बतौर पाठक यतीन्द्र मिश्र से मेरा पहला परिचय उनकी कविताओं के माध्यम से ही हुआ था। साल था 1999. इससे याद आया कि उनकी कविताएँ पचीस सालों से पढ़ रहा हूँ। लेकिन इस बार उनका संग्रह तेरह साल के अंतराल के बाद आया है ‘बिना कलिंग विजय के’। यह उनकी कविताओं में नये मोड़ की तरह है। इनमें इतिहास, मिथक, संगीत, कला की आवाजाही है, कहीं फ़िल्मों के कलाकार आ जाते हैं। एकदम अलग कलेवर की संवेदनशील कविताएँ। मैंने आप लोगों के लिए संग्रह से ग्यारह कविताएँ चुनी हैं। वाणी प्रकाशन से यह संग्रह शीघ्र प्रकाशित होने वाला है- प्रभात रंजन
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1
सरोवर व्यथा
प्रेम की साक्षी अनामिका में
सुशोभित अँगूठी शकुन्तला की
सरोवर के जल में उतरते ही निगल गई
उसे एक मछली
सरोवर में ही उत्पन्न श्वेत कमलनाल में
छुपे रहे इन्द्र, शची के वियोग में
एक सरोवर के पास
मूर्छित पांडव पुत्रों में ज्येष्ठ
करते रहे यक्ष के प्रश्नों का
समाधान
जहाँ भूल से वध हुआ
उस सुकुमार बालक का
वो भर रहा था जल
अपने माँ पिता की तृषा बुझाने को
वहाँ भी सरोवर की उपस्थिति थी
सरोवर के अनेकों छंद
अनसुलझी कथाएँ
जल और बहाव के कदाचित
ढेरों प्रसंग से
परंपराओं के रंगमंच की
जाने कितनी कृतियाँ जन्म लेती हैं
बस उसमें नहीं होता कोई संकेत
सरोवर की व्यथा का…
2
शिशिर और आग
शिशिर की काँपती रात में
अलाव के चारों तरफ़
नाच रहे बाला और मरदाना
कभी खंजड़ी
कभी चिमटा
कभी तंबूरा बजाकर
वो जितना नाचते
उतनी ही इठलाती आग
शिशिर में आधी रात
झरती ओस की नम धरती पर
फैलता मोह और लगाव का संगीत
वो जितना नाचते जाते
उतनी ही फैलती बस्ती में
गर्माहट की साध….
3
चूड़ामणि
वैदेही ने उतारकर दे दी
चूड़ामणि
बताना रघुवीर को
अरण्य से लगते एक स्थान को
जिसे लंकाधिपति
अशोक वाटिका कहता है
वहीं कारावास गुजारती
शोक में है
अयोध्या की कुलवधू
महावीर ने चूड़ामणि ऐसे सँभाली
जैसे सँभालती है एक गर्भिणी
अपने गर्भ को अत्यंत दुलार और आदर से
इधर जानकी को भी
प्राप्त हुई राघव की मुद्रिका
अपने स्वामी की निधि
ले आए थे पवनपुत्र
चूड़ामणि पहुँच गई
रघुनन्दन के पास
पहुँच गया सन्देश भी
ऐश्वर्य से आच्छादित
परदेस में अप्रतिहत हैं जानकी
रावण के क्रोध वीरता क्षण-क्षण दी जा रही
भय की युक्तियों से
एक जय कथा इस तरह भी जाती है इतिहास में
जहाँ पराक्रम और सत्य के सहोदर में
चूड़ामणि
स्त्री का एक आभूषण
युगों तक विमर्श में चला आता है…
4
पंढरपुर
गले में अधखुले हार जैसा
मंजीरा डाले एक आदमी
गाते हुए दूसरे को पकड़ाता भक्ति की लय
दूसरा पसार देता चारों तरफ़
झांझ, चिपली और तंबूरे की आवाज़्ा में अन्दर की पुकार
पंढरपुर में गलियाँ गूँजतीं
वारकरियों की साधना
उनका सजल कोरस कंठ विठोबा के लिए गाते हुए
समय को ठेका और ताल देता रहता है
सफेद रंग को धारे सब के सब
अपने संकीर्तन से
सरगम में कई रंग का गुलाल घोलते हैं
उधर विठोबा और रुक्मिणी के मंदिर से
रंग-सुरंगी पताकाएँ लहराती रहतीं
नारदीय परम्परा हो
हो सवाल-जवाब के बहाने भागवत कथाएँ
या अभंग के चेतावनी देते बोल
कुछ ढोल, कुछ डफली कुछ झांझ में
डूब जाता एकबारगी पंढरपुर…
उधर एकनाथ तुकाराम ज्ञानेश्वर से पूछे बग़ैर
हिलोरें भी नहीं लेती चंद्रभागा….
