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बानू मुश्ताक़ ‘हार्ट लैंप’और बुकर

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कन्नड़ भाषा की वरिष्ठ लेखिका बानू मुश्ताक़ की किताब ‘हार्ट लैंप’ को इंटरनेशनल बुकर प्राइज़ देने की घोषणा हुई है। जिसका अनुवाद किया है दीपा भास्ति ने। इसी पुरस्कार पर पढ़िए कोरियन भाषा की विशेषज्ञ कुमारी रोहिणी की यह टिप्पणी। इस लेख के लिए उन्होंने बीबीसी और बुकर प्राइज़ के वेबसाइट के स्रोतों का इस्तेमाल किया है- मॉडरेटर 

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पिछले दिनों अपनी किताब ‘साहित्य के मनोसंधान’ पर आयोजित चर्चा में प्रसिद्ध वरिष्ठ लेखक मृदुला गर्ग ने कहा कि ‘लिखे का ड्राफ्ट क्या होता है मैं समझ नहीं पाती! कहानी-उपन्यास एक बार लिखी जाती है, और आप उसे एक बार ही लिखते हैं। उसमें संसोधन या एडिटिंग जैसा कुछ नहीं होता। हाँ लेख-रिपोर्ट आदि में आप फेर-बदल संसोधन कर सकते हैं।’ ऐसी ही कुछ इस साल की बुकर प्राइज विजेता बानू मुश्ताक़ का भी कहना है। बानू कहती हैं कि कहानियों का पहला ड्राफ्ट होगा और फिर उसकी अंतिम कॉपी होगी।’

ऐसे समय में जब मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग को अपना हर दिन देश के प्रति अपनी निष्ठा और अपना प्रेम साबित करते हुए गुजारना पड़ रहा है, उसी समय में बानू मुश्ताक़ को यह अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिलना सुखद है। बानू मुश्ताक़ का कहानी संग्रह ‘हार्ट-लैंप’ उनकी बारह कहानियों का संग्रह है जो 1990-2023 के बीच लिखी गई हैं। इन कहानियों में बानू ने मुस्लिम औरतों के जीवन और उनकी दुश्वारियों को उकेरा है। जहां मूल रूप से कन्नड़ भाषा में पहली बार किसी लेखक को यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला है, वहीं भारत के लिए इस सम्मान को पाने का यह दूसरा अवसर है। इसके पहले 2022 में हिन्दी की लेखक गीतांजलि श्री को उनके उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टूम्ब ऑफ सैंड’ के लिए यह पुरस्कार मिल चुका है, जिसका अनुवाद डेज़ी रॉकवेल ने किया है।

पेशे से वकील और एक्टिविस्ट रहीं बानू मुश्ताक़ का अपना जीवन भी कुछ आसान नहीं रहा। ‘वोग’ पत्रिका को दिये गये अपने इंटरव्यू में बानू ने इस बात को सार्वजनिक किया कि शादी के बाद उनका जीवन पूरी तरह से बदल गया था। वह कहती हैं कि, ‘मैं हमेशा से (इसके बारे में) लिखना चाहती थी क्योंकि प्रेम विवाह करने के बाद अचानक मुझे बुर्क़ा पहनने और अपना जीवन घर के काम करने और घर सँभालने में लगाने को कहा गया। 29 साल की उम्र में मैं एक ऐसी माँ बन चुकी थी जो पोस्टपार्टम के अवसाद को झेल रही थी।’

उसके बाद उन्होंने विद्रोह का रास्ता अपनाया और समय रहते उस यातना भरे जीवन से ख़ुद से मुक्त कर लिया। उनकी हार्ट लैंप कहानी की स्त्री पात्र इसी विद्रोह और मानसिक रूप से सशक्त होने (रिजिलिएंस) को दर्शाती है।

अपने जीवन के शुरुआती दिनों में मुश्ताक़ ने एक पत्रकार के रूप में काम किया और बंदया आंदोलन से जुड़ी रहीं। यह आंदोलन साहित्य और एक्टिविज्म के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक अन्याय को संबोधित करने पर केंद्रित था। लगभग एक दशक तक पत्रकारिता करने के बाद बानू मुश्ताक़ ने वकालत शुरू कर दी। अपने पूरे करियर में ढेरों कहानियाँ लिखने वाली बानू मुश्ताक़ के हिस्से अब तक छह कहानी-संग्रह, लेखों का एक संग्रह और एक उपन्यास है।

इसके पहले उनके कहानी-संग्रह ‘हसीना एवं अन्य कहानियाँ’ को साल 2024 में पेन पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका है।

