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दीपा मिश्रा की कविताएँ

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दीपा मिश्रा की कविताएँ उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती हैं जिनके मन में कई ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर वह इस समाज से चाहती हैं लेकिन वे उत्तर भी उन्हें नहीं मिलते हैं। साथ ही उनकी कविताएँ में यह स्पष्टता भी है कि स्त्रियों के लिए प्रेम, जो कि सबसे सहज अनुभूति है, उसकी ही अभिव्यक्ति कर पाना उनके लिए सहज नहीं है। प्रस्तुत हैं उनकी सात कविताएँ- अनुरंजनी

1. माँ नदी बन गई

यह मेरा दुर्भाग्य ही था कि
मेरे पहुँचने तक न माँ का देह बचा था
और न ही कोई अवशेष
देह को पिता अग्नि को समर्पित कर चुके थे
और अवशेषों को गंगा में परिवार के लोगों द्वारा प्रवाहित करा दिया गया था

मैं जब पहुंची तब आंगन में
बस एक घट टंगा था
जिसे दिखाकर मुझे प्रणाम करने कहा गया
वहां बैठे पुजारी कोई मंत्र पढ़ रहे थे
और मेरे पिता मेरी माँ को ‘प्रेत’ कहकर संबोधित कर रहे थे

मैं जोर से चिल्ला उठी!
‘मेरी माँ प्रेत नहीं है !’
सभी ने मुझसे नाराजगी जताई
उस समय शोर नहीं करना था
मैंने चुपचाप घट को प्रणाम किया
लेकिन मैं बहुत सी चीजें नहीं स्वीकार पाई

घर में जो आते उसके सुहागन
स्वर्ग सिधारने का गुणगान करते
यहाँ तक कि घर के लोग भी
कहते इस कुल का भाग्य है कि
सभी सधवा गईं
मैं तिलमिला उठती थी
स्त्रियों के जाने का भी शोक नहीं मनाया जाता क्या!

बेटी होकर ही मैंने माँ का दर्द समझा
वैसे बेटियों के भाग में माँए कम ही आतीं
मैं उस घर में माँ बिना नहीं रह सकी
उसको प्रेत कहना मुझे तोड़ता रहा
उसे नदी तट बहुत प्रिय था
माँ प्रेत नहीं जरूर नदी बनी होगी
मैं माँ को अब तलाशने चल पड़ी
गंगा, कावेरी, कपिला, शिप्रा,
नर्मदा, कोसी, कमला में माँ दिखी

कोई भी माँ प्रेत नहीं बन सकती
माँ, अब नदी बन गई है !

2. शब्द-कल्प

तुम्हें अपने निकट रखने के लिए
मेरे पास और कोई भी साधन नहीं
है बस तो मेरी कविता
जहाँ बेझिझक तुम्हें बुला लेती हूँ
जब भी तुमसे मिलने की चाह होती

मैं तुम्हें प्यार करती यह कहना कितना सहज है वहाँ
तुम्हें छूना भी वहाँ मुझमें कोई संकोच नहीं भरता
तुम्हारा हाथ थाम देर तक झील की ओर निहारती रहती
महसूस करती तुम भी मेरी ओर देखते
जैसे तकता रहता आकाश धरती की ओर बिना पलक झपकाए

तुम्हारे कांधे पर सिर टिकाकर शाम को ढ़लते देखने की चाह और कहाँ पूरी करूँ बताओ
कैसे कहूँ तुमसे कि देखो मेरे मन के दागों को और पोंछ डालो अपने चुंबन से
नियम कायदों से बंधे इस जीवन में सबसे दुरूह है किसी को चाहना

इस चाह का कोई भी नाम नहीं
मैं बस तुम्हारा साथ चाहती
वहाँ मैं तुमसे वे सारी बातें बेझिझक कह देती हूँ जिसे किसी से कहने से पूर्व सौ क्या हज़ार दफ़ा सोचती थी पहले
मैं तुम्हारे साथ मैं बन जाती हूँ

मेरी कविता में मुझे तुमसे प्रेम करने के लिए
कोई कानूनी बाध्यता नहीं
न ही तुमसे मिलने पर किसी को कोई
आपत्ति
वहाँ मैं तुम्हारी आत्मा में खुद को तलाशने लगती
अपने वजूद को तुममें खिलखिलाते देख, स्वयं को भरपूर जीती हूँ
कभी मन करता तो तुम्हें गले लगाकर खूब रोती हूँ

मैं तुम्हें अपनी कविता में बुलाती रहूँगी
प्रेम से रिक्त होती जा रही इस दुनिया में
तुमसे मिलने का एकमात्र सुरक्षित स्थान
मेरे लिए मेरी कविता ही है
बस तुम वहाँ आते रहना।

