पटना में लेखिकाओं की संस्था ‘आयाम’ का तीसरा वार्षिकोत्सव संपन्न हुआ. उसकी एक बहुत अच्छी रपट भेजी है युवा लेखक सुशील कुमार भारद्वाज ने- मॉडरेटर
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आयाम का तीसरा वार्षिकोत्सव गत दिनों पटना के ए एन कॉलेज के सभागार में साहित्यिक गहमागहमी के बीच सफलतापूर्वक संपन्न हो गया। आयोजन जितना सफल रहा उतना ही बहस तलब भी। जहाँ मंच से ही एक वक्ता ने “आयाम” जैसी संस्थाओं पर खाई-अघाई घर की औरतों की संस्था के आरोप की बात की वहीं दर्शक दीर्घा से सवाल उठने लगे कि महिलाओं के मंच पर एक ही सत्र में दो-दो पुरूष वक्ता क्यों? क्या महिला विद्वान नहीं होतीं है अच्छी समीक्षक नहीं होतीं? और सबसे अहम सवाल की आयाम के सदस्यों को मंच पर कविता पाठ का मौका क्यों नहीं?
आयाम का तीसरा वार्षिकोत्सव चर्चा का विषय शहर और सोशल मीडिया पर इसलिए भी बना क्योंकि पहली बार यह मंच आपसी ईर्ष्या-द्वेष के प्रदर्शन का गवाह भी बना जबकि इससे पहले सिर्फ मंच पर बैठने के लिए पैरोकारी की जाती थी।
आयाम- ‘साहित्य का स्त्री-स्वर’ की परिकल्पना को महिला रचनाकारों को एक स्वतंत्र मंच उपलब्ध कराने के उद्देश्य से भावना शेखर, निवेदिता, सुमन सिंहा, अर्चना, सुनीता सिंह आदि ने उषा किरण खान के नेतृत्व में 2015 ई० में मूर्त रूप दिया। आयाम के बैनर तले अक्सरहां कविता-कहानी आदि की गोष्ठी शहर में आयोजित की जाती है। जहाँ पुरूष साहित्यकार भी आमंत्रित किए जाते हैं लेकिन महज दर्शक या टिप्पणीकार के रूप में। लेकिन इस बार के आयोजन में यह परंपरा कुछ टूटी है।
जब प्रथम सत्र में ही वक्ता के रूप में राकेश बिहारी और वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी को प्रस्तुत किया गया तो लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि – “महिला समीक्षकों की कमी थी जो दो-दो पुरूष वक्ता को मंच पर एक साथ उतार दिया गया। जबकि उषा किरण खान महज अध्यक्ष के रूप में मंच पर थी।
जबकि आयाम के दूसरे वार्षिकोत्सव 2017 मेंं भी मंच संचालिका ने स्पष्ट रूप से कहा था – “अब महिलाएं बोलेंगीं और पुरूष सुनेंगें। अब तक पुरूषों ने साहित्य को अपने नजर से प्रस्तुत किया और महिलाओं को हीन साबित करने की कोशिश की। समय आ गया है कि अब स्त्री साहित्यकार के दृष्टिकोण को समझना जाय।”
उद्घाटन समारोह के बाद आयाम की संस्मरणिका और मंगला रानी की कविता-संग्रह का लोकार्पण किया गया। और प्रथम सत्र की शुरूआत करते हुए समीक्षक राकेश बिहारी ने “नई सदी में स्त्री लेखन: संदर्भ बिहार” पर एक सारगर्भित वक्तव्य दिया। जिसमें उन्होंने फिलवक्त की रचना धर्मिता पर अपनी बेबाक टिप्पणी करते हुए समकालीन कहानी की सभी प्रवृत्तियों को वर्गीकृत करते हुए कथाकारों की उनकी कहानियों के साथ चर्चा की। लेकिन जब उन्होंने अपने वक्तव्य में मुजफ्फरपुर की महज तीन कथाकार कविता, पंखुरी सिन्हा का नाम लिया तो सुनने वालों को उनके वक्तव्य में पूर्वाग्रह और पक्षपात की बू आने लगी।
भगवती प्रसाद द्विवेदी के प्रतिस्थापन में आमंत्रित वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने दूसरे वक्ता के रूप में कविता पर अपनी बात रखी लेकिन वे कालिदास के बाद भावना शेखर और निवेदिता आदि समकालीन कवयित्री तक ही सीमित रह गए।
दूसरे सत्र “बाढ़, बारिश और प्रेम” विषय पर केंद्रित कहानियों का विश्लेषण प्रस्तुत किया अपने वक्तव्य में, प्रथम वक्ता चंद्रकला त्रिपाठी ने। और जब दूसरे वक्ता के रूप में गीताश्री मंच पर आमंत्रित हुईं तो अपने ही तेवर में पूरे सभागार में बाढ़, बारिश और प्रेम की बरसा कर दी। अपेक्षित आक्रोश मेंं गीताश्री ने सबसे पहला सवाल दागा कि – “मैं किस हैसियत से इस मंच पर आमंत्रित हूँ?- एक पत्रकार? एक कथाकार या मुजफ्फरपुर की बेटी के रूप में?”
गीताश्री ने प्रथम सत्र के प्रथम समीक्षक वक्ता की ओर निशाना साधते हुए कहा कि ” समीक्षक महोदय किसी कारण विशेष से साहित्य जगत की कुछ जानकारियों से अनभिज्ञ हैं। मुजफ्फरपुर से ही रश्मि भारद्वाज जैसी कवयित्री हैं जो कथा की ओर बढ़ रहीं हैं। लेकिन पुरूष समीक्षक महिलाओं के प्रति पहले जैसे अन्याय करते थे वैसा ही अन्याय अभी-अभी दिख गया।”
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए गीताश्री ने हृषिकेश सुलभ, प्रियदर्शन आदि पुरूष कथाकार की रचनाओं का जिक्र भी महिला रचनाकारों के साथ-साथ किया।
सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रोफेसर तरूण कुमार ने अपने व्यंग्यात्मक अंदाज में कहा कि “हमलोग कमवक्त हो गए हैं।” गंभीरता के साथ तरूण कुमार ने कहा कि “साहित्यकार को कभी-कभी खुद की नजर से देखने के सिवाय दूसरों की नजर से भी देखे जाने की जरूरत है।”
तीसरे सत्र में चित्रा देसाई को सविता सिंह नेपाली ने नेपाली गीत सम्मान 2018 से सम्मानित किया। और सत्र की समाप्ति मृदुला प्रधान, चित्रा देसाई, और अनीता सिंह की कविताओं के साथ हुआ।
संपर्क- sushilkumarbhardwaj8@gmail.com
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