नीरज जी को श्रद्धांजलिस्वरूप यह लेख लिखा है युवा कवयित्री उपासना झा ने- मॉडरेटर
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श्री गोपालदास नीरज हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में एक थे. कविता, प्रेमगीत, दोहों, मुक्तक, गजल सब विधा में उन्होंने खूब लिखा. काव्य-समारोहों में उनकी अपार लोकप्रियता ने उन्हें अपने समय के सबसे ज्यादा पढ़े और सुने जाने वाले कवियों की श्रेणी में कर दिया. बच्चन जी के बाद उन्होंने ही हिंदी की मंचीय कविता को गौरववान बनाये रखा. पिछले 60-70 सालों से मंचीय आयोजनों में उनकी उपस्थिति लगातार बनी रही. नीरज प्रेम के मौलिक कवि थे उर्दू से उधार लिए हुए इश्क़ का कोई प्रभाव उनकी कविताओं पर नहीं दीखता है.
गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ का जन्म 4 जनवरी 1925 में इटावा जिले (उत्तर प्रदेश) के पुरावली गाँव में बाबू ब्रजकिशोर सक्सेना के यहाँ हुआ था. बहुत कम आयु में पिता का देहांत हो गया. 1942 में एटा से हाई स्कूल परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर आगे की पढाई में भी बढ़िया अंकों से पास होते रहे. शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर नौकरी की। लम्बी बेकारी के बाद दिल्ली जाकर सफाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी की. वहाँ से नौकरी छूट जाने पर कानपुर के डी०ए०वी कॉलेज में क्लर्की की। फिर बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पाँच वर्ष तक टाइपिस्ट का काम किया। नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएँ देकर 1949 में इण्टरमीडिएट, 1951 में बी०ए० और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एम०ए० किया।
‘नीरज’ का कवि जीवन विधिवत मई, 1942 से प्रारम्भ होता है। जब वह हाई स्कूल में ही पढ़ते थे तो उनका वहाँ पर किसी लड़की से प्रणय सम्बन्ध हो गया। दुर्भाग्यवश अचानक उनका बिछोह हो गया। अपनी प्रेयसी के बिछोह को वह सहन न कर सके और उनके कवि-मानस से यों ही सहसा ये पंक्तियाँ निकल पड़ीं:
कितना एकाकी मम जीवन,
किसी पेड़ पर यदि कोई पक्षी का जोड़ा बैठा होता,
तो न उसे भी आँखें भरकर मैं इस डर से देखा करता,
कहीं नज़र लग जाय न इनको।
और इस प्रकार वह प्रणयी युवक ‘गोपालदास सक्सेना’ कवि होकर ‘गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ हो गया। पहले-पहल ‘नीरज’ को हिन्दी के प्रख्यात लोकप्रिय कवि श्री हरिवंश राय बच्चन का ‘निशा नियंत्रण’ कहीं से पढ़ने को मिल गया। उससे वह बहुत प्रभावित हुए था। इस सम्बन्ध में ‘नीरज’ ने स्वयं लिखा है –
‘मैंने कविता लिखना किससे सीखा, यह तो मुझे याद नहीं। कब लिखना आरम्भ किया, शायद यह भी नहीं मालूम। हाँ इतना ज़रूर, याद है कि गर्मी के दिन थे, स्कूल की छुटियाँ हो चुकी थीं, शायद मई का या जून का महीना था। मेरे एक मित्र मेरे घर आए। उनके हाथ में ‘निशा निमंत्रण’ पुस्तक की एक प्रति थी। मैंने लेकर उसे खोला। उसके पहले गीत ने ही मुझे प्रभावित किया और पढ़ने के लिए उनसे उसे मांग लिया। मुझे उसके पढ़ने में बहुत आनन्द आया और उस दिन ही मैंने उसे दो-तीन बार पढ़ा। उसे पढ़कर मुझे भी कुछ लिखने की सनक सवार हुई।…..’
मेरठ कॉलेज मेरठ में हिन्दी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य भी किया किन्तु कॉलेज प्रशासन द्वारा उन पर कक्षाएँ न लेने व रोमांस करने के आरोप लगाये गये जिससे कुपित होकर नीरज ने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गये और मैरिस रोड जनकपुरी अलीगढ़ में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे।
नीरज ने ख्याति के सोपानों को छूना पाँच दशक पहले ही शुरू कर दिया था. कविता के मंचों पर तब बच्चन जी, गोपाल सिंह नेपाली, बलवीर सिंह, देवराज दिनेश, शिवमंगल सिंह सुमन और शम्भुनाथ सिंह का राज चलता था. युवा और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी नीरज पर काव्य-रसिकों की नजर गयी और धीरे-धीरे वे सबकी आशाओं के केंद्र बन गए. अपनी लोप्रियता से आश्वस्त होकर नीरज ने स्वयं कहा था “ अब ज़माने को खबर कर दो नीरज गा रहा है”
हजारों की भीड़ के सामने अपनी दर्द भरी आवाज़ में सुरीले कंठ से जब नीरज कविता-पाठ करते थे तो सुनने वाले झूम-झूम जाते थे. लोगों को लगता था कि उनकी आकांक्षाओं और व्यथाओं को स्वर मिल गया हो. नीरज अपनी कविता से एक नया युग लिखने जा रहे थे.
