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लोक और शास्त्र का लालित्यपूर्ण वैभव- प्रिया नीलकण्ठी

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आज हिन्दी के प्रसिद्ध निबंधकार कुबेरनाथ राय की पुण्यतिथि है। इस अवसर पर उनके प्रसिद्ध निबंध संग्रह ‘प्रिया नीलकंठी’ पर पढ़िए युवा विद्वान अम्बुज पाण्डेय का यह लेख। अम्बुज जी ने बीएचयू से पढ़ाई की है और आजकल मिर्ज़ापुर में पढ़ाते हैं- मॉडरेटर

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भारतीय मनीषा अपने सांगोपांग समुच्चय के साथ कुबेरनाथ राय की रचनाओं में प्रतिफलित हुई है। उनके निबंध-संग्रहों के नाम भर ले लीजिए तो पुराणेतिहास और मिथकीय आभा से मन दीप्त हो उठता है। भारतीय संस्कृति में उनका मन कितना पगा था, उनके संग्रह इसका भरपूर बखान करते हैं। उनकी सुरुचि और रमणीयता की बानगी द्रष्टव्य है – प्रिया नीलकंठी, गन्धमादन, विषाद योग, रस आखेटक, कामधेनु, किरात नदी में चंद्रमधु, दृष्टि-अभिसार, मराल, पर्ण मुकुट, आगम की नाव, मन पवन की नौका, वाणी का क्षीर सागर, अंधकार में अग्निशिखा, निषाद बाँसुरी, त्रेता का वृहत्साम।

     कहने को ये बाह्य आवरण मात्र हैं, लेकिन भीतरी वास्तु, सज्जा और अर्थगर्भ में लोक-लोकोत्तर सब दमकता हुआ मिलेगा। नदी, पहाड़, जंगल, खेत-खलिहान, पगडंडी, पोखर, ऋतु, मास, तीज-त्यौहार, लोकगीत, महाकाव्य, रामलीला और लोक पर्व से जुड़ी तमाम परंपराएँ जितनी विश्वसनीयता से कुबेरनाथ राय के यहाँ उपस्थित होती हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं। जड़-जंगम जो भी उनके पर्यवेक्षण में आता है, एक अपूर्व अंतर्दृष्टि पा कर मूल्यवान हो जाता है। उनके यहाँ तिरस्कृत और निरादृत कुछ भी नहीं है। सब कुछ एक वृहत्तर प्रकृति की चरम अभिव्यक्ति में समाहार पा जाता है।

कहना न होगा, कुबेरनाथ राय चराचर सृष्टि को किसी प्रमेय की तरह देखते हैं और बड़ी आसानी से प्रकृति के गर्भ तक पहुँचकर सारे रहस्यों की थाह ले लेते हैं। वे जिस लोक और प्रकृति का साक्षात्कार कराते हैं, उस नैसर्गिक लीलास्थली में कहीं कोई संघात नहीं, किसी जीवधारी में स्पर्धा और द्वंद्व नहीं, सब एक-दूसरे के पूरक हैं। 

     लोक उनके लेखन का प्राण तत्व है। वह लोक, जहाँ बहुत कुछ त्याज्य और रूढ़ियों में जकड़ा हुआ है। अशिक्षा, कुरूचि और अपसंस्कृति का फैलाव यहाँ इतना अधिक है कि सामान्य व्यक्ति विचलित हो उठता है। यह इतना नीरन्ध्र और परिवर्तनविरूद्ध है कि शिक्षित और कुलीन इस लोक की तरफ दृष्टि फेरकर देखना तक नहीं चाहते। लेकिन इसी लोक से कुबेरनाथ राय मानव जीवन का महत्तम उठा लेते हैं। उनकी पारखी दृष्टि, मनन और रमण करने की उनकी मेधा हतप्रभ करती है। प्रकृति के प्रांगण में मानव समेत नाना जीवधारियों के सहअस्तित्व के मेल-मिलाप से जो मूल्य उन्होंने सिरजे हैं, वो बड़े काम के हैं। 