3. मत करना इतना प्रेम

तुम कभी मुझसे इतना प्रेम मत करना
कि प्रेम के उस उन्माद में डूब मैं
‘मैं’ से ‘तुम’ बन जाऊँ
मेरी पहचान, मेरा व्यक्तित्व सब तुममें सिमट जाए
मैं अपने सपनों को तुम्हारी और हमारी संतानों के
भविष्य संग टांककर टकटकी लगाए बस
दिवास्वप्न देखती रहूँ
मत करना इतना प्रेम

इतना प्रेम मत करना कि मेरा ही घर मुझे एक कैदखाना सा लगने लगे
उसे ऐसा रखना जिसके
हर कमरे में मैं अपनी इच्छाएँ रख सकूँ
देहरी, दरवाजा, चौखट ऐसा कि
जब जी चाहे भीतर से बाहर
बाहर से भीतर बिना प्रश्न,
बिना रोक-टोक आ जा सकूँ
मेरे आलता लगे पैरों की छाप की
निशानियाँ जहाँ हो रहने देना
बिछुए, पायल, कंगन, चूड़ी बोझ लगने लगें ऐसा प्रेम मत करना

इतना प्रेम भी नहीं करना कि
मेरे मन में किसी अन्य के प्रति कोमल भाव उभरे और उसे मात्र उन चरम क्षणों के लिए अपने भीतर छिपा लूँ
हमारे प्रेम को उतना सहज रहने देना
कि हम बाँट सकें एक दूसरे संग
अपने उन रहस्यों को
हम व्यक्त न कर सकें, स्वीकार न कर सकें
हृदय की बातें
हमारा प्रेम मौन हो जाए
कभी भी इतना प्रेम मत करना

इतना प्रेम भी नहीं कि मैं सभी संबंधों को भूलकर सिर्फ तुम्हारे प्रेम की वंशी बजाती
राधा-मीरा बन जाऊँ
न मुझमें सीता, यशोधरा सदृश त्याग का सामर्थ्य है और न ही
अहल्या सदृश पाषाण बन जीवन भर अपराधबोध संग बिताने का साहस
तुम्हारे प्रेम से मेरे भीतर की स्त्री
‘स्त्री’ होने की छटपटाहट संग घुट-घुट कर जीती रहे
देह संग मन की सभी परतों को मैं उतार सकूँ
मुझसे बस इतना प्रेम करना।

 

4. दित्सा

मैं एक इच्छा पत्र
लिखना चाहती हूँ
मेरी संपत्ति मेरे जीते जी
एकमात्र मेरा शरीर ही रहा
जिसे तुमने अपनी इच्छा से भोगा
तुम भूल गए कि इस शरीर में
एक हृदय भी रहता था
जिसे परंपराओं और प्रथाओं के भय से
मैंने धड़कने की कभी इजाज़त ही नहीं दी
संपत्ति के नाम पर न नैहर की मैं अधिकारिणी रही
न ही ससुराल की संपत्ति में मेरे लिए कुछ लिखा गया
वहाँ सबकुछ पिता का, भाई का रहा
यहाँ सबकुछ तुम्हारे, पुत्रों के हिस्से आया

हाँ, मेरे हिस्से में कभी प्रेम आया था
जीते जी जो कभी नहीं स्वीकार कर पाई
तुम्हारा इसमें कोई दोष न था
वह दीवार मेरे संस्कारों ने बना रखी थी
बड़े होने से पूर्व ही पाप पुण्य का इतना पाठ पढ़ा दिया गया कि
प्रेम को भी मैं जीवन पर्यन्त अनैतिक ही मानती रही
अब जाते जाते कम से कम एकबार
उसे महसूस करने की चाह जगी है

परन्तु अब अंतिम समय में मैं
मोह भी जगाना नहीं चाहती
न दोषी बनना चाहती तुम्हारी
तुम इतना भर कर देना
बस थोड़ी देर के लिए
मेरे मृत देह को मेरी संपत्ति रहने देना
जब तक तुम मेरी चिता की तैयारी करो
मेरे मृत शरीर को क्षणभर ही
सौंप देना मेरे उस प्रेमी को
जिसे जीवन भर मैंने छूने भर की भी इजाजत न दी
लिपटकर रो लेने देना उसे जीभर मुझसे
कहना एक स्नेहसिक्त चुंबन मेरे माथे पर अंकित कर दे

अधिक देर उसे मेरे निकट मत रहने देना
क्या पता प्रेम से आप्लावित उसका रूदन सुनकर
हृदय का स्पंदन लौट लाए
विदा कर देना अतिशीघ्र उसे
वह चुपचाप चला जाएगा
ठीक उसी तरह जैसे तब रिक्त हस्त
मैंने भेज दिया था
कम से कम इस बार खाली नहीं लौटेगा