5
हम्पी
गरुड़ लुप्त हुआ पुराणों को सुनते-गुनते
वैसे ही नष्ट हो गयी
एक नगर की जीवन्त सुरम्यता
हम्पी चला गया कहीं दूर छिटककर
जैसे अन्तरिक्ष के मनके से टूटकर बिखर जाए शुक्रतारा
पम्पा सरोवर की अनगिनत छवियाँ
और अंजनाद्रि पर्वत पर उगने वाली वनस्पतियाँ
हम्पी को बनाती थीं अजेय और अपौरुषेय
विजयनगर साम्राज्य की अनेकों शौर्य गाथाएँ
बस कागज़ के पन्नों पर दमकती हैं आज
जैसे भोजपत्र पर उकेरा हुआ अहर्निश चमकता
राम और सुग्रीव की मित्रता का साक्षी यह नगर
रथों, घोड़ों, चँवर और मोरछल से
सजी आती सेनाएँ कहाँ हैं अब?
काल के सबसे पुराने सन्दूक में बन्द होकर
उनके सैनिकों के शस्त्र मुरझा गये हैं
बची रह गयीं स्थापत्य की कुछ भग्न निर्मितियाँ
कथाओं के अन्तःपुर की किंवदन्तियाँ
शौर्य गाथाओं का इतिहास
पड़ जाता धूमिल समय के दर्पण में
बचा रह जाता मात्र विस्मृत कथाओं का
एक छोटा सा झरोखा
जैसे कि गरुड़, जैसे कि हम्पी…
6
राधा के लिए शिशिरागम
आकाश से बृजमण्डल में गिरा मंदार पुष्प
राधा की आधी गूंथी वेणी में
उलझकर रह गया पारिजात कुसुम
एकादशी के किसी पवित्र नक्षत्र
गोपाल के द्वार पर बंदनवार में
लटकती बेले की मालाएँ
कुमुदिनी, चंपा और मनोकामिनी की
सुगंध में सुवासित रंगनाथ का मण्डप
राधा सोचती है
किस आकाशगंगा
किस सुमेरू पर्वत
किस भागीरथी की तलहटी
से लाए चुनकर
आस्था कुसुम?
कौन से पत्र-पुष्प की सुगंधि से
जागेंगे त्रिविक्रम ?
कहाँ जायेंगी
देव को अर्पित
अधसूखी मालिकाएँ?
बिना केशव के
किस तरह मन में होगा
शिशिरागम?
7
एक पियानो वादिका और चार नौजवान
मशहूर पियानो वादिका
लौटती है अपनी बेटी के पास
जिसे भुला दिया था उसने
उसके जीवन के सुर पियानो
रीड के मूल स्वर से
उतर गए थे जैसे
कई सालों बाद
माँ और बेटी बाँटते हैं
आपस की तल्खियाँ
कितना दुखाया दिल
एक दूसरे का…
किसी दूसरे देश में
चार नौजवान मिलकर थामते हैं
कला के रहस्य को आपसी सहकार से
संगीत के बहाने
सुरों को नए अंदाज़ में पिरोते हुए
बन जाती है एक निराली दुनिया…
एक दृश्य पर समय का परदा पड़ा है
दूसरे दृश्य में काल को समय से
बाहर ले जाने का जुनून है
पियानो वादिका और बेटी
अपने ही जीवन में हैं उलझी
इस तनाव में कुछ राहत भी कौंधती
बजता जब शोपेन का प्रील्यूड नम्बर दो
ए माइनर में
चारों युवक
अपने असंतोष की कैद से बाहर
लोक की दुनिया को बनाते हैं आधुनिक
ग़ौर से देखें तो हाथ आता
यही सच सामने
संगीत बदल देता है परिस्थितियाँ
भावनाएँ एक ही सुर को दामन में
संभाले हुए
बदल देती हैं ढर्रे पर चलते हुए
जीवन के नीरस अभिप्राय….