     ‘संपाती के बेटे’ पढ़कर लगता है, इस पक्षी पर अब आगे शायद लिखने को कुछ शेष नहीं रह गया। कौन नहीं जानता गिद्ध-प्रजाति को। पौराणिक चरित्र के औदात्य पक्ष से लेकर एक आधिभौतिक, अस्पृश्य, कुलीन समाज से बहिष्कृत, वीभत्स और उसके डरावने रूप को देखकर हर कोई सिहर उठता है। लेकिन कुबेरनाथ राय ने उसके भीतर एक कुशल गृहस्थ और काममोहित पुरूष का दर्शन किया। इस उपेक्षित किंतु महत्वपूर्ण प्रजाति को निवृत्ति की खाईं से निकालकर मानव और मानवेतर प्राणियों के उच्च सोपान पर ले जाकर उन्होंने प्रतिष्ठित कर दिया। वे लिखते हैं –

     “हाँ, मेरी खिड़की के पास ही पुराना पीपल का पेड़ है जिस पर ये समय-कुसमय गृध्र-युग्मों के काम सीत्कार के घोर रव सुनाई पड़ते हैं। जहाँ की प्रकृति के हिस्से में ज्वार-बाजरे और ईख-जैसे एक लाठीनुमा कवित्वहीन और गद्याकृति पौधे मिले हों, वहाँ की किसी चीज में बंगाल की माया कैसे प्रवेश करें! रोज इन्हीं गृध्र-युग्मों का प्रणय देखने को मिलता है। प्रणय-पूर्व गृद्ध नायक दूर-दूर के दरख्तों से सूखी-अधसूखी टहनियाँ तोड़कर गृद्ध-स्वामिनी प्रिया को सौंपता है और वह नीड़ रचती है। प्रणय और नीड़ की माया दोनों का वितान साथ-साथ तनता जाता है। काल पाकर अंडे फूटते हैं। सघन पत्तों के बीच गृद्ध-शावक पलता है। शिशु के बड़े हो जाने पर गृह की माया बिखर जाती है। माया की अर्गला के एक बार टूटते ही शावक भी भूल जाता है और चिर कुमारिका गृद्धस्वामिनी फिर से उर्वशी बन जाती है। पत्नी नहीं, माता नहीं, सनातन प्रिया।” 

     एक पक्षी में ‘सनातन प्रिया’ का यह उदात्त आरोपण सायास, तर्कपूर्ण, सबाल्टर्न और आधुनिक चेतना का प्रतिदर्श जान पड़ता है। आखिर निबंधकार जटायु जैसे योद्धा और पुण्य-फल के भागी विश्रुत पौराणिक चरित्र को छोड़ कर कम चर्चित और फलागम से वंचित ऐसे हतभाग्य पात्र के ऊपर अपने निबंध का नामकरण ‘संपाती के बेटे’ क्यों करता है? अव्वल तो प्रचलित पैटर्न और धारानुकूल परंपरा का अनुगमन करते हुये निबंध का नाम ‘जटायु के बेटे’ होना चाहिए था।

     लेकिन निबंधकार ने ऐसा नहीं किया। उनका पूरा अभिनिवेश संपाती पर है। ध्यातव्य है, कुबेरनाथ ने संपाती को जटायु से भी ऊँचा मान दिया। वे मानते हैं कि संपाती में अटूट जिजीविषा और आत्मघात तक अन्वेषण की ललक थी। अन्वेषण का दुस्साहस और निरावरण सच जानने की उसकी हठधर्मिता का परिणाम यह होता है कि वह अपने दोनों पंख जला बैठता है।

     उसकी कद-काठी देखकर कुबेरनाथ राय कभी उसमें डी.एच. लारेंस का साम्य आरोपित करते हैं, तो कभी उसे पक्षियों में शाक्त घोषित कर देते हैं। यह घोषणा हाइपोथीटिकल और हवा-हवाई नहीं है, इसके पीछे गुण-धर्म की मुकम्मल मीमांसा है। गिद्ध प्रजाति की बात करते-करते वे समूचे पक्षी समुदाय के नस्ल, वर्ण, भाषा, सहअस्तित्व और उदात्त गुणों का न केवल बखान करते हैं, बल्कि श्रेष्ठ समझे जाने वाले मानव जाति के दुर्गुणों का उल्लेख करना भी नहीं भूलते –

