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रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएँ

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आज प्रस्तुत है रुचि बहुगुणा उनियाल की कविताएँ जिनमें विषय की विभिन्नता तो है लेकिन एक बिंदु सबमें समान रूप से शामिल है, वह है कोमलता। चाहे वे प्रेम की कविता हो, मनुष्य बने रहने के निवेदन की कविता हो, प्रत्येक नागरिक के लिए रोटी का सवाल पूछती कविता हो या फिर पहाड़ी जीवन के बखान की कविता हो, इन सब में कोमलता विशेषत: मौजूद है- अनुरंजनी

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1) तेरे लिए मेरा प्यार

ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं की ठसक के समक्ष
फूस की झोपड़ी में बसी सहजता सा
सोने की थाल में परोसे गए छप्पन भोग को धता बताता
ठेठ देसी बाजरे की रोटी पर रखे
गुड़ और सिल पर पिसी धनिया की चटनी सा सुस्वादु

बड़ी-बड़ी महफ़िलों में पहने जाने वाले 
ड्रेस कोड के बंधनों की जेल से मुक्त कराता
सुकुमारी ग्राम्याओं के वस्त्राभूषण सा लुभावना 
वर्षों की साधना से सीखे हुए 
संगीत के कोरस की लय बिगाड़ने की कुव्वत रखने वाले 
गँवारू ग्रामीण लोकगीत की किसी मुँह-चढ़ी पँक्ति सा कर्णप्रिय 

मेरे पहाड़ तेरे लिए मेरा प्यार
ठीक ऐसा ही है
जैसे कूट भाषा में लिखे गए ग्रंथ के सम्मुख 
माँ की ममता में लिपटी सरल सी लोरी हो

2) पीठ

सबसे तेज आँखें थीं
वही किसी को नज़र नहीं आती थीं
पर फिर भी देख लेती थीं वो सब जो मुँह देखते नज़र नहीं आता

सबसे ज़्यादा घृणा का शिकार हुई पीठ
घोंपा गया खंजर मुँह फेरते ही
वहाँ मौजूद सबसे तेज आँखें सब देख चुकी थीं
फिर भी
चश्मदीद की तलाश जारी है।

सबसे ख़ूबसूरत तिल 
प्रेमिका के गालों या होंठो पर नहीं था 
वह तो मौजूद रहा पीठ पर छुपकर सबकी दृष्टि से 
प्रेम के सबसे उद्दाम क्षणों को सहेजे हुए 
गाढ़े तिल ने बढ़ायी सुन्दरता पीठ की

3) रोटी की लिपि

रोटी ही थी भाषणों का अहम मुद्दा
प्रदर्शन में भी रोटी ही थी हर बैनर तले
त्योहारों में भी रोटी ही पाने की होड़ तो थी न
मौसमों के बदलने पर
भरे पेट ने बदले कपड़े…… बदला फ़ैशन!
पर ख़ाली पेट के लिए
रोटी से बड़ा कोई फ़ैशन कभी नहीं रहा!

बड़े से बड़ा जोखिम भी
रोटी के लिए उठाया पेट ने
भरी जवानी में जहाँ 
आने चाहिए प्रेमी /प्रेमिका के स्वप्न 
वहां ख़ाली पेट को 
सपने में भी रोटी ही नज़र आई! 

तन ढकने की ज़रूरत 
सिर ढकने की ज़रूरत से भी 
बड़ी ज़रूरत…… पेट भरने की रही हमेशा! 
इस तरह संसार की 
हर समस्या से बड़ी और विकराल समस्या भूख
और हर समाधान से बड़ा समाधान रोटी रही, 
सब भाषाओं से सरल भूख की भाषा 
और हर लिपि से कठिन रोटी की लिपि रही!

4) मैं चाहती हूँ

मैं चाहती हूँ
बस इतनी भर रहे भूख
कि जिसमें क्षुधा तृप्ति के साथ ही
दूसरों के ख़ाली पेट की सुध भी रहे दिमाग़ को

इतना सूखा रहे आस्था का धरातल 
कि कंठ की प्यास तो बुझे किंतु कभी 
फफूंद न लगे भावनाओं को,
मन के औदार्य में आँसुओं की नमी की लज्जा बची रहे 

अनगिन भाषाओं के संप्रेषण में भी 
बची रहे एक चुप्पी
कि हर प्रेमिल छुअन का अनुवाद किया जा सके बस एक सरल स्पर्श से ही

सूरज के प्रकाश में रहे इतनी तपन
कि बाहर फैलती उजास के साथ ही हृदय में जमा 
भावनाओं का ग्लेशियर भी पिघलता जाए

चूल्हे में बची रहे इतनी आग 
कि भोजन के साथ पड़ोस का रिश्ता भी पक कर स्वादिष्ट हो जाए
परमपिता
रहे इतनी भर रोशनी 
कि अँधकार को दुत्कार न मिले वरन् बचा रहे उसका साँवला सौंदर्य!

