर्ड स्केल से बने थे और श्रुतिसम्मत नहीं थे, से अनमना रहा | आज तो बिला उसके कंठ खुलते नहीं और अब तो इलेक्ट्रोनिच तानपूरे भी आ चुके हैं | करतार भली करे |

भातखंडे जी के समकालीन पं विष्णु दत्तात्रेय पलुस्कर जी तीन मूल लक्ष्य ले कर चले | एक, संगीत को सर्वसुलभ बनाना | दो, भक्ति संगीत का पुनरुद्धार कर उसे भारतीय समाज की व्यापक धार्मिक चेतना और स्वराज्य आंदोलन की राजनीति के बीच पुल बनाना, और तीन, यत्न से संगीत शिक्षा के लिये अच्चे शिक्षाकेंद्रों की देशव्यापी चेन बनाना | संगीत को पहले भक्ति काव्य और फिर राष्ट्रीय आंदोलन से जोड कर उन्होने संगीत को कोठेवालियों या महफिलबाज़ पुरुषों से परे लेजाकर उसे मध्यवर्ग की भद्र महिलाओं के लिये भी स्वीकार्य और सुलभ बना दिया | वे खुद अभावों की आँच में तपे संगीतकार और बापू के मुरीद थे (1921 में अहमदाबाद और1923 में काकिनाडा के कांग्रेस महासम्मेलनों में उनकी सक्षम भागीदारी रही)| दरअसल भारतीय राज समाज के जाति वर्ग प्रधान नियमों के प्रति उन्होने भातखंडे की तरह विद्रोह करने की बजाय सुलहवादी नज़रिया अपनाना बेहतर समझा | इसके बिना उस युग में कोई भी बडे आधार वाला काम करना असंभव था | इन दोनो के ही हम आज के भारतीय ॠणी हैं |

आज कम लोग जानते हैं कि गांधी जी में संगीत की गहरी समझ न रखने के बावजूद पारंपरिक संगीत की संप्रेषण की ताकत की एक विलक्षण परख और उसकी राजनैतिक मंच पर लोगों को इकट्ठा करने की क्षमता की समझ थी | बापू ने  सहजता से यह सचाई समझी कि भक्तिसंगीत से घिरे वृहत्तर भारतीय समाज से प्रार्थना सभाओं तक किसी भी विशाल जनसमूह को संगीत की ध्वनियों के आलोक में खडा कर ही राष्ट्रीय आंदोलन को अखिल भारतीय एकसूत्रता में पिरोया जा सकेगा | बापू से संगीत के जुडाव का इतिहास आज हमको अक्सर दंतकथाओं की तरह टुकडा टुकडा रूप में ही मिलता है | पर 1926 में ही बापू ने इस आशय की बात कही थी, कि संगीत बिना स्वराज असंभव है | जहाँ स्वरों का सामंजस्य नहीं, वहाँ संगीत नहीं | अर्थात् सांगीतिक सामंजस्य ही असली स्वराज्य है | कैसा अद्भुत विचार है यह ! कि मस्ती से रघुपति राघव राजाराम गाती स्वराजियों की मंडली ही दाँडी जैसी यात्रा करे और अंग्रेज़ों की राजकीय दमनकारिता को निहत्थी चुनौती दे ! 1925 में चरखा कातते समय बापू के लिये कुछ संगीतकारों ने सितार बजाने का प्रस्ताव रखा था | बापू का वह मौन दिवस था पर अपनी डायरी में उन्होने लिखा कि उस दिन उनका सूत बेहतर काता गया | और वे स्वीकार करते हैं कि स्त्रियों की जिस भौतिक मानसिक रचनात्मकता की ताकत उन्होने अपने बचपन में घर की महिलाओं के बीच देखी थी, वह कहीं उनकी माता के गाये भजनों के स्वरों से भी आत्मसात हुई थी | इस तरह संगीत की एक बडी थाती उन्होने एक विलक्षण तरीके से स्वराज आंदोलन से जोडी, जिसमें टैगोर से लेकर भगतसिंह और आज जावेद अख्तर सरीखे कवियों ने पनी तरफ से नया नया जोडा है | इस दृष्टि से