     “प्रति संध्या इन पीपल और आम की डालों पर बलाकाओं पर बलाकाएँ उतरती हैं। सब के सब इस गृद्ध परिवार के अगल-बगल डेरा डाल चुके हैं। सिर्फ रैन बसेरा का ही तो सवाल है, कल फिर अपने-अपने काम पर! हरीतिमा के जाल में सब छिप गये हैं। पर स्वरों द्वारा पहचाने जा सकते हैं – पूरा पेड़ एक आर्केस्ट्रा बन गया है। ये द्विजन्मे पाँखी मनुष्य से अधिक सभ्य लगते हैं। ये विविधता और सहअस्तित्व को बर्दाश्त तो करते हैं। कितने रंग, कितनी छायाएँ, कितनी सज्जाएँ, कितने बाने, कितने नृत्य, कितने गान, कितना हर्ष और कितनी विचित्रता! मनुष्य की तुलना में रोते भी बहुत कम हैं। प्रायः नहीं ही रोते। और यदि कोई रोता है, तो इतिहास बन जाता है, नये छंद का जन्म हो जाता है, कवि उत्पन्न हो जाता है। नहीं तो हर्ष, केवल हर्ष। शोक और मोह के परे नृत्य और गान। हरे, नीले, रुपहले और स्वर्णिम गीतों की बलाका नील आसमान के हृदय को रँगती रहती है।”

     कुबेरनाथ राय का यह निबंध पढते समय बरबस मलिक मोहम्मद जायसी की स्मृति कौंधती है। पद्मावत में भी पक्षियों का समूह कुछ इसी भाव दशा को दर्शाता है। वहाँ भी सहअस्तित्व का ऐसा ही बहुवर्णी और बहुनस्लीय गझिन संसार है। इस बात की ओर सहज ही ध्यान चला जाता है कि जिस मध्यकालीन सहअस्तित्व को धर्मांधता, युयुत्सा और साम्राज्यवाद रौंद रहा था, उस प्रवृत्ति को त्वरा प्रदान करते आधुनिक मानव का सहकार विज्ञान और यंत्र बन गया।

     शैव, वैष्णव, शाक्त और अघोर परंपराओं का भी कुबेरनाथ राय को विशद ज्ञान था। मत और उपासना के पीछे सूक्ष्म रिचुअल की जितनी गहरी समझ उनमें थी वह सब उनके निबंधों में प्रतिफलित हुआ है। ‘चण्डी थान’ निबंध में शिव और पार्वती की उपासना पद्ध्यतियों का न केवल वे सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेक बताते हैं, बल्कि शिवानी, महामुद्रा, महायोगिनी, चण्डिका, त्रिपुरसुंदरी, भैरवी, उग्रतारा और काली का शाक्त-मत, सांख्य दर्शन और प्राकृतिक उपासकों में क्या महत्व है, इसकी भी मीमांसा करते हैं –

     “यहाँ हमें एतराज नहीं कि शिवानी को मंदिर में क्यों रखा। पर यह महामुद्रा यह महायोगिनी, यह चण्डिका विग्रह और यह चीरवासा भैरव – इनकी बात और है। यह महामुद्रा शिव-पत्नी नहीं, उनकी दक्षिणा प्रेमिका है; योगिनी है; किसी भी पति से अनुशासित नहीं। चीरवासा भैरव ही उलटे इस त्रिपुरसुंदरी, इस कामेश्वरी का एक काम-कटाक्ष-भर पाने के लिए उसकी आराधना में रत हैं। ‘पत्नी’ और ‘प्रेमिका’ में फर्क होता है। सहचरी ‘पत्नी’ एक खास अर्थ में ‘आश्रिता’ भी है। परन्तु प्रेमिका सदैव ‘स्वामिनी’ है। वह गृह की सीमा से अभी आबद्ध नहीं। ‘शिव’ इस त्रिपुरसुंदरी के रंगीन चरण का स्पर्श ह्रदय पर पाते हैं तो उनमें ‘चिति’ का संचार होता है, अन्यथा वे ‘शव’ मात्र हैं, निष्क्रिय स्थिति में हैं। पौराणिक शिव और तांत्रिक शिव में मूलतः यही भेद है। पौराणिक शिव सौभाग्यपार्वती के पति हैं, गृहस्थ हैं, पर तांत्रिक शिव महामुद्रा त्रिपुरसुंदरी के अघोरभैरव हैं। यही त्रिपुरसुंदरी चण्डिका, भैरवी, उग्रतारा, काली आदि बनकर विभिन्न महामुद्राओं में अघोरभैरव शिव द्वारा साधित होती हैं।”

