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पल्लवी गर्ग की कविताएँ

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आज पढ़िए पल्लवी गर्ग की कविताएँ। गहर राग की कुछ कविताएँ- मॉडरेटर 

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पाज़ेब

एक दिन दादी का बक्सा सही करते हुए
मिल गईं उनकी छुन-छुन करती पाज़ेब
जब पूछा दादी से पहन लूँ इसे
वे बोलीं हम तो छोड़ चुके इसे पहनना
तुमको क्यों पहननी है

मैंने कहा दादी, इसकी आवाज़ तो सुनो
कितनी मधुर है
पैर में बजेगी तो सरगम सी गूँजेगी
मैं मयूरी सी थिरकूँगी

दादी तुमने उतारा क्यों इनको?
अम्मा क्यों नहीं पहनती इनको?
मेरे सवालों पर दादी मुस्कुराईं
बोली सारा दिन छुन-छुन करती पाज़ेब
तब चुप होती थी जब हम आराम करते
पर चुप पाज़ेब किसी को न भाती
कोई न कोई आवाज़ तुरंत आ जाती
फिर करने लगती पाज़ेब छुन-छुन

मध्य रात्रि जब कभी छुन-छुन कुछ तेज़ हो जाती
बुजुर्गों के खाँसने की आवाज़ भी तेज़ हो जाती
सुबह सवेरे ताने और कुटिल मुस्कान चेहरों पर नाचती
ऐसा लगता बिट्टो
धरती गड़ जाए
हम धंस जाएं
हमारी हर आहट
हमसे पहले पाज़ेब सबको देती
छुन-छुन की आवाज़ खटकने लगती

हमने जो झेला सो झेला
तुम्हारी अम्मा को न बाँधा छुन-छुन से
उसको तो काम पर बाहर भी जाना था
अपना स्वाभिमान भी बचाना था
वैसे ही स्त्री को दूर से सूंघ लेता है समाज
अपना सुरक्षा कवच खुद बनाना पड़ता है
पाज़ेब पहननी है तो पहनो
पर अपनी आहट किसको देनी है
यह तय करो फिर उसमें घुंघरू डालो

तब नहीं समझी थी उनकी बात

दादी अपनी पाज़ेब मुझे दे गईं,
जाते-जाते कह गईं,
जब मेरी बात समझ जाना तभी पहनना इनको!

कितनी आगे की सोच थी
मेरी बे-पढ़ी दादी की
घर की चार दिवारी से कितना सही आंका था उन्होंने समाज को
अब उनकी पाज़ेब अपनी पोटली से निकाल कर
देख लेती हूँ
कुछ देर पहन कर ख़ुश होती हूँ
फिर अपनी आहट को उतार पोटली में सहेज लेती हूँ

————–

तुम्हारे खेल

जब चाहा ख़ुद को बदलना
तुमने शर्तें बदल दीं
जब चाहा तुम्हारी आदतों में ढलना,
तुमने आदतें बदल दीं
सदियाँ बीत गईं हैं ये खेल खेलते
एक बार चलो ऐसा करें
कि मैं ही बदल जाऊँ
फिर देखें तुम ढालते हो खुद को
मेरे हिसाब से
या ढल जाने देते हो
हर जज़्बात को

———-

झील

तस्वीरें स्मृतियाँ सहेजती हैं
बक्से यात्राओं की महक
मन तुम्हारी आँखों का जल!

उसी जल से तो
रेगिस्तान में बनती है झील

————–

अब मैं सागर बन रही हूँ

समुद्र कुछ ले नहीं जाता
नहीं समेटता निष्कासित वस्तुएँ
लौटा देता हर भार
प्लास्टिक शव प्रतिमाएँ कपड़े…सब
कुछ नहीं रखता
जो आत्मा पर बोझ बने

पर सहेजता है
आँसू मुस्कान
प्रेमियों की पुकार
और
इंतज़ार
सहेजता है हर बात
जो बिन बोले कोई कहे उससे

सहेजा उसने मेरी पुकार को
जो उसके क़रीब बैठ
तुम्हें लगाती रही
समझा उसने आत्मा पर बोझ बने आँसुओं को
कुछ आँसू अपने आँचल से उड़ा दिए उसने
जो अब बरस रहे हैं फुहार बन

अपने मन का बोझा मैं सिरा रही हूँ
मन में विसर्जित हर घाव
लौटा रही हूँ
अब मैं सागर बन रही हूँ

