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अजय सोडानी की किताब ‘एक था जाँस्कर’का एक अंश

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पेशे से डॉक्टर और दिल से विशुद्ध लेखक अजय सोडानी को हम उनकी यात्रा वृतांतों और यात्रा रिपोर्ताजों के लिए जानते हैं। हाल ही में उनकी एक नई किताब आयी है ‘एक था जाँस्कर“। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अपनी इस किताब में अजय सोडानी ने मंथर गति में एक समूचा जीवन जीने वाले जाँस्कर और उसके बहाने हिमालय की बर्फीली दुनिया से लोगों को रूबरू करवाया है। आप इस शानदार किताब का एक अंश पढ़िए जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे हिन्दी के महान लेखक अज्ञेय व्यास कुंड गये और वहाँ का पानी पीकर बेहोश पड़ गये। आगे क्या हुआ इसे जानने के लिए अंश को पढ़िए।: मॉडरेटर
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क़िस्सों भरा उड़नखटोला

गाड़ी रोटांग सम्त बढ़ रही है। कह चुका कि सड़क पेचदार है। लिहाज़ा मोटर कौन दिशा में जा रही, समझ नहीं पा रहा। लग रहा जैसे वह कई दिशाओं में एक साथ चलती होअपन का ध्यान किन्तु सड़क की दाहिनी ओर ही है। मुसलसल दाहिने ही। और ऐसा करना मेरी मज़बूरी ठहरी। जबसे डिरायवर बाबू ने बताया कि रोटांग के नीचे बन रही सुरंग सड़क के बाईं तरफ़ दिखेगी, तब से दीठ उस ओर घूमती ही नहीं। कि हिमालयउदर को छिदता कैसे देखूँ?

लेकिन औरों को तोहमत क्यों देना जबकि मैं भी हिमालयउच्छेदन कर रहा। हड़प रहा अपने दाहिनी ओर का हिमाला नज़रों से। यानी, जिसे मैं देख रहा गिरिराज का उतना टुकड़ा अब मेरा हुआ। और मेरे हक़ के हलक़े में बरफ़ नहीं है। पेड़ होने का तो सवाल ही नहीं उठता। भारी बदन दरख़्त इतनी ऊँचाई पर चढ़ जो नहीं पाते।जीरोफिगरघास का कहीं भी पहुँचना मगर सम्भव। सो वह इधर भी है। पर कहींकहीं।

जहाँ घास है वहाँ और जहाँ घास नहीं वहाँ भी पत्थर हैं। कुछ औंधे पड़े डेंडला रहे। तो कुछ पीठ के बल लेटे टुकुर रहे हैं आसमाँ । पत्थर मगर एक से नहीं। कुछ हैं ढेलेनुमा तो कुछ बड़े भी। चुनिन्दा तो इतने बड़े कि उन्हें चट्टान बुलाना बेहतर। माननेवाले इन पत्थरों को शिवरोहतांग कथा का प्रमाण जानते हैं। सनद रहे कि वे ढेले भी मेरे ही हैं। चट्टानें भी मेरी। मेरे माशूक पर ख़लाई जन की निशानियाँ हैं ये, इन्हें कोई हाथ न लगावे। प्लीज़!

और हाँ, घास पर पसरे पत्थरों की बात से कहीं आप यह न समझ लेना कि मेरी वाली ज़मीन यकसार है। नीरस है। समतल है। न। वह तो है कुमार गन्धर्व के भजनों कीसी लहरिल और रसीली। सीधेसीधे कहूँ तो रोहतांगमहल्ले में मेरा जो हिस्सा है। वहाँ अनेक छोटेबड़े टीले पठार हैं। जिनका सरपरस्त है नीलानहींनीलाकच्च आसमाँ। मेरी ज़मीन और नीले आसमाँ के दरमियाँ हैं बदलियाँ। अफ़ीमपुष्पों की सी धवल बदलियाँ। नशे का सामान। आँखों से आत्मा में उतरनेवाला चंड। चार पल थमकर निहारो, चार जनम झूमते गुज़ारो! निस्तीर्ण नभ तो ख़ैर दुनिया भर का है। साझा है। किन्तु बाबू लोगो, चंडूफ़रोश बदलियाँ मेरी हैं। बस मेरी।

दो बरस पहले इस धरती को, इन पर्वतों को, देखा थाऊपर से उड़नखटोले में बैठेठाले। उस दृश्य ने आनन्द तो दिया मगर सन्तुष्टि नहीं। गोकि परबत जान पड़े नेशनल ज्युग्राफी पत्रिका में छपे चित्र सरीखे मनमोहक। सुन्दर। मगर बेजान। तोशाख़ानों में सजे बाघ हों जैसे। आज किन्तु सन्तुष्ट हूँ। कि उन्हीं परबतों से सट के गुज़र रहा। देख रहा उन्हें इतने क़रीब से कि उनकी हर श्वासनि:श्वास महसूस हो रही अपने कपोलों पर।