यह अनायास नहीं था कि पारंपरिक गायिकाओं ने भी काशी मे 1921 में तवायफ संघ बना कर आज़ादी आंदोलन से निकले असहयोग आंदोलन से अपनी जमात को भी जोडा |

संगीत को सम्मान दिलाने का काम उस समय एक तरह से धार के विपरीत जाने जैसा था क्योंकि विक्टोरियाई ब्रिटेन के असर से 1893 के आसपास भारत में भी पारंपरिक देवदासियों तवायफों और नर्तकियों को नीची नज़र से देखनेवाले कुछ कट्टर शुद्धतावादी आग्रह सर उठा रहे थे | पर 1920 के आसपास समाज की कई उपेक्षिता लेकिन अपने हुनर की कमाई से आत्मसंभव बनी  महिलायें भारत की आज़ादी के आंदोलन और गाँधी के आदर्शवाद के प्रति गहरी रुझान दिखाने लगीं | गाँधी जी की दृष्टि में यह गवनहारियाँ भी भारत की जनता का ही एक आत्मीय अंग थीं | लिहाज़ा 1920 में जब गाँधी जी कोलकाता में स्वराज फंड के लिये चंदा जुटा रहे थे, उन्होने गौहरजान को बुलवा भेजा और अपने हुनर की मदद से आंदोलन के लिये चंदा जुटाने में मदद माँगी | पर एक तरह का जातिवाद व गैरमहिलावाद गाँधी की मौजूदगी के बाद कायम रहा | उदाहरण के लिये1012 तक (केसरी के अनुसार 200 कुलीन पुरुषों के साथ खोले गये) मुंबई गांधर्व महावि. में 1304 में से 1074 पुरुष व 231 महिलायें थीं | जिनमें पारसी महिलायें सबसे अधिक थीं | मुस्लिम या अवर्ण कोई नहीं था | पर याद रखना होगा कि शायद इसी लिये कि इन महाविद्यालयों को आर्यसमाज और सनातन समाज जैसी संस्थाओं की मदद मिल सकी जो वृहत्तर समाज को इस संदिग्ध रही कलाधारा तक खींचने में कामयाब रही |

इसी बीच रिकॉर्डिंग उद्योग ने संगीतज्ञों के लिये नये क्षितिज खोले | गौहरजान जिन पर पहले बनारस और फिर कलकत्ता के रसिकगण न्योछावर हुए और जिनकी क्षमता को बापू ने भी स्वीकार किया, अपने जीवन के उत्तरार्ध में रिकॉर्ड उद्योग की वकत पहचान कर उससे तुरत जुडीं | इस वजह से इस अनन्य गायिका के अनेक रिकॉर्ड हमको आज भी उपलब्ध हैं | बनारस की ही ज़द्दनबाई ( नरगिस की माँ) , मेनकाबाई ( शोभा गुर्टू की माँ ) तथा सिद्धेश्वरी देवी (सविता देवी की माँ) ने भी महफिली गायन के अलावा रिकॉर्डों से खुद अपने वक्त में बडा नाम कमाया और उनके बाद उनकी प्रतिभाशालिनी बेटियों ने |

उधर बडोदा रियासत के सयाजीराव गायकवाड, जनहित में तमाम तरह की नई शुरुआतें कर रहे थे | बडोदा बैंक, रेलगाडी यह सब वे ही लाये | संगीत का भी युवा बडोदा महाराजा को शौक था, पर विलायती तालीम के कारण वे पश्चिमी संगीत को पसंद करते थे | एक अजीब बात ये भी बताते चलें कि अंग्रेज़ी रंग में रचते गये भारतीय रजवाडों की रुझान को भारतीय संगीत की तरफ मोडने में अंग्रेज़ी बैंडमास्टर और सेना के कमांडरों का भी काफी हाथ रहा | बाँदा के नवाब की सेना के कप्तान अॅगस्टस विलार्ड ने 1793 में A Treatise on The Music of India नामक पर्चा लिखा | वडोदरा महाराजा सयाजीराव के अंग्रेज़ मित्र फ्रेडलिस साहेब का भी उनकी रुचि भारतीय शास्त्रीय संगीत में गहराने और संगीतकारों को दरबार से जोडने में बडा हाथ रहा | वे रियासत में तैनात अंग्रेज़ छावनी के मुख्य बैंडमास्टर थे जिनके बडोदा अंग्रेज़ी बैंड ने, कहते हैं बडे लाट एलगिन के बडोदा आने पर भारतीय राग बजा कर स्वागत किया था | उनके निरंतर सान्निध्य में राजा साहिब को पारंपरिक भारतीय गायन के संदर्भ में अंग्रेज़ी संगीत लेखन की अनेक नई बारीकियां तथा संभावनायें पास से देखने परखने और उनको विलायती स्टाफ नोटेशन शैली में लिखवाने का विचार भी मिला | फ्रेडलिस साहेब की ही राय पर चलते हुए सयाजीराव ने अपनी रियासत में भी किसी योग्य गुरु की अगवाई में लडकियों को भातखंडे पंडित की चलाई नई नोटेशन पद्धति की तहत बाकायदा शास्त्रीय विद्या और तालीम के साथ संगीत शिक्षा दिलाने के लिये एक स्कूल शुरू  भी शुरू किया |

बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक कुछेक अन्य ऐतिहासिक घटनाओं ने रागदारी संगीत को आम मध्यवर्गीय महिलाओं तक पहुँचाने में बहुत मदद की | पहला था बडे समाज सुधारकों का अवतरण | इनमे गाँधी जी पहले नंबर पर थे जिन्होने पहली बार महिलाओं से देश की आज़ादी के लिये घरों की चहारदीवारी से बाहर आकर उनके साथ जुडने का आह्वान किया | महाराष्ट्र ,और पंजाब के समसामयिक प्रार्थनासमाज, ब्राह्मोसमाज और आर्यसमाज जैसे सुधारवादी आंदोलनों ने भी स्त्री जागरण और शिक्षा को बढावा देने की मुखर पक्षधरता की | उधर भातखंडे व पलुस्कर जी की कृपा से स्वराज आंदोलन के गान और पारंपरिक भक्ति रस की बंदिशें घर की महिलाओं के लिये खास सस्ती संगीत पुस्तिकायें भी छपीं जो संगीत को कट्टरपंथी घरों के भीतर ले जाने में मददगार साबित हुईं | पूर्व में सुधारवादी ब्राह्म समाज के काम में जोडासाँको का टैगोर परिवार अग्रणी रहा | देवेंद्रनाथ टैगोर की बेटी स्वर्णकुमारी की बेटी सरलाकुमारी इसी धारा की एक वाग्गेयकार थीं जिन्होंने कहते हैं वंदे मातरम् के पहले दो पदों से इतर पदों की रचना रवींद्रनाथ के निर्देशन में तैयार की |

कुल मिला कर असाधारण प्रतिभा, मेहनत, खुद्दारी और प्रशंसा के साथ राज समाज के दोमुँहे बर्ताव से उपजी खिन्नता और कडवाहट को मिलाकर ही हमारी आज की द्विमुखी मानसिकता बनी है | (हीराबाई इसका उदाहरण हैं |)और इधर तो हमारा राज-और हिंदी पट्टी का मध्यवर्गीय हिंदी-बोली विमुख समाज, लगातार दोबारा शुद्धिपक्षी बनाया जारहा है | संगीत के प्रति उसके आग्रहों में सघन ज्ञान कम, हिंदुत्व का भावुक उफान अधिक दिख रहा है | धर्मांधता और धर्मनिरपेक्षता के बीच धर्म की जो ‘अनुभूति’ थी, उसे छोड दिया गया है और राजनीतिक तनाव सतह पर इतना हावी है कि समन्वयवादी संगीत की सिर्फ हिंदू जडों पर बल देते हुए संगीतकार, वाग्गेयकार या अद्भुत रूप से उदार शिक्षक के रूप में पेशेवर गायिकाओं तथा मुस्लिम संगीतकारों का योगदान आज भी दरी तले सरकाया जा रहा है | जातीय दृष्टि से भी क्षेत्र बहुत करके आज की लगभग सारी बडी महिला गायिकायें माणिक भिडे वीणा सहस्त्रबुद्धे, पद्मावती जी, अश्विनी भिडे आदि सवर्ण मध्यवर्गीय ताई हैं, बाई नहीं |

