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संपादन के अनुभव संपादक की ज़ुबानी

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जानकी पुल की युवा संपादक अनुरंजनी ने संपादन के अपने अनुभवों को साझा किया है। पढ़िएगा कितनी ईमानदारी से लिखा है उसने- मॉडरेटर 

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‘संपादक’, यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी का काम होता है। यों तो हमारा हर काम ही ज़िम्मेदारी वाला होता है, हमारा जीवन भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है लेकिन बतौर संपादक एक खास वर्ग के प्रति ज़िम्मेदारी का एहसास अत्यधिक होता है। वह खास वर्ग है ख़ालिस पाठक का। अब उस पाठक वर्ग में चाहे कोई भी हो, अन्य लेखक/आलोचक भी जब उसे पढ़ रहे हैं तो वे पाठक की भूमिका में ही होते हैं।
मेरा यह काम 10 अप्रैल 2024ई. से आरंभ हुआ, हालांकि प्रभात रंजन सर ने इसकी घोषणा 1-2 अप्रैल 2024 ई. को ही कर दी गई थी। नतीज़न कुछ लोगों को मज़ा लेने का मौका भी मिला कि “मूर्ख दिवस के दिन मूर्ख संपादक ने एक मूर्ख को संपादक बना दिया”, वगैरह,वगैरह। यह बात खूब समझ आती है कि जो लोग कुछ नहीं करते वे मज़े लेते हैं। ख़ैर…
लगभग छह महीने हो गए हैं बतौर संपादक काम करते हुए, एक ऐसा काम, जिसने बहुत से अनुभव दिए। उन अनुभवों में शामिल पहला है –
– विभिन्न तरह की रचनाओं को पढ़ने का अनुभव! यह अनुभव कक्षा में हुए अनुभव से बिल्कुल अलग है। क्यों? क्योंकि कक्षा में क्या पाठ आएगा, यह सिलेबस तय करता है। सिलेबस, जिसका मतलब ही है कि “क्या नहीं पढ़ना है” क्योंकि वह विद्यार्थियों को भयंकर तरीके से बंधन प्रदान करता है, विद्यार्थी सिर्फ उसी को पढ़ने की जुगत में लगे रह जाते हैं जिससे सिलेबस पूरा हो जाए, फिर भी शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि शत-प्रतिशत विद्यार्थियों का शत-प्रतिशत सिलेबस पूरा हो जाए! संपादक के पास किसी सिलेबस के तहत रचनाएँ नहीं आती हैं, वह कुछ भी, किसी भी विधा की और किसी भी विषय पर केंद्रित आ जाती हैं। इसलिए पढ़ने की विभिन्नता एक बड़ा अनुभव होता है।
– दूसरा अनुभव इसका अगला पड़ाव है, रचनाएँ स्वीकृत/अस्वीकृत करने का। ऐसा नहीं है कि जो रचनाएँ स्वीकृत हुईं केवल उनके बारे में ही ‘इंट्रो नोट’ लिखना हुआ, बल्कि अस्वीकृत रचनाओं को भी लौटाते वक्त कारण लिखना ज़रूरी लगा, यथासंभव लिखने की कोशिश भी रही। इससे हर रचना पर ठहर कर सोचना हुआ, नतीजन, सोचने का अभ्यास हुआ।
– तीसरा अनुभव रहा, लेखकों/कवियों की प्रतिक्रिया का! उनकी क्रियाओं/प्रतिक्रियाओं से मनुष्य की प्रवृत्तियाँ समझने में बहुत सहायता हुई। बहुत से लोग इस बीच सोशल मीडिया पर जुड़े (संपादक होने के नाते ही) और जब तक उनकी रचनाएँ प्रकाशित होने की पंक्ति में लगी रही तब तक उनकी ओर संपादक के निजी पोस्ट पर खूब तारीफें लुटाई गईं, खूब समय मिला उन्हें और जैसे-जैसे उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो गईं वैसे-वैसे वे उनके प्रचार-प्रसार, ख़ुशी में बाक़ी दुनिया भूल गए। (अपवादस्वरूप एक-दो रहे होंगे)
– चौथा अनुभव यह हुआ कि बहुतों की रचनाएँ अस्वीकृत हो कर उनके पास ही गईं और मेरे पास आई उनकी नाराज़गी और तरह-तरह की दलीलें, मसलन “मेरी कविताओं का पाठ अमुक व्यक्ति ने किया है, फिर जानकीपुल पर क्यों नहीं प्रकाशित हो सकती है।” वगैरह-वगैरह।मैं क्या कर सकती थी? रचनाओं को समझने का/ स्वीकृत करने का इतना छिछला तरीका मैं नहीं सीख पाई अभी तक!
– पाँचवाँ अनुभव रचनाकारों के बारे में यह भी मिला कि वे केवल अपनी रचनाओं तक ही सीमित हैं, दूसरे लेखक-लेखिका क्या लिख रहे हैं यह उनकी नज़रों से प्रायः ओझल रहा।
अब तक, यानी कि छह महीने में इस तरह के मुख्यत: पाँच अनुभव कम नहीं हैं। आगे भी तरह-तरह के अनुभव मिलते ही रहेंगे, क्योंकि यह काम अभी ज़ारी है।

(रचना केंद्रित संपादकीय अनुभव आपके समक्ष अगली कड़ी में आएँगे।)


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