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पल्लवी प्रसाद के उपन्यास ‘लाल’का अंश

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पल्लवी प्रसाद की कहानियां हिंदी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं. उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद किये हैं. ‘लाल’ उनका दूसरा उपन्यास है और सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि को आधार बनाकर कम ही लेखिकाएं लिखती है. यह एक ऐसा ही उपन्यास लग रहा है. फिलहाल इसका एक अंश- मॉडरेटर

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गरीबों के बच्चे पहले से ही अपने खाने भर कमाने लगते हैं। न कमायें तो पेट में अन्न कहाँ से जाये? एक-एक घर में सात से ले कर दस बच्चे  पैदा होते हैं। माँ-बाप छोटे-छोटे बच्चों को संभ्रांत घरों में भेज देते हैं – अन्य के घर में नौकर बन कर पल जायेंगे, कुछ न हो तो भी जूठन पर खिले रहेंगे यह फूल! गाँव-घर में रहे तो भूख और बिमारी का ग्रास बनते देर न लगेगी। बाबू लोग के घरों में पलने वाले यह नौनिहाल सुबह से रात तक घरेलू कामों में रत रहते हैं। घर में हुयी हर गड़बड़ी का ठीकरा इनके सिर फोड़ा जाता है। सेवा के बदले गालियाँ, मार व जूते इनकी रोज की कमाई है। इनके अलावा साल में दो बार, होली व दशहरा के त्योहारों पर इन्हें कपड़े मिलते अथवा मिल जाया कर सकते हैं। साल में एक बार जब इनका अभिभावक इनसे मिलने आता है तब इनकी खुराक व रखरखाव का खर्च काट कर मालिक साल भर की मजदूरी उसके हाथ पर रखता है – पॉँच-छ: सौ रूपयों से ज्यादा नहीं!

भला हो प्रदेश सरकार का जो अन्य कानून की तरह ही, बाल-मजदूरी के खिलाफ भी कोई कदम नहीं उठाती वरना सैकड़ों बालकों के नसीब में जीवन नहीं मौत आती। हालांकि उनका यह जीवन अनवरत जिल्लत का कर्कश ऑर्केस्ट्रा संगीत है।

…उस बार बुढ़ऊ किसी तरह पैसे का जुगाड़ कर के अपने गाँव से बहुत दूर, शहर पहुँचे – उन्हें बस और ट्रेन दोनों का टिकट कटाना पड़ा। लेकिन शहर जा कर पैसा मिलेगा, वह यह बात जानते हैं इसलिये खर्च का मलाल नहीं। हर बार की तरह वह साहब की कोठी पर पहुँचे। लेकिन हरे रँग के लोहे के फाटक पर नये दरबान ने उन्हें रोक दिया। बुढ़ऊ ने देखा दरबान नया है। उन्होंने लोरिक का नाम लिया लेकिन अचरज! दरबान ने उन्हें फिर भी अंदर नहीं घुसने दिया?

“हम लोरिक के बापू हैं। उससे मिलने आये हैं। तनिक उसे बुला दीजिये न?” बुढ़ऊ गिड़गिड़ा रहा था और दरबान उसे वहाँ से भगा रहा था कि तभी अपनी सायकल पर बाजार से लौटता हुआ खानसामा वहाँ आ पहुँचा। वह बुढ़ऊ को देख कर दरबान से बोला, “अरे! यह तो बुढ़ऊ है। आने दो इसे!” इतना कह कर खानसामा अंदर चला गया। उसकी अजनबीयत ने बुढ़ऊ को दुविधा में डाल दिया। पहचान लेने के बावजूद खानसामा ने उससे सीधे मुँह न कोई बात की न ही दुआ-सलाम?

फाटक के भीतर बुढ़ऊ धूप में चुक्कु-मुक्कु बैठ कर इंतजार करने लगे। खानसामा मेमसाहब को बुला लाया। मेमसाहब अपने वजन और गर्मी से लस्त-पस्त होते हुयी बाहर चली आईं। उन्होंने बरामदे की छाँव में खड़े हो कर आलस्य से पुकारा, “केऽऽ है…?

जवाब में बुढ़ऊ हाथ जोड़ कर खड़े हो गये, मानो अपनी शिनाख़्त दे रहे हों।

“लोरिक तो भाग गया!” मेमसाहब ने ऊँची आवाज में बताया।

“आँय?…कब?” बूढ़ा यह सुन कर बुरी तरह अचकचा गया।

“कब्बे! आप पिछले बार आये थे  उसके अगले महीने ही की तो बात है  !…हम तो सोचे गाँव चला गया। घर आया नहीं क्या?”