5) खोई हुई कविता

चंद घंटों पहले
खो गई मुझसे एक अबोध कविता

इतनी अबोध कि विचारों की भीड़ में
न रह पायी स्थिर

इतनी चंचल,
कि दिमाग़ को जाती शिराओं में 
बहते रक्त से लगा बैठी होड़ 
और उससे भी तीव्र गति से दौड़ पड़ी मस्तिष्क की परिधि से बाहर 

मैं एक अबोध कविता के खो जाने से व्यथित 
न कुछ लिख पा रही, 
न कुछ पढ़ पा रही हूँ 

उन धुरंधरों के विषय में सोचती हूँ 
जो कविताएँ भेड़ों की तरह हांकते लाते हैं काग़ज़ तक

इधर मेरी अजन्मी कविता किसी 
खिलंदड़ मृग छौने सी 
निकल पड़ी है मस्तिष्क की किसी अजान नस की ओर 

मैं जानती हूँ,
कभी नींद आने के ठीक पहले
अचानक ही आकर मुझे चौंका देगी 
वो और उस जैसी कितनी ही अजन्मी कविताएँ
और मेरे आँखें झपका कर खोलने से पहले ही
फिर निकल जाएंगी
किसी चपल सोनमछरिया सी विचारों के अथाह सागर में
मैं फिर हाथ मलती रह जाऊँगी

6) बेशर्म का फूल

पूस की इस हाड़ कंपाती ठंड में
तुम्हारी याद का अलाव मन के ताप को बढ़ा देता है
मैं भूल जाती हूँ कि ये सर्दियों की
सबसे लम्बी और ठंडी रातें हैं

देह के कष्ट भुलाकर
मन का संगीत बज उठता है
आँखें मुँदने लगती हैं
सांसें थिरकती जाती हैं

ढलती वय की विवशताएँ बिसरा कर
मन किसी तन्वंगी षोडशी की भांति व्यवहार करने लगता है 

मेरे प्यार
तुम्हारी याद बेशर्म का फूल है 
जो न समय देखता है और न विषम परिस्थितियां 
बस खिल उठता है बेझिझक, बेपरवाह, अपनी पूरी सुन्दरता के साथ

7) वरीयता

दुःख के आँसू पोंछना चाहती हूँ
किंतु हाय ये हठीला दुःख
कैसे मुँह फेरे बैठा है कि मुझे कोई उपाय ही नहीं सूझता? 

ऐसे निर्बाध बहता है दुःख का झरना
कि मुझे उसके निरन्तर प्रवाह में ही सुख का अभ्यास हो आया है

मुझे सुख से अधिक मृदुल स्पर्श दुःख का प्रतीत होता है
ये दुःख ही मुझे चेताता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी
है कोई जो संभाल लेगा मेरे बिखरते धैर्य को

मैं सुख से अधिक दुःख की राह जोहती हूँ
टेरती हूँ दुःख ही सुख के स्थान पर

सुख की परिधि सूक्ष्म और दुःख का वलय बढ़ता जाता है
मैं अँकवार में भरती हूँ अनदेखी अनचीन्ही देह दुःख की
और महकती जाती हूँ आत्मा को साधते हुए

परमपिता

मुझे क्षमा करना मैंने सुख से अधिक दुःख की चिंता की
सुख से अधिक दुःख को वरीयता देने की अपराधिनी हूँ मैं।

 

***परिचय ***

* नाम : रुचि बहुगुणा उनियाल
* जन्म स्थान : देहरादून
* प्रकाशित पुस्तकें : प्रथम पुस्तक – मन को ठौर, (बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित), प्रेम तुम रहना, प्रेम कविताओं का साझा संकलन  (सर्व भाषा ट्रस्ट से प्रकाशित)
वर्ष 2022 में दूसरा कविता संग्रह २ १/२ आखर की बात (प्रेम कविताएँ) न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन नई दिल्ली से प्रकाशित। 
*मलयालम, उड़िया, पंजाबी, बांग्ला, अंग्रेजी, मराठी, संस्कृत अन्य कई भारतीय भाषाओं में कविताएँ अनूदित।
*प्रकाशन – पाखी, कविकुंभ, परिंदे, आदिज्ञान, युगवाणी सहित सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, संस्मरण व आलेख प्रकाशित। भारतीय कविता कोश, हिन्दवी वेब पत्रिका, पहलीबार ब्लॉगस्पॉट व अमर उजाला काव्य पेज सहित सभी प्रतिष्ठित वेब पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
*संपर्कसूत्र_ruchitauniyalpg@gmail.com
 


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