उनकी अपार लोकप्रियता की ख़बर फिल्म नगरी में भी पहुँच गयी. ‘नयी उमर की नयी फ़सल’ उनकी बतौर गीतकार पहली फिल्म थी. १९६५ में रिलीज़ हुई इस फिल्म में उनका लिखा गीत ‘देखती ही न रहो तुम दर्पण’ बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद उन्होंने कई फिल्मों में गीत लिखे. नीरज जी को फ़िल्म जगत में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्नीस सौ सत्तर के दशक में लगातार तीन बार यह पुरस्कार दिया गया। उनके लिखे गये पुररकृत गीत हैं-
• 1970: काल का पहिया घूमे रे भइया! (फ़िल्म: चन्दा और बिजली)
• 1971: बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ (फ़िल्म: पहचान)
• 1972: ए भाई! ज़रा देख के चलो (फ़िल्म: मेरा नाम जोकर)
इन गीतों के अलावा भी नीरज ने कई मधुर गीत की रचना की और स्टार गीतकार माने जाने लगे. कहा जाता है की फ़िल्मी गीतों में नीरज से पहले और तो सब था बस प्रेम नहीं था. नीरज ने प्रेम को मानों परिभाषा दी जब उन्होंने लिखा “ शोखियों में घोली जाए थोड़ी सी शराब, उसमें मिला दी जाए फूलों का शबाब, फिर इस तरह होगा जो नशा तैयार, वो प्यार है”. उनके अन्य मधुर गीतों में ‘फूलों के रंग से दिल की कलम से तुमको लिखी रोज़ पाती, आज मदहोश हुआ जाए रे, दिल आज शायर है, जीवन की बगिया महकेगी, खिलते हैं गुल यहाँ, मेघा छाये आधी रात जैसे कर्णप्रिय और सफल गीत लिखे.
इस सफलता के साथ ही नीरज ने अपने प्रति ईर्ष्या भी अर्जित की. समीक्षकों और आलोचकों नीरज को वह महत्व नहीं दिया, उनपर बराबर सम्मेलनी कवि होने का आक्षेप लगता रहा. उन्हें नयी चेतना से बेखबर बताया गया. उस समय के अधिकांश गीत कवियों को ‘गीतकार’ कहकर एक उपेक्षा भाव का प्रदर्शन किया गया. उस उपेक्षा की गंध ने नीरज के अहम को चोट पहुचाई. उन्होंने भी मात्र प्रयोगशील छंद विहीन और व्यक्तिवादी कविता के प्रति आक्रोश प्रकट किया और यह लिखा
“दोस्त! तुम ठीक ही कहते हो
सचमुच मैं कवि नहीं हूँ
होते हैं कवि, वे नहीं गाते हैं
दुखी-दलित जनता के पास नहीं जाते हैं
जाते भी हैं तो शर्माते हैं.
नीरज कविता की परंपरागत शैली जिसमें लयबद्धता और छंद हैं को बचाए रखने की अपील भी करते हैं. पाश्चात्य प्रभाव के कारण आई छ्न्द्विहिनता के वे खिलाफ हैं. नीरज का मानना था की जो कविता दर्द पर मरहम न रख सके वह कविता नहीं है.
“ दुनिया के घावों पर जो मरहम न बन सके, उन गीतों का शोर मचाना पाप है”
मुक्तिबोध ने “एक साहित्यिक की डायरी” में लिखा है की उनकी पत्नी को नीरज की कवितायेँ पसंद हैं वहीँ अशोक वाजपेयी ने विदेश जाकर पाया कि लोग कवि के रूप में केवल नीरज का नाम जानते हैं. नीरज के गीत और कवितायेँ सार्वजनीन हैं जिसमें प्रेम की लय, संवेदना और मनुष्यता का मिला हुवा स्वर है.
जिस दौर में गज़ले कही जा रही थी उस दौर में भी नीरज ने गीतिकाएं लिखी और खुद को हिंदी-उर्दू के विवाद से दूर रखा. भावप्रवणता और आम बोलचाल की शब्दावली उसकी विशेषताएं हैं. अपने एकमात्र गज़ल-संकलन “नीरज की गीतिकाएं” में भी अपना मन्तव्य स्पष्ट करते हए उन्होंने लिखा भी है: मेरे इस संकलन में ऐसी काफ़ी गजलें हैं जो उर्दू के छंद विधान पर खरी उतरती हैं, मगर साथ ही कुछ ऐसी भी गजलें हैं जो गीत ज्यादा हैं. ये न शुद्ध रूप से गीत हैं न ही ग़ज़ल इसलिए मैंने इन्हें गीतिकाएं कहा है.
नीरज के कई कविता-संग्रह भी छपे जो इस प्रकार हैं
• संघर्ष (1944)
• अन्तर्ध्वनि (1946)
• विभावरी (1948)
• प्राणगीत (1951)
• दर्द दिया है (1956)
• बादर बरस गयो (1957)
• मुक्तकी (1958)
• दो गीत (1958)
• नीरज की पाती (1958)
• गीत भी अगीत भी (1959)
• आसावरी (1963)
• नदी किनारे (1963)
• लहर पुकारे (1963)
• कारवाँ गुजर गया (1964)
• फिर दीप जलेगा (1970)
• तुम्हारे लिये (1972)
• नीरज की गीतिकाएँ (1987)
उनके जाने से हिंदी कविता की सबसे बड़ी कड़ी विलुप्त हो गई. वह कड़ी जो साहित्य और लोक को जोड़ने वाली थी, जो कविता और जन को जोड़ने वाली थी. नीरज का जाना एक बड़ी परंपरा का अवसान है.
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