एक इच्छा जाग रही है मन में। उड़ने की इच्छा। वायुयान जितना नहीं, बस वितना ऊँचा कि एकमुश्त देख सकूँ अपने हिस्से के गिरिराज कोनखशिख। सँजो सकूँ यादों में उसका हरेक तिल। तमाम पेचोख़म। पर हाय! कि हाय! हाय!! कितना बेबस है आदमी। हम लोगन से तो पाखी भले। मन करे तब नज़दीक आ जावो, दिल करे तब ऊपर से देखो सारा जहाँ। काश कि मैं खेचर होता। डैने होते मेरे। जाता ऊपर। देखता उधर से इधर का मंज़र। कैसी दिखती मेरी ज़मीन वहाँ से? शायद कि अंगूरगुच्छ सी दानेदार! या फिर पके सीताफल जैसी गद्दर!! यह सब देखदाख के उतरता नीचे। दुम हिलाता किसी चट्टान पे बैठ। गुनगुनाता बदरियों से सीखे गीत। जैसा कि पाखी किया करते हैंनिःसर्ग से सीखे गीत सुनाते हैं दुनिया को। उड़उड़। घूमघूम।

सच कहूँ, कभीकभी बहुत ख़लता है डैनों का न होना

सामनेसड़क से थोड़ा हटकरजहाँ ज़मीन पर हल्की घास है, वहाँ सटे सटे दो टीले हैं। नापजोख में एक से, उलटे धरे भरतियों केसे टीले । घास से अधढ वो टीले ऐसे जान पड़ रहे जैसे तोतारंगी तंग कंचुकी से झाँकते पुष्ट उरोज। इन दिलक़श टीलों के बीच एक दुमदार शिला है। जैसे स्तनअन्तराल में झूलता लाकिट। लाकिट के दूसरे छोर से सटा खड़ा है एक गुम्बद। उसे देख उड़नखटोले का गुमान हो रहा। चबूतरे पर धरा विशाल उड़नखटोला।

अपर्णा को बोलते सुना– “सोनी गाड़ी रोकवाओ, उधर कुछ है!”

गाड़ी रुकी। हम उतरे। सब उतरे।

चारपाँच सौ क़दम की हल्कीफुल्की ऊँचाई काट पहुँचे चबूतरे के पास। मिली गुम्बद तक पुगने वास्ते बनी पैड़ियाँ । जहाँ पैड़ी ख़त्म हो रहीं, वहाँ एक पाटी है। जिसपे लिखा है– ‘व्यास ऋषि मन्दिर। व्यास ऋषि तपस्थली! महाभारत व वेदों की सृजना स्थली।ब्याऽऽस ऋऽऽषि मन्दिऽऽरवाह! क्या बात है!

सोचा, चौदह टप्पे वाली यह पैड़ी तो सेतु है। युगलंघन का सामान है। जहाँ मैं खड़ा हूँ, कलिकाल की इस धरती से उस युग की भूमि को जाती पैड़ी जिधर ऋषि व्यास साधनारत रहे। दूसरी तरह से कहूँ तो इन चौदह टप्पों की यात्रा विषार जावेगी निष्ठुर बौद्धिक जगत से सुकोमल भावसंसार में।

तर्क बाणों से भरा तरकश मैंने फेंक दिया है परे। अब मैं निहत्था कर रहा हूँ।

युगलंघन ! मन मेरा भीज रहा हैभावातिरेक से….

अपर्णा व्यासमन्दिर के चबूतरे पर बैठी है।

दर्शनबाद, कुछ पलों के लिए ही सही, वह मन्दिर की पैड़ी पर बैठती ही बैठती है। जैसे अभी बैठी है। और उसके पास बैठा हूँ मैं। वहाँ बिखरे पत्थरों को सहलाते हुए।

ये क्या कर रे हो?,” अपर्णा ने पूछा।

कुछनीं

भाटों को ऐसे चुमकार रहे जैसे कोई बच्चे को समझाता हैकुछ तो चल रहा है दिमाग़ में…”

बस यूँ ही, कुछ सोच रहा था।

क्या? “

कुछ ख़ास नहीं… “

फिर भी…” “ यह धरतीइस जगह की भूमि…. कितनी भरीपूरी हैकितने बहुत से अफ़साने

वाबस्ता हैं इससेजैसे व्यास ऋषि की तप वाली बात, जो इस पाटी पर लिखी ही है…,” बोर्ड की ओर देखते हुए मैं बोला।

तुम भी किन बातों पर भरोसा कर बैठे? ये सारी तो बनाई बातें हैं….” अपर्णा आँखें मटकाते हुए बोली।

मुझे कोई माकूल जवाब सूझता उसके पहले ही सोनी बीच में बोल पड़ा,

सरमैडम ठीक ही तो बोलती हैं। यह कुंड तो फ़र्ज़ी है, टूरिस्टों को बुलाने के लिए बनाई जगो है….