     जीवन की धूप-छाँह और आपाधापी में ढ़ेर सा ऐसा छूट जाता है जिस पर कभी दृष्टि ही नहीं पड़ती। पड़ती भी है, तो उसे निरखने और कुरेदने का अवकाश नहीं रहता। और वही सब कुछ जब किसी समर्थ रचनाकर की दृष्टि से देखने का अवसर मिलता है, तो भीतर से एक आत्मधिक्कार उपजता है कि आखिर मेरे पास इतना अवकाश क्यों नहीं, मुझे इतनी महत्वपूर्ण बात स्वतःस्फूर्त क्यों न दिखाई दी? लेकिन कुबेरनाथ राय बड़े धीरमना हैं। यूँ लगता है जैसे उन्हें सांसारिक जद्दोजहद वैसे नहीं व्यापता जैसे आम जन को अपने गुंजलक में लपेट कर निरवकाश बना देता है।

आधुनिक सभ्य समाज अपनी छोटी सी बालकनी में चुन-चुन कर आकर्षक पौधों को रोपता और निहारता है। महत् आकांक्षाओं वाला यह मध्यवर्ग गमले में बोनसाई लगा कर अपनी तंगहाली को ढ़ँकता और कौतुक में मुब्तिला रहता है। कालीन पर उकेरे गये मिनियेचर उसकी धरती है और इक्वेरियम की मछली और कृत्रिम फव्वारे को देखकर वह सागर और झरने के रसाभास से खुद को सींचता है। सुराख से दिखता आसमान उसके सामर्थ्य की न केवल तौहीन करता है, बल्कि उसके सौंदर्यबोध और कल्पना लोक को भी संकुचित कर देता है। लेकिन कुबेरनाथ राय इस यांत्रिक, कृत्रिम और अभिशप्त मनोदशा से अपने आप को बचा ले जाते हैं। वे प्रकृति के उद्दाम और सहज रूप के उपासक हैं। उनके लिए मुक्ताकाश के नीचे शस्यश्यामल धरती ही काम्य है।  गूलर, कटहल, नीम और शमी जैसे अनाकर्षक वृक्ष जो आम जन को अपने रूपपाश में नहीं बाँध पाते, वे भी लालित्यपूर्ण लेखनी में भास्वर हो उठते हैं। निबंधकार का सहृदयी मन उनके भीतर संवेदना का संधान तो करता ही है, साथ ही अपनी वाग्मिता से उनका अपूर्व अभिसार भी करता जाता है। ‘गूलर का फूल’ निबंध में वे लिखते हैं, “यह गूलर का वृक्ष अति पुरातन था। द्वापर से पूर्व, त्रेता से भी पहले, जब नारायण ने जगत् के उद्धार का लिए नृसिंह वपु धारण किया था तब यह वृक्ष अपनी कुमारावस्था में था। पास ही पार्श्व में एक कटहल का नवीन वृक्ष महाबाहु भीमसेन ने आरोपित कर दिया था। महापराक्रमी वायुपुत्र लघु आकार वाले फलों को अवहेलना की दृष्टि से देखते थे।

     यह सतयुगी वृक्ष-पुरुष युगों के ज्वार-भाटे के बीच मौन साक्षी सा खड़ा रहा। श्रृंगार, वीर, करुण आदि नवरसों से परे इसका संन्यासी मन भी कभी-कभी अतीत माधुरी की स्मृति में विगलित हो उठता था। विशेषतः रात्रि की नीरवता में द्रौपदी की करुणा का उसे ध्यान हो जाता, तो इस युगों के वृद्ध सहचर के ह्रदय को चीरती हुई एक लंबी साँस निकल जाती।”

     एक से एक अनगढ़ प्रसंग उनकी लेखनी का स्पर्श पाकर प्राणवान हो जाते हैं। उनकी दृष्टि के अभिसार में सब के सब सहसा अपूर्व दृश्य रच देते हैं। कथाएँ पुरानी और सबकी पढ़ी-सुनी होती हैं, लोक सबका देखा और भोगा हुआ, लेकिन नये रचनात्मक कलेवर में उनकी अर्थवत्ता पाठक को दूसरे ही क्षितिज पर ले उड़ती है। लोक की भावभूमि यहाँ कभी नहीं मुरझाती, सदा-सदा लहलहाती रहती है। कहीं अनावृष्टि से सूखते ताल खंख हो रहे हैं, तो कभी धारसार बारिश पाकर बगुले की तरह उठते विहाग-गीत लोगों को विह्वल कर देते हैं। ज्वार, बाजरा, धान, गेहूँ के साथ यहाँ मई-जून की तमतमाती लू भी कष्टप्रद नहीं लगती। ज्वर से तपता शरीर दाहक लू के साथ कैसे एकाकार होता है, उन्होंने खूब लिखा है। तीक्ष्ण ज्वर तन-मन में हाहाकार उपजा रहा है और रचनाकार इस पार्थिव पिण्ड में ब्रह्माण्ड का अंतर्भाव देख रहा है। एक सामान्य व्यक्ति ज्वर से मुक्ति के लिए पैरासीटामॉल और एंटीबॉयोटिक की शरणागत होता है और यहाँ एक रचनाकार कायिक क्लेश को अतिक्रमित करता उस अनुभव का रचनात्मक प्रकर्ष खड़ा कर देता है। ज्वर के औधत्य और सृजनात्मक चिंतन के औदात्य की परिणति देखनी हो, तो ‘निर्वासन और प्रिया नीलकण्ठी’ निबंध पठनीय है –