———————-

प्रेम

प्रेम जीवन में
कई बार आता है
कभी दस्तक दे कर
कभी दबे पाँव

बिजली-सा कडकता
कभी फुहार-सा बरसता है

मिट्टी में दबे बीज से
फूल बन खिल कर मुरझाता है

किसी झरोखे से
मधुमालती की बेल सा झाँकता
कभी तितली से रंग चुरा
जीवन रंगीन कर जाता है

हाथों की छुअन से
गुदगुदाता
कभी होठों की
तपिश से रूह कंपकंपाता है

रुके हुए आँसुओं को बर्फ़-सा जमाता
कभी पीड़ा से ख़ुद-ब-ख़ुद
दरक जाता है

जीते जी डगमगा भी जाए गर,
मृत्यु के आगोश में
प्रेम शाश्वत हो जाता है

किसी भी ढंग से
कितने ही बार
आ जाए जीवन में प्रेम
हर बार अलहदा होता है
उसका
स्वरूप
रंग
एहसास
और
उसका
निबाह!

———————

उसे रंग पसंद थे मुझे वो!

उसे रंग पसंद थे
मुझे वह!

बदरंगे से मन पर
बिखेर कर
प्रेम का रंग
रंगा उसने मेरा मन

रंग अतरंगी था
पर था पक्का
उस पर कोई रंग चढ़ा ही नहीं

रंग मुझमें हैं
या मैं रंगों में
यह भेद कभी खुला ही नहीं

——————–

समझ

चाँद ने आहट दी
चाँदनी बिखेर कर
पलाश झरकर शाख़ से
उलझ गया बालों में
मत्था टेका ईश के आगे
तो रोली लग गई माथे में

हँसी भी सुनी झुमकी के घुँघरू की
काजल भी शरमा कर
आँखों की कोर में अटका रहा
होठों पर रहस्यमयी मुस्कान तैर गई
चकोर-सा चंचल रहा तन
हिरनी-सी कुलाँचें भरता रहा मन

एक टक शून्य में निहारते हुए
एक परछाईं भी दिखी
मेरी परछाईं में घुलती मिलती

मैं बावरी
यहाँ-वहाँ
तुम्हें ढूँढती फिरती रही
और तुम रूह छूते रहे

दुनियावी समझ ज़हन में खुद रच बस जाती है
रूहानी समझ वक़्त निकलने के बाद आती है

—————-

बिछोह

हम तुम कभी पूरा बिछड़ ही नहीं पाए

जो सन्नाटा पसरा है हमारे बीच
उसमें संवाद अब अधिक होता है
तुम मानोगे नहीं
पर जानती हूँ
तुम्हारे साथ भी यही होता है

इस सन्नाटे को यूँ हीं रहने देते हैं
जो बिछोह कभी हो ही न पाया
उसे जस का तस सहेज लेते हैं

———————-

मेरे रंग-बिरंगे पंख

तुम गए तो लगा, साँसे
थम जाएँगी
जीवन रुक जाएगा

तभी दिखा
तितली का बच्चा
अपना खोल तोड़
बाहर आता हुआ
पंख फैला
उड़ जाता हुआ

तुम मेरे जीवन का
एक दर्दीला खोल थे…. बस!

मुझे न,
अपने रंग-बिरंगे पंख
अत्यंत प्रिय हैं

————————

ख़ालिस ख़ुशबू

तुमको मेरी ख़ुश्बू पसंद आई
तुमने कहा, यही परफ़्यूम लगाया करो
और कस लिया आलिंगन में

उस मुलाक़ात की हर याद ताज़ा है ज़ेहन में

साथ ही ताज़ा है रोम-रोम में
तुम्हारी बिना परफ़्यूम वाली
ख़ालिस ख़ुश्बू

——————–

हम-तुम

अहम से न हम उबर पाए, न तुम
अपने बंधन न हम तोड़ पाए, न तुम
तड़प न हम दिखा पाए, न तुम
दर्द से न हम उबर पाए, न तुम
छत पर जा कर चाँद निहारना
न हम छोड़ पाए, न तुम
सच से नज़रें मिलाना
न हम सीख पाए, न तुम
आँखों से आँसू
न हम छलका पाए, न तुम
चलो, मान ही लें कि
वक़्त और हालात से
न हम जीत पाए, न तुम


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