संदर्भ: इंग्मार बर्गमैन की फिल्म ‘आटम सोनाटा‘ और इंग्लैंड के प्रसिद्ध रॉक बैंड बीटल्स की कहानी के आधार पर।
8
भामती
उस धीरज का रहस्य
आज भी अबूझ है
दिन में उगने वाले शुक्रतारे की तरह
जहाँ वर्षों तक वो जलाती रही
हर साँझ को प्रकाशित करने के लिए दीया
हर दिन बटलोई से परोस देती पारस
और अपनी साधना में लीन पति
पूरण के उपरान्त सरका देते जूठी थाली
बुहारती रहीं कुटिया का ओसारा
उपवन तक फूल चुनने जाने का मार्ग
दिन ढलते ही चैके का कमरा
अनुपस्थिति में रहते हुए इतनी उपस्थित
उपस्थिति में बारह वर्षों तक अनुपस्थिति का लोप
एक दिन भास हुआ वाचस्पति को
ये देवी मेरी कुटिया में क्या कर रहीं?
स्त्री ने अपने होने का तनिक भी
नहीं जताया भान निर्विकार दे दिया उत्तर-
आपकी साधना में बाधा बनना
उचित न था, वैसे मैं आपकी पत्नी ठहरी!
कुछ मौन थोड़े विस्मय गहरी कृतज्ञता के बीच
जन्मा प्रतीक्षा का ब्रह्मकमल
दिवस रजनी संन्ध्या प्रभात
सभी का गणित उलझा गया ऋषि को
मेरे काम में बाधा न पड़े
ये स्त्री ख़ुद को बिसराकर
बन गयी मेरी साधना का ऊर्जस्वित प्रकाश
इस तरह धीरज और प्रतीक्षा की हमजोली
ले आई इतिहास के पहले पृष्ठ पर उसे
जिसे ख़ुद को कभी प्रकाशित करने की
लेश मात्र आकांक्षा न थी…
वाचस्पति धीरे-धीरे समय की पाटी से हुए ओझल
ब्रह्मसूत्र से नाता न होकर भी
एक करुणा नदी ने पाया अस्तित्त्व
एक टीका सम्पूर्ण हुई
एक भामती का दीया अपलक जल उठा…..
9
राग बसन्त के लिए
इस जोगिया रंग में कुछ और मिला है
खुसरो की पीली सरसों वाला
वारिसशाह के चिनाब का नीला
बसन्ती में थोड़े हरे की आहट
बौर की डाली पर बिछलता भूरे का स्पर्श
एक तान में कई गमकों का वास
कई पलटों में एक बड़ी आरोह की पुकार
कोई ढूँढ़ता है अपने ही घर का पता
जैसे नदी चली आती हो उतारने
अपनी उदासी का गहना
कितने घराने मिलकर बुलाते हैं बसन्त की आहट
जैसे उस्ताद निसार हुसैन ख़ाँ की भारी सी आवाज़ से
टूटता हो हमारे दर्प का आईना
फगवा बृज देखन को चलो री गाते हुए
उस्ताद लगाते हों अपने ही मुहल्ले की परिक्रमा
घराने की चिक से उभरता है
नये रचे जाने का सार्थक आलाप
सरसों के खेत से होकर डामर की सड़क तक
चमकता पीला उल्लास…..
10
अन्तःपुर
कविता चुनती
कृष्ण के प्रति आकण्ठ डूबी
मीरा की बानी से प्रेम के पराग
गाए जाते
रंगनाथ की सेवा में
पुष्पहार बुनती आंडाल के
हृदय में कुसुमित होते गीत
पोथी से निकालकर
बार-बार पढ़ी जाती
बहिनाबाई, जनाबाई की चेतावनी
उनके विट्ठल मोह में
संसार के स्मरण में
संचित रह गई कविताएँ
उस प्रेम को ही पुकारतीं
जो वर्जित होकर
स्त्रियों के अन्तःपुर में
सुरक्षित रहीं आईं…
11
साज़ों से बतकही
सारंगी के सारे दर्द ले लेने चाहिए
मालूम नहीं इतनी पीड़ा
उसके सीने से गज के लगने पर
क्यों निकलती है?
इकतारे के सुर में आवाज़ मिलानी चाहिए
कौन जानता है मरु में
किसकी यातना को बंजारा
कब तक लिये फिरता है?
तबलों से भी बात करनी चाहिए
न जाने कहाँ के
परन और पढ़न्त ने
उनको एक ही कैफ़ियत में बाँध रखा है?
साज़ों से बतकही करते रहना चाहिए
हममें से कौन कब विदा हो जाए
बसन्त खेलने, फाग रंगने के लिए
उनसे मिलना फिर सम्भव ही न हो?