नई तकनीकी से उम्मीद बन रही थी कि अब कम से कम हमारे शहरी मध्यवर्गीय युवा या ग्रामीण नव समृद्ध अपनी सही सांगीतिक परंपरा से रू बरू होंगे | पर आज वे किसी भी तरह का संगीत यू ट्यूब की जटायें निचोड कर अपने कानों में भले प्रवाहित करते हों, उनके डी जे बालीवुड के बारह मसाले डाल कर नायाब गायकी के प्रकारों का fusion कर आमलेट बना सकते हैं | पर अधिकतर युवाओं को  अंग्रेज़ी माध्यम की तालीम ने लोकजीवन से विकसित भाषा, छंद और सुर लय की सहज देसी समझ से कतई काट दिया है | दुर्भाग्य है कि जब वे अपनी जडों को यूट्यूब और नेट से उतार कर समझने की बुद्धिमान कोशिश करते भी हैं, तो राजनीति चारों तरफ से भारतीय परंपरा के बाहरी खतरों से घिरने के जुमलों के द्वारा वोट बैंक राजनीति की आग का एक घेरा कलाओं कलाकारों के गिर्द रच रही है | रसिकों के भी दो अलग थलग धर्मनिरपेक्ष बनाम धर्म सापेक्ष खित्ते बन गये हैं | पहले में देसी भाषाओं का गहरा अज्ञान है और शोध-बोध में सिर्फ अंग्रेज़ी को ही सर्जनात्मक कुलीनता हासिल है, और दूसरा संगीत से तमाम बोलियों और उर्दू फारसी का विरेचन कर एक तरह की नव ब्रह्मणवादी संस्कृतनिष्ठ हिंदी को ही देश की इकलौती स्वीकार्य राष्ट्रभाषा बनाने में इतना व्यस्त है कि सुर लय ताल छंद सब डूब रहे हैं | ठीक है संगीतकार घरानावादी जटिलता- बिखराव से हट कर कुछ व्यवस्थित हुए हैं, गैर सामंती जनता से उनकी विमुखता कम हुई है और सामंतवादी की बरक्स कुछ लोकतांत्रिक बने हैं, लेकिन अपने अनेकमुखी इतिहास के काले गोरे पन्नों का हम कितनी निडरता और विनयशीलता से सामना कर वह काम कर रहे हैं जो भातखंडे , पलुस्कर, ठाकुर जयदेव, आचार्य बृहस्पति, एम और गौतम या भाई जी मुद्गल बिना संसाधनों के भी कर गये ?

हमारे संकरणमूलक संगीत को तमाम संगीत संस्थानों पर काबिज़ आज की महाठस्स, कला की दृष्टि से अंधी नहीं तो कानी बन गई व्यवस्था से उन सरीखा विद्वान् निकलेगा, यह उम्मीद तो अब मूर्खों ने भी तज दी है | बाबुओं की निगरानी में भाँय भाँय करती बाँझ इमारतों में सडती अकादमियाँ और सरकारी प्रतिष्ठान मृतप्राय हैं और उनके राजनैतिक रिश्तों की तहत नियुक्त बडे बाबूलोग अपारदर्शी चलताऊ तरीके से संरक्षण की रेवडियाँ अपने विश्वस्त दरबारियों को ही बाँटने की घिस्से मौलाबख्श की परंपरा को बढा रहे हैं | सरकार की ‘हम बनाम वे’ की धडाबंदी के बाद निजी क्षेत्र में भी झाँकें तो वहाँ भी नज़ारा खास उत्साह नहीं जगाता | हर बरस संगीत सम्मेलन हो रहे हैं, पुरस्कार भी घोषित किये जा रहे हैं, पर सच कहें तो हिंदुस्तानी संगीत के इलाके में टूरिस्ट तो हमको बहुत नज़र आते हैं, पर मर्मी रसिक, शोधकर्ता या साधक लगभग नहीं | इस बिंदु पर आकर यह पूछना अभद्रता ही होगी, कि हमारा आज का यह जो हिंदुस्तानी संगीत है, वह सचमुच कितना सार्थक, सामर्थ्यवान और गंभीर शोध का विषय बन सकता है ?

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