‘वीक’ पत्रिका को दिये अपने इंटरव्यू में मुश्ताक़ ने बताया कि ‘मैंने अपने लिखे में लगातार धार्मिक व्याख्याओं को चुनौती दी है। आज भी मेरा लेखन इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित है। हालाँकि समाज बहुत बदला है लेकिन मूल मुद्दे जस के तस हैं। भले ही संदर्भ बदल चुके हैं लेकिन महिलाओं और हाशिये पर जी रहे समुदायों से आने वाले लोगों के बुनियादी संघर्ष अब भी जारी हैं।’

इंटरनेशनल बुकर प्राइज की कमिटी को अपने दिये इंटरव्यू में मुश्ताक़ से जब उनकी कहानियों की प्रेरणा और लिखने के कारण के बारे में पूछा गया तब उनका कहना था कि ‘मेरी कहानियाँ महिलाओं की कहानियाँ हैं। कैसे धर्म, समाज और राजनीति सभी महिलाओं से बिना किसी सवाल के चुपचाप उनका कहा मान लेने की माँग करते हैं। और ऐसा करके वे उन्हें मानवीय क्रूरता का शिकार बनाते हैं। मीडिया में रोज़ आने वाली खबरें और मेरे अपने अनुभवों से ही मुझे इन्हें कहानियों में दर्ज करने की प्रेरणा मिली। इन महिलाओं के दर्द, पीड़ा और असहाय जीवन को देखकर मेरे भीतर एक अजीब सी भावना पैदा होती है जिसकी प्रतिक्रिया में मैं लिखने के लिए मजबूर हो जाती हूँ। हार्ट लैंप में शामिल कहानियाँ 1990 से अब तक के बीच लिखी पचास कहानियों में से चुनी गई हैं। कहानी का पहला ड्राफ्ट होता है और फिर वे अपने अंतिम स्वरूप में होती हैं। मैं बहुत अधिक रिसर्च में भरोसा नहीं करती। मेरा दिल ही मेरा रिसर्च फ़ील्ड है। कोई भी घटना मुझे जिस तीव्रता से उद्वेलित और प्रभावित करती है मैं उसे उतनी गहराई और भावनात्मकता के साथ कहानियों में दर्ज करती हूँ।

लेखक बनने की प्रेरणा वाले सवाल पर बानू कहती हैं सत्तर का दशक कर्नाटक में आंदोलनों का दशक था। उस दौर में कर्नाटक में दलित आंदोलन, किसान आंदोलन, भाषा से जुड़े आंदोलन, विद्रोही आंदोलन, महिलाओं के संघर्षों से जुड़े आंदोलन के साथ ही पर्यावरण के क्षेत्र में भी आंदोलन हो रहे थे। यह दौर थिएटर एक्टिविज्म का भी था। इन सभी घटनाओं ने मुझे गहरे प्रभावित किया। हाशिये पर जी रहे विभिन्न समुदायों और महिलाओं के जीवन से सीधे जुड़े होने के कारण मैं उन्हें जान-समझ रही थी। इस जुड़ाव ने मुझे लिखने की ताक़त दी। कुल मिलाकर कह सकती हूँ कि मैं कर्नाटक की सामाजिक परिस्थितियों से बनी एक लेखक हूँ।

इस पूरी बातचीत में बानू अपनी अनुवादक दीपा भास्ती को इस पुरस्कार का श्रेय देती हैं।

अंतरराष्ट्रीय बुकर प्राइज 2025 के जूरी के प्रमुख मैक्स पोर्टर ने बानू मुश्ताक़ के हार्ट लैंप और उसके अनुवाद पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि ‘हार्ट लैंप अंग्रेजी के पाठकों के लिए वाक़ई कुछ नया है। यह भाषा को झकझोरने वाला एक रेडिकल अनुवाद है और अंग्रेज़ी की विविधता में नये टेक्सचर जोड़ता है। इस किताब ने अनुवाद की हमारी समझ को चुनौती और विस्तार दोनों दिया है। ये सुंदर, व्यस्त, जीवन को पुष्ट करने वाली कहानियाँ कन्नड़ भाषा की हैं, जिनमें अन्य भाषाओं और बोलियों के असाधारण सामाजिक-राजनीतिक तत्व भी शामिल हैं जो इन्हें और अधिक समृद्ध बनाता है। ये सभी कहानियाँ महिलाओं के जीवन, बच्चा पैदा करने के उनके अधिकारों, आस्था, जाति, शक्ति और उत्पीड़न की बात करती हैं।

इस किताब को जूरी  के लोगों ने पहली बार पढ़ते ही पसंद कर लिया था। जूरी के अलग-अलग नज़रिए से इन कहानियों की तारीफ़ सुनना आनंद से भरा था। हम अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार 2025 के इस समय के अनुकूल और रोमांचक विजेता को दुनिया भर के पाठकों के साथ साझा करते हुए रोमांचित हैं।’


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