फिल्म ‘मुल्क’ रिलीज होने के पहले से ही चर्चा में है. इसकी एक अच्छी समीक्षा लिखी है पाण्डेय राकेश ने-
‘मुल्क’ बहुत अच्छी फिल्म है। और हां, यह राजनीतिक यथार्थवादी फिल्म है, पर कोरी बौद्धिक और बोरियत- भरी फिल्म नहीं है, जैसा- कि बहुत- से समीक्षक इसके बारे में लिख रहे हैं। जिस शो में मैंने फिल्म देखी उसमें हॉल की सारी सीटें फुल थीं, और मेरा अनुभव है कि सब पिन- ड्रॉप- सायलेंस और इन्वॉल्वमेंट के साथ फिल्म देख रहे थे, रिलेट कर रहे थे, और दर्शक तो सभी तरह की विचारधारा वाले रहे होंगे, पर ऑफेंड होता कोई प्रतीत नहीं हो रहा था। आईना में हम सब अपना चेहरा देख रहे थे, पर चिढ़ता हुआ तो कोई नहीं लग रहा था। लोग तो फिल्म में रूचि ले रहे हैं, फिर- भी ऐसा लगता है कि फिल्म के लिए उदासीनता पैदा करने का एक मौन प्रयास चल रहा है, जबकि फिल्म हर किसी को इनरिच करने वाली है। यह फिल्म एक खुली बहस का विषय बननी चाहिए। फिल्म सोचने- विचारने और अपनाने के लिए बहुत- कुछ देती है।
यह फिल्म अपने समय के प्रति एक जरूरी सांस्कृतिक हस्तक्षेप है। पर, इसे इस अर्थ में नहीं लिया जा सकता था कि फिल्म अपने समय को अंधेरा, बस अंधेरा से भरा चित्रित करती हो, जैसा- कि बहुत से समीक्षक लिख रहे हैं। यह फिल्म अपने पूरे समय को ‘ब्लैक’ पेंट कर देने की जल्दबाजी में नहीं है। बल्कि, यह ‘ब्लैक’ और ‘व्हाइट’ के बीच पसरे ‘ग्रे’ के बड़े क्षेत्र को देखना जरूरी बताती है। फिल्म में आज के समय का जो भी ‘ब्लैक’ है उसे तो मुख्य रूप से दिखाती है, जिसमें सरकारी संस्थाएं (फिल्म की कहानी में पुलिस) भीड़ जैसी पूर्वाग्रहों से काम कर रही हैं तो भीड़, सरकार बनकर फैसले (गो टू पाकिस्तान) सुना रही है। पर, बात यहीं तक सीमित नहीं है। पूर्वाग्रहों का बनना, फैलना और जड़ होना समाज में फैली हुई प्रक्रियाएं हैं। यह फिल्म हिंदू में मुसलमान के लिए पूर्वाग्रह बनने तो मुसलमान में भी हिंदू के प्रति प्रतिक्रिया बनने की समकालीन समाज- मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को अपना विषय बनाती है, और इस क्रम में संवादों में आने वाले प्रतीकों के माध्यम से इन पूर्वाग्रहों और प्रतिक्रियाओं की ऐतिहासिकताओं की ओर इशारा कर उन्हें समाज के जमे- जमाये शक्ति- समूहों के हित से जोड़कर भी दिखाती है। पूर्वाग्रहों की सामाजिक- संरचनात्मक पोजिशनिंग भी बराबर रूप से करते हुए यह फिल्म मुख्य रूप से हमें हमारे अपने देखने के नजरिया को साफ करने का आह्वान करती है। हमारा नजरिया, जिसे समय खराब कर रहा है, उस समय की पहचान करने के साथ- साथ फिल्म हमें अपनी- अपनी जवाबदेही को देखने- समझने- निभाने का आह्वान भी कर रही है। फिल्म एक शहर (बनारस) के एक मुहल्ला के एक परिवार की कहानी के माध्यम से आज के बड़े सवाल ‘आतंकवाद’ तक की लोकप्रिय परिभाषा (आतंक माने कश्मीर, मुसलमान या नक्सलवाद बस) की सीमा को भी उजागर कर देती है और यह स्थापित करती है कि किसी भी एजेंसी जैसे स्टेट, प्रभावी सामाजिक- समूह या किसी विद्राही समूह के द्वारा अपनी बात मनवाने के लिए अनैतिक- असंवैधानिक- अमानवीय रूप से भय का कोई भी उपयोग ‘आतंकवाद’ ही है। और फिल्म यह बात अपनी पूरी कलात्मक विश्वसनीयता के साथ समझाती है, बात सीधी- सीधी समझ में आती है।