फ़र्ज़ी?”

और नहीं तो। सर ध्यान है माणा गाँव, वहाँ भी एक व्यासगुहा देखी थी हमने। उसके साथ भी सेम टु सेम टाइप की स्टोरी जुड़ी है…”

मैं बोला, “सोनी, महज़ माणा ही क्यों वेदव्यास की कहानी की वाबस्तगी तो और जगहों से है। उत्तर प्रदेश के सीतापुर में व्यास गद्दी है, उड़ीसा के राऊलकेला में वेदव्यास धाम है, केरल के कोट्टायम में वेदगिरि है

फिर तो यह सिद्ध हुआ कि यह व्यासकुंड फ़र्ज़ी है तथा व्यासकथा मनगढ़न्त,” अपर्णा ने मेरी बात काटी।

हाँ यह हो सकता है। मगर यह भी तो सम्भव है कि वेदव्यास की दीगर गोशों में मौज़ूदगी इस कहानी के जनमानस में मज़बूत पकड़ की रसीद हो। आम यक़ीन के मुताबिक वेदव्यास उर्फ़ कृष्णद्वैपायन व्यास ने महाभारत के साथ जनस्मृति में बिखरी वेदादि ग्रन्थों की ऋचाओं का संकलन भी किया। तो क्या यह नहीं हो रचना स्थल हों? तो क्या यह नहीं हो सकता कि व्यास संग जुड़े अन्यान्य स्थान इन दूसरे ग्रन्थों के रचना स्थल हों? वैसे भी अफ़साने तारीख़ के पुख़्ता दस्तावेज़ नहीं होते। अलबत्ता उनमें तवारीख़ी के इशारे हो सकते हैं।

जैसे गेंदे की माला में चम्पा का फूल। कहानी जानदार है तभी तो बरक़रार है! इस करके ही तो लोग वेदव्यास की शिनाख़्त में आज तलक मशगूल हैं। बता दूँ कि दानिशमन्द लोग कृष्णद्वैपायन को ज़ेहनी पैदाइश नहीं आदमी की औलाद मान चुके हैं…”

तुमने तो बात को कहाँ का किधर पहुँच दिया। मुद्दा इस कुंड के झूठे होने का था। इसी पे टिके रहो और इधर लगी इस पाटी को देखोऔर देखो इस गुम्बद कोइसकी बनावट पर ध्यान दोक्या ये सब टटका नहीं जान पड़ते?,” अपर्णा ने मेरी बात काटी।

किन्तु भीतर रखी मूरत तो जूनी है। बनी बात है कि विश्वास, ऋषिगल्प में विश्वास, तो इस विग्रह से भी जूना होगा।

यह कैसे मालूम पड़ा तुमको?”

अब से कुछ दो सौ बरस पहले की बात है। जब ईस्ट इंडिया कम्पनी से जुड़ा विलियम मूरक्राफ्ट ठीक वहीं खड़ा था जहाँ अभी हम बैठे हैं। तब उसने, अपने पीछे जो दुमदार शिला है, उसके नीचे से निकलती एक दुर्बल जलधारा देखी। और शिला से सटी, उस जलधारा के निकास बिन्दु पर धरी, ठोस पत्थर पर काटी गई, एक मूरत को भी संज्ञान में लिया। मूरत जिसेबियास ऋषि की मूर्तिकह मूरक्राफ्ट ने अपनी रिपोर्ताज में जगह दी। वह ईसाई मानुष इस जगह से ऐसा प्रभावित हुआ कि उसने

मूरत और कंड के गिर्द पत्थरों का एक परकोटा बनवा दिया। कच्चा परकोटा। और हाँ, मूरक्राफ्ट ने तब इस जगह को बियास नदी का उद्गम स्थल भी बताया था।

अच्छाआगे?”

एक अद्भुत बात बताऊँ? मूरक्राफ्ट के यहाँ उन पुष्पों का भी ज़िक्र मिलता है जो उसकी आमद से पहले ही ऋषिमूरत पर धरे हुए थे।

इससे सिद्ध क्या हुआ?”

