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प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार इब्न-ए-सफ़ी की कुछ ग़ज़लें

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प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासकार इब्न-ए-सफ़ी के बारे में उनके पुराने पाठकों को पता होगा कि वे पहले असरार नारवी के नाम से शायरी करते थे और अच्छे शायर थे। कहते हैं कि एक बार उनके प्रकाशक दोस्त ने उनसे कहा कि उर्दू में ऐसी जासूसी उपन्यासों की बाढ़ आ गई है जो अश्लील होते हैं। ऐसे उपन्यास लिखे जाने चाहिये जो मनोरंजक भी हों और अश्लील भी न हों। शायर असरार नारवी ने यह चुनौती स्वीकार की और इब्न-ए-सफ़ी के नाम से उपन्यास लिखना शुरू किया। उसके बाद जो हुआ सब जानते हैं, आइये आज पढ़ते हैं उनकी कुछ ग़ज़लें- मॉडरेटर
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1
राह-ए-तलब में कौन किसी का अपने भी बेगाने हैं
चाँद से मुखड़े रश्क-ए-ग़ज़ालाँ सब जाने पहचाने हैं

तन्हाई सी तन्हाई है कैसे कहें कैसे समझाएँ
चश्म ओ लब-ओ-रुख़्सार की तह में रूहों के वीराने हैं

उफ़ ये तलाश-ए-हुस्न-ओ-हक़ीक़त किस जा ठहरें जाएँ कहाँ
सेहन-ए-चमन में फूल खिले हैं सहरा में दीवाने हैं

हम को सहारे क्या रास आएँ अपना सहारा हैं हम आप
ख़ुद ही सहरा ख़ुद ही दिवाने शम-ए-नफ़स परवाने हैं

बिल-आख़िर थक हार के यारो हम ने भी तस्लीम किया
अपनी ज़ात से इश्क़ है सच्चा बाक़ी सब अफ़्साने हैं

2
यूँही वाबस्तगी नहीं होती
दूर से दोस्ती नहीं होती

जब दिलों में ग़ुबार होता है
ढंग से बात भी नहीं होती

चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है
चाँद पर चाँदनी नहीं होती

जो न गुज़रे परी-वशों में कभी
काम की ज़िंदगी नहीं होती

दिन के भूले को रात डसती है
शाम को वापसी नहीं होती

आदमी क्यूँ है वहशतों का शिकार
क्यूँ जुनूँ में कमी नहीं होती

इक मरज़ के हज़ार हैं नब्बाज़
फिर भी तश्ख़ीस ही नहीं होती

3
कुछ तो तअल्लुक़ कुछ तो लगाओ
मेरे दुश्मन ही कहलाओ

दिल सा खिलौना हाथ आया है
खेलो तोड़ो जी बहलाओ

कल अग़्यार में बैठे थे तुम
हाँ हाँ कोई बात बनाओ

कौन है हम सा चाहने वाला
इतना भी अब दिल न दुखाओ

हुस्न बना जब बहती गंगा
इश्क़ हुआ काग़ज़ की नाव

शब भर कितनी रातें गुज़रीं
हज़रत-ए-दिल अब होश में आओ

4
बड़े ग़ज़ब का है यारो बड़े ‘अज़ाब का ज़ख़्म
अगर शबाब ही ठहरा मिरे शबाब का ज़ख़्म

ज़रा सी बात थी कुछ आसमाँ न फट पड़ता
मगर हरा है अभी तक तिरे जवाब का ज़ख़्म

ज़मीं की कोख ही ज़ख़्मी नहीं अँधेरों से
है आसमाँ के भी सीने पे आफ़्ताब का ज़ख़्म

मैं संगसार जो होता तो फिर भी ख़ुश रहता
खटक रहा है मगर दिल में इक गुलाब का ज़ख़्म

उसी की चारागरी में गुज़र गई ‘असरार’
तमाम ‘उम्र को काफ़ी था इक शबाब का ज़ख़्म

5
आज की रात कटेगी क्यूँ कर साज़ न जाम न तो मेहमान
सुब्ह तलक क्या जानिए क्या हो आँख लगे या जाए जान

पिछली रात का सन्नाटा कहता है अब क्या आएँगे
अक़्ल ये कहती है सो जाओ दिल कहता है एक न मान

मुल्क-ए-तरब के रहने वालो ये कैसी मजबूरी है
होंटों की बस्ती में चराग़ाँ दिल के नगर इतने सुनसान

उन की बाँहों के हल्क़े में इश्क़ बना है पीर-ए-तरीक़
अब ऐसे में बताओ यारो किस जा कुफ़्र किधर ईमान

हम न कहेंगे आप के आगे रो रो दीदे खोए हैं
आप ने बिपता सुन ली हमारी बड़ा करम लाखों एहसान

(रेख्ता से साभार)


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