फिर गंगाजल से पोंछ देना मेरा मस्तक, सिंदूर से सजा देना मेरे भाल को
उस क्षणभर के किए पाप का प्रायश्चित भी यहीं कर जाऊँगी मैं
सुनो बस यह भार तुम्हें सौंपे जा रही
यही मेरी अंतिम इच्छा
यही मेरी दित्सा।

5. बैरागी

रात्रि की नीरवता में तुम्हारी यादों के
अलाव जलाकर
तन-मन को तचती बैठी हूँ
आग की लपटें ऊपर तक उठती हैं
रह-रह कर चिनगारी दूर छिटकने लगती

नन्हें मेमने सदृश अपने भीतर के उमड़ते घुमड़ते भावों को सहलाती हूँ
जो तुम्हारी उपेक्षा की तीर से श्रान्त मेरे अंतस में पैठकर बिलखते रहते हैं

न जाने तुम्हें ईश्वर ने
किस मिट्टी से बनाया
कभी-कभी शंकित होती कि कहीं तुम्हारे शरीर में हृदय गढना तो नहीं भूल गया वह

सुना था जहाँ मन आकर्षित नहीं करता स्त्रियों के शरीर से खींचे चले आते हैं पुरुष
जीवन पर्यन्त देह का धूमन जलाती रही
अपनी ही सुगन्ध के धुएँ संग
रात-दिन व्याकुल छटपटाती रहती

ओ बैरागी! कहीं तुम्हारे देश के नियमों में प्रेम प्रतिबन्धित तो नहीं
या आजीवन कारागृह में डाल दिए जाते वहाँ प्रेम करने वाले
किंशय इसी भय से तो नहीं तुमने बैराग धारण कर लिया

अब तो देह के संग मन के अलाव पर भी मैंने पानी की छींटे डाल शान्त कर दी हैं
जलने की भी एक सीमा होती
अब राख मात्र मेरी मुट्ठी में शेष है

संभालकर, संजोकर इसे ही रख ले रही
जीवन यात्रा में यदि कभी मिलना संभव हुआ
इस भभूत को तुम्हारे भाल पर मल देने की चाह है
देखा है मैंने बैरागियों को भस्म से प्रेम करते हुए।

6. संबल

स्मृति की छुअन भर ही
जहां ओस सदृश तिरा जाती हो
वहां संपूर्ण जीवन का स्मरण
कोसी का प्रबल आवेग बन जाता है

धैर्य के समस्त बांधों को तोड़ती
आँखों से अविरल धाराएँ बहने लगती
जिन्हें समेटने का जतन उतना ही कठिन
जितना ब्याहकर विदा होती
बेटी को संभालना

नदीमातृक भूमि में रहनेवालों के लिए
विधाता ने भी भीतर बाहर
पर्याप्त जलराशि दे रखी हो जैसे
तट की कटती मिट्टी पानी में घुलती रहती

माटी का मोह देख चुकी हूँ
नहीं छोड़ना चाहती अपनी जगह
किन्तु नियति क्या है कौन जानता है
कटते- कटते कब किसी दूर देश जा बसती

ब्याह के बाद का उदास आंगन अकेले
समदाओन गा रहा जैसे
अब कोई उसके संग गीत गानेवाला नहीं रहा
मड़वा के खंभे टकटकी लगाए घूरते रहते

कहीं से एक कार‌ कौआ चोंच में पूरी भर ले आया है
लगन का दिन था वह भी मेहमान रहा होगा कहीं
अब उसने भी सोने का चोंच मढ़ाए जाने का मोह त्याग दिया है

अगले बरस हरसिंगार नहीं खिलना चाहते
प्रकृति को उन्होंने आवेदन दे रखा
आंगन के बाक़ी फूलों ने भी उनकी हाँ में हाँ
मिला ही दिया
एक ओर घर बनता है दूसरी ओर रहनेवाले कम होते जाते

ठंड की कँपकँपी बढ़ती जा रही
जीर्ण देह इसे सह भी ले किन्तु उदास मन क्या करे
कई शब्दों को शब्दकोश से मैं हटा देना चाहती
लेकिन इतना सामर्थ्य कहां मुझमें

मेरे बस में इतना भर कि चुपचाप सब देखती रहूँ
दूसरों को समझाना आसान है
स्वयं को संबल देना कठिन
एक कोमल सी लता जमीन पर गिर पड़ी है
मैं उसमें खुद को तलाशने लगती!