सत्ता- तंत्र के जो वकील साहब हैं वह मानकर चल रहे हैं कि धर्म और सत्य उनकी ओर है। अपनी मान्यता को ईमान और न्याय के सिद्धांतों तथा तर्क और प्रमाण के तरीकों की कसौटी पर कसना उनके लिए आवश्यक नहीं है। अदालत की जिरह उनके लिए खूंटी पर बंधी गाय है। अदालत का पूरा माहौल उनके कंट्रोल में है। उनका ‘पूर्वाग्रह’ ही उनका जिरह है जिसमें फोर्स और स्वेच्छाचारिता है, पर परत- दर- परत तर्क और प्रमाण की आवश्यकता नाममात्र है। न मात्र अदालत, समाज के अपने दबंग साथी ‘सहस्रबुद्धे’ के माध्यम से वह मीडिया, सोशल मीडिया आदि परसेप्शन बनाने वाले सभी माध्यमों को कंट्रोल करते हैं, और उनका परसेप्शन जो उनका सत्य है उसे ही समाज का सत्य बनाने में सक्षम हैं। नतीजा यह है कि वह पूर्वाग्रहों के कारोबारी और हितधारी हैं। पुलिस का अधिकारी है जिसे पता ही नहीं चलता कि कब वह संविधान और कानून का ‘अनुशासित’ सिपाही बनते- बनते सीमा लांघ जाता है और समाज के सफेदपोश सत्ता- तंत्र का अनुशासित सिपाही मात्र बनकर रह जाता है जो उस सत्ता- तंत्र के परसेप्शन के आधार पर ही अपनी दृष्टि बनाने लगता है और अमानवीय हो जाता है। समाज के साधारण लोग अपनी सामान्य मानसिकता के साथ उसी परसेप्शन के जाल में फंसते हैं और हर संदर्भ में समाज को किसी- न- किसी ‘हम’ और ‘वे’ में बंटा पाते हैं और सत्ता द्वारा आसानी से शासित होते हैं।
आज के समय की कहानी इस फिल्म में मीडिया या सोशल मीडिया का ज्यादा चित्रण या जिक्र नहीं है, जितनी मीडिया आई है वह भीड़ बनकर ही। यह पूर्वाग्रहों और भीड़ की मानसिकता से लड़ने के मामले में नपुंसक मीडिया है और स्वयं पूर्वाग्रहों और भीड़ की उत्पादक और हिस्सा है। फिल्म की कहानी में विलेन है समाज में प्रचलित या प्रचलित करा दिया गया ‘पूर्वाग्रह’ और उससे लड़ने का माध्यम है ‘जिरह’ (यहां अदालती)। अपने परसिव्ड सत्य को अपने पॉकेट में लेकर चलने वाले और उसे बड़ी आसानी से सामान्यीकृत बना देने वाले सत्ता- तंत्र के वकील साहब से वकील नायिका अदालती जिरह में टकराती है अपने न्याय और ईमान के तर्कशास्त्र के साथ। अपनी मूल गरिमा के साथ ‘अदालती जिरह’ फिल्म में नायक है। ‘अदालती जिरह’ प्रतीक है न्याय, ईमान और तर्क आधारित दृष्टि का जो पूर्वाग्रहों को चीर पाने और उससे आगे बढ़ने का अकेला उपाय है। अपने फैसले में जज साहब पीडि़त मुस्लिम पात्र से कहते हैं कि संविधान के पहले पन्ने की खूब सारी फोटो कॉपी कराकर अपने पास रख लो, जब भी कोई तुम्हारी दाढ़ी और ओसामा बिन लादेन की दाढ़ी में फर्क न करे तो उसे एक पन्ना पकड़ा दो।
उदारवादी विचार- दृष्टि से गढ़ी इस कहानी में समस्या के समाधान का दूसरा स्तर है कि अपनी और अपने बच्चों आदि की कथनी व करनी, जिससे पूर्वाग्रह और प्रचलित धारणाएं फैलते और जड़ीभूत होते हैं, की जवाबदेही लेना। और यह कि व्यक्तिगत रूप से अपने से अलग धर्म वाले लोगों से मित्रता और मेलजोल करने की जवाबदेही लेना।
फिल्म के बारे में बात करते हुए जिस एक और बात को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता वह यह कि प्रोटैगोनिस्ट वकील पात्र का स्त्री होना। स्त्रीवादी फिल्म ‘पिंक’ में तापसी पन्नू ने पीडि़त स्त्री पात्र का अभिनय किया था, जिसकी वकालत एक पुरूष पात्र (अमिताभ बच्चन) ने की। ‘मुल्क’ में वही तापसी पन्नू है और वही अदालती जिरह है, पर यहां अपने परिवार के लिए जिरह कर रही है स्वयं स्त्री- पात्र। इस पात्र को तापसी ने बहुत अच्छा निभाया है।
‘मुल्क’ हममें से हर किसी को किसी- न- किसी स्तर पर मन की अवगुंठनें खोलने में मदद करने वाली फिल्म है।
(लेखक स्वतंत्र लेखन करते हैं। मनोविज्ञान, समाज- मनोविज्ञान और पब्लिक- पॉलिसी लेखन के मुख्य क्षेत्र हैं। ऑर्गेनाइजेशनल- ट्रेनिंग और लाइफ- कोचिंग के क्षेत्र में भी दखल रखते हैं। )
The post पूर्वग्रहों की परतें उघाड़ता ‘मुल्क’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..