तनिक सोचो तो कि इस बियाबान में, जो तब और भी अधिक वीरान रहा होगा, पुष्प किधर से आए? फूल चढ़ानेवाले किधर से आए? अब बस्ती से इतनी दूर पूजाशूजा के लिए तो कोई आने से रहा । बनी बात है कि रोटांग फाँदने के इच्छुक पूजा की तैयारी संग इधर आते होंगे। यानी मूरक्राफ्ट के पहले से ही लोगों को इस मूरत व कुंड की ख़बर थी…”

रुकोरुको….हो सकता है यह मूरति उस आदिम परिपाटी की द्योतक हो जिसके चलते लोग कठिन जगहों पर रक्षकदेवता बैठाया करते। तथा वहाँ से गुज़रते समय देवता को भेंट चढ़ातेजैसे कि अपने यहाँ का टंट्या भील….”

चलो, यही सही। मगर उस रक्षक का नाम व्यास ऋषि होना मूरक्राफ्ट के कहे से सिद्ध है। सार यह कि व्यास ऋषि मूरत दो सौ बरस से कहीं उधर की है।

हुँऔर?”

औरमूरक्राफ्ट देखी वह मूरत आज भी गुम्बद में विराजित है। फूलचूनर आदि से ढँपी होने से जिसे अपन बरोबर देख नहीं पाए। और गुम्बद भीतर का वह कुंड भी वही है जो उस ब्रितानी ने देखा थाअलबत्ता अब उसे पक्का कर दिया गया हैलेकिन है वो वह हीदेखो तो दिखेगी तुमको मूरक्राफ्ट की बताई जलधारा, जिसका जल कुंड में कुछ देर ठहर आगे को बढ़ जाता है।

वसिष्ठ कथा वाली विपाशा नदी इसी कुंड से निकलती हैयही कहा था न तुमारे मूरक्राफ्ट ने?”

हाँ!, पर मूरक्राफ्ट के आए तक विपाशा अपना नाम बदल चुकी थी। वह कहाने लगी थी व्यास नदी। व्यास कुंड से निकली सो व्यास नदी। मूरक्राफ्ट से अब तक के सफ़र में न जाने कबआधेके पेट में फँसी डंडी धसकी औरव्यासनदीव्यासनदी कहलाने लगी। समयान्तर से इस नदी के उद्गम स्थल को लेकर संशय भी उपजा। ढुढ़क्कड़ों ने एक दूसरी जगह तलाशी है। जिसे अज्ञेय सहित अन्य महानुभावव्यास मुनिबुलाते हैं। और व्यास नदी का उत्सस्थल भी बताते हैं।

वाह! सर और कौन सी कहानी जुड़ी है इधर से…,” सोनी ने पूछा।

सोनी ! यह जगह कवियों को भी ख़ूब सुहाई । केदारनाथ सिंह ने तो एक पूरी कविता कही है इस पर। अज्ञेय बाबू के जीवन में भी व्यास कुंड की पैठ है…”

अज्ञेय के भी!,” अपर्णा चिहुँकी।

और नहीं तो। बाबू साब ठीक यहीं पड़े हुए थे। लगभग बेहोश। सन्निपात की अवस्था में। यह साल 1934 का वाक़िया है। तब वे मनाली से निकले और सिर्फ़ एक रात विश्राम कर अगले दिन रोहतांग पर धावा बोल दिया। लापरवाही में साथियों से बिछुड़े। थकान लगी तो दारू पी ली। वो भी ख़ाली पेट। एकले ही चलते रहे। भटकतेभटकाते इस जगह पहुँचे। लस्त पस्त तो थे ही। सो कुंड का पानी पीया और लेट गए। यहीं कहींयहीं ही कहींलेटेऔर सुधबुध खो बैठे। भला हो कि इधर से गुज़रते किसी मनक की निगाह उन पर पड़ी सो जान बची। वगरना

पानी पीते ही होश खो गए! तो क्या इस कुंड का जल अपकारी है?”

नहींबल्कि जान पड़ता है अज्ञेय बाबूहाई अल्टीट्यूड सिकनेसके शिकार हुए थे। पर्वतारोही को क़तई मना तीन हरकतें उनने कीं। पहलीहड़बड़ी; दूसरीभोजनपानी की अनदेखी; और तीसरीमयनोशी।

सच में यह कुंड तो कहानियों से अँटा हैबड़े महत्त्व की जगह है यह….,” कहते हुए उसने गुम्बद को नेह भरी नज़र से देखा। उठी। और चल दी गाड़ी की ओर


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