7. एक पेड़ की खुदकुशी

पोखर के घाट पर का
वह बूढ़ा आम
हर साल जब मिलता था
लगता कुछ कहना चाहता
पिछली बार गाँव जाने पर देखा
वह अधिक ही झुक चला था
पानी के ऊपर के उसके
भरे पूरे मोटे तने पर
बच्चे चढ़कर पोखर में
छलांग मारते थे
नहाते समय साड़ी, साया, ब्लाउज
औरतें लटका दिया करती थीं उसपर
कपड़ा निचोड़कर भी वे
उसी पर अड़ाकर रखती थी
बाहर से जो गाँव आते
वहाँ खड़े होकर तस्वीर याद से निकालते थे
चार साल पहले सुनने में आया था कि
टोले की जवान बहू
सास की दिन रात की
जली कटी बातों से तंग आकर
इसी पर चढ़कर रात के अंधेरे में
पोखर में कूदी थी
उसकी साड़ी का एक छोड़
पकड़े रहा था वह पेड़ सिसकते
उसी के नीचे बाद में
उसकी फूली हुई सी,
जलकुंभी के बीच फँसी लाश मिली थी
कितनी सुन्दर थी वह
गरीब घरों की बेटियाँ ऐसे ही जाती हैं
लोगों से यह भी सुना था कि
उस साल उस पर मंजर नहीं आए थे
वह पेड़ देखता था
पोखर महार के चारों तरफ़ के
उसके साथियों को एक-एक कर कटते
बड़हर, जामुन, कचनार,
सपाटू, खटबेल, नीम, बबूल, कटहल
किसी को कहाँ छोड़ा गया
वह मनाता रहता था मातम
उसे याद जब पोखर खुनने के साथ ही
उसे भी वहाँ रोपा गया था
ताल को अपना हमउम्र कहता था
देखी उसने जमींदारी, लड़ाई
देखी उसने उस पोखर में
गाँव भर के लोगों की कई रस्में
कुम्हरम, पैनकट्टी, माइट मंगल,
भोज, श्राद्ध सबका गवाह बना
वह देखता रहता टुकुर-टुकुर सब कुछ
लेकिन सप्ताह भर पहले
जब रात के अंधेरे में
उसी के शाख के नीचे
उसने वह कुकर्म होते देखा
वह सह ना सका
वह न चीख सका,
न बचा सका, न मार सका
उस रात वह फूट-फूट कर रोया
अपने पेड़ होने की शर्मिन्दगी से भरा
कल उसने वह किया
जो किसी पेड़ ने नहीं किया होगा
रात आँधी जोड़ की चल रही थी
पूरी ताकत के साथ उसने ख़ुद को
जड़ से उखारने की कोशिश की
वैसे भी लोगों ने पोखर महार की
मिट्टी काट ली थी
उसे अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ी
पेड़ उखड़ चुका था
वह निर्जीव पानी में तैर रहा था
जिनकी जमीन थी वे काफी खुश थे
लकड़ी खूब मंहगी बिकी
औरतों ने कपड़े रखने का
नया ठिकाना ढूँढ लिया
लटकने कूदने वाले बच्चे अब थे ही नहीं
पेड़ की खुदकुशी की रिपोर्ट
थाने में दर्ज नहीं की गई
न कोई पूछताछ हुई, न शिनाख्त हुआ
वैसे भी पेड़ की मृत्यु पर
मातम नहीं मनाया जाता।

परिचय –

मूलतः बिहार के मधुबनी से। वर्तमान में उज्जैन में निवास।बचपन से ही कविता कथा लिखने का शौक रहा। पहली कविता 1994 आख्यायिनी में प्रकाशित।
अंग्रेजी की शिक्षिका।करीब पंद्रह वर्षों तक महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ के स्कूलों में अध्यापन। वर्तमान में विलुप्तप्राय भाषाओं के संरक्षण से सम्बन्धित योजनाओं में संलग्नता। फ्रीलांसर स्काॅलर के रूप में केन्द्रीय भाषा संस्थान के विभिन्न कार्यक्रमों में सहभागिता।
हिन्दी तथा मैथिली भाषाओं में विभिन्न विधाओं में पंद्रह से अधिक किताबें प्रकाशित। कई महत्वपूर्ण किताबों का संपादन। मैथिली त्रैमासिक पत्रिका वाची तथा बाल पत्रिका बजरबट्टू की संपादक।

कविताओं के मूल में प्रेम और प्रकृति। रविन्द्र नाथ टैगोर के भानुसिंह ठाकुरेर पदावली पर शोध कार्य में संलग्न।
साहित्य अकादमी सहित कई संस्थानों के कार्यक्रमों में उपस्थिति।
अहा ज़िंदगी,पाखी, वनमाली कथा,कृति बहुमत,परिंदे,सुबह-सवेरे,प्रभात खबर सहित कई पत्र पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन।

 

 

 


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