     “धरती महाराग में लीन है। मैं सब-कुछ देख रहा हूँ। किसी उजड़े दरिद्र वृंदावन से वंशी की आवाज आ रही है। मैं सुध रहा हूँ। पर आज इस वंशी स्वर का बोध बड़ा ही खण्डित है, गाँठ-गाँठ टूटा हुआ है। मैं इसके समग्र रूप का बोध नहीं पा रहा हूँ। मैं करीब छह दिनों से इस महाराग के गड्डलिका-प्रवाह से निर्वासित कर दिया गया हूँ। आज सातवाँ दिन है। मुझे बुखार है। विराम नहीं। क्षमा नहीं। मुक्ति नहीं। कभी-कभी तो लगता है कि मस्तक की नाड़ियाँ मारे व्यथा के फट जाएँगी। सदैव न सही, पर कभी-कभी लगता है कपाल में, ललाट के नीचे पीड़ा की हजार-हजार गाँठें हैं। एक-एक गाँठ में अपार वेदना वक्राकार ऐंठन दे रही है। उस समय विराम नहीं, मुक्ति नहीं, क्षमा नहीं। उन क्षणों में लगता है कि यह वसंत कक महाराग लीला नहीं बल्कि दिशाओं में सतीदाह हो रहा है; दोपहर की कठोर, स्पात सी निर्मम भावहीन वेला में दशों दिशाओं में त्रिपुरसुंदरी की चिता जल रही है। मैं तप्त आकाश के नीचे अपने अगल-बगल जलती हजार-हजार चिताओं के बीच लेटा हूँ, उनके ताप से झुलस रहा हूँ। माना कि या अनुभव सदैव नहीं, चरम स्थितियों के हैं। यह चरमस्थिति अविराम नहीं। पर छह दिनों से निर्वासन तो अविराम है। मैं मृत्यु से नहीं डरता। मैंने जिस दिन जन्म लिया, उसी दिन उसके दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिया था। जो मेरी प्रतिबद्धता है उसका क्या मलाल और क्या पछतावा। पर इस निर्वासन के लिए मैं प्रतिबद्ध नहीं हुआ था। यह निर्वासन मेरे लिए अति दुर्वह स्थिति है।”

     अपनी संस्कृति और सभ्यता से प्रेम करने वाला भलामानुस आखिर दुनिया की अन्य प्राचीन सभ्यताओं का निरादर कैसे कर सकता है। जैसे इसी प्रस्तावना के साथ वे यूनानी-रोमन सभ्यताओं को भी देखते हैं। पश्चिमी संस्कृति के अभिमुखीकरण की भी उनकी वही शैली है। लोक की शैली। लोक से ही वो उनके चरित्रों की भी पड़ताल करते हैं, और उनकी यह प्रविधि पूरी तरह वैध लगती है। यूनानी महाकाव्यों के चरित्रों को तो वो इतनी विश्वसनीयता और अधिकार से पकड़ते हैं जैसे ये हजारों मील दूर बसे अन्य महाद्वीप के न होकर पूर्वांचल के किसी गाँव-जवार के चिर-परिचित आख्यानों की बात हो। ये विजातीय तो कदाचित ही लग सकते हैं। और धीरे से ये चरित्र संक्रमित होते हमारे लोक में भी समा जाते हैं। लेखक उन्हें अपनी भावभूमि और देश-काल में उतारकर उनसे संवाद करने लगता है। 

 
               डॉ.अम्बुज कुमार पाण्डेय

                   असि.प्रो. हिन्दी-विभाग

             के.बी.पी.जी. कॉलेज, मीरजापुर

                       उ.प्र. 231001

            

             मो. 9451149575

            mailtoambuj@gmail.com


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