“ना: मायजी!” बुढ़ऊ एकदम हतप्रभ हो कर बोला।

“देखिये तऽ, कितना पाजी निकला!” मेमसाहब ने खानसामा की तरफ देख कर शिकायत की। उधर चिंता के मारे बुढ़ऊ का सिर घूमने लगा।

“हम जानबे नहीं करते थे…!” बुढ़ऊ बड़बड़ाये।

“काहे? आपको चिट्ठी तो डाले थे हमलोग!” मायजी ने सख़्त आवाज़ में कहा मानो उल्टा चोर कोतवाल को डाँट रहा हो।

“हमें कोई चिट्ठी न मिली।” बुढ़ऊ बोला।

“यही न प्रॉब्लम है आप लोगों के साथ। कोई जिम्मेवारी नहीं समझते! आप आधा-अधूरा पता लिखा दिये होंगे तो क्या पहुँचेगा चिट्ठी भला? जो पता आप लिखवाते वही न हमारे पास रहता?…ऊ लड़का इतना बदमाश निकला, बताईये खा-खा कर चर्बी चढ़ गई थी यहाँ। सारा दिन चोरी-चोरी टेप पर गाना सुनता था। दूध लेने जाता तो घंटों गायब रहता। लफंगों की सोहबत हो गयी थी। कोई बरगला कर भगा ले गया होगा। यहाँ अच्छा खाता-पीता, पहनता-ओढ़ता, तो खुद को बाबू साहब समझने लगा था? उसको सुख भार हो गया था!…इ लोग का किस्मत कोई बदल सकता है? अब जहाँ होगा भूखे मर रहा होगा…” उन्होंने अनुमोदन के लिये फिर खानसामा की ओर देखा। खानसामा चुपचाप बुढ़ऊ को देख रहा था।

बुढ़ऊ पर फटकार बरस रही है। मायजी शादी-ब्याह के लाऊडस्पीकर के माफिक अनवरत बजे जा रही  हैं। वह कुछ सोचने नहीं पा रहा है। कहाँ उड़ गया उसका सुग्गा, लोरिक?

“बुढ़ऊ को खाना-वाना खिला दीजियेगा।” मेमसाहब द्वारा खानसामा को दिया गया आदेश सुन, बुढ़ऊ की तंद्रा टूटी। वह हड़बड़ा गया। उसने खाने के लिये मना कर दिया। वह इस घर का अन्न अब नहीं खा सकता। परन्तु मानव शरीर की सीमाएँ होती हैं। उसने इशारे से पानी माँगा। दरबान ने बगीचे का नल दिखा दिया। बुढ़ऊ पानी पी कर चला गया।

लेकिन वह जाये कहाँ, यह वह नहीं समझ पाया। लोरिक को भागे एक साल से ज्यादा हो गया है, जैसा कि वे लोग बताते थे। इतने दिनों बाद उसका क्या सुराग मिल पायेगा? वह गाँव भी नहीं लौटा…कहीं कुछ हो-हवा गया हो…नहीं-नहीं! गरीब का बच्चा मरता नहीं। बुढ़ऊ ने अपने साँई का भरोसा किया। कहीं मजदूरी करता होगा, पैसे बचेंगे तो गाँव लौट आयेगा। बुढ़ऊ हिम्मत कर के कदम बढ़ाते गया और पहला चौक पार कर शंकर की गुमटी पर जा पहुँचा – ‘शंकर लिट्टी चोखा सेंटर’! इस सेंटर के साथ वाली दीवार पर चूने से यह नाम अंकित किया गया है। सेंटर महज चार बम्बुओं पर बिछी फूस की छत के नीचे मजे से चलता है। दोपहर की धूप ढल रही है। गुमटी के चुल्हे पर चाय की बड़ी सी काली केतली चढ़ी हुयी है। कलेवा का वक्त है – भूँजा, मूढ़ी, फरही, सस्ते बिस्किट और मिलावट का सेव, इतना इंतजाम है ग्राहकों के वास्ते। शंकर रात की लिट्टी के लिये, गुमटी के पीछे की खुली जमीन में गोईंठा लगा रहा है।

बुढ़ऊ कुछ देर ठिठक कर देखता रहा। लेकिन जब शंकर का ध्यान उस पर नहीं गया तो वह बोला, “हम बुढ़ऊ!”

शंकर ने सिर उठा कर देखा। पहले पल दो पल उसे कुछ समझ नहीं आया। फिर अनायास उसकी स्मृति के पट खुल गये। उसने बुढ़ऊ का स्वागत किया और बैठने के लिये एक पुरानी मचिया बढ़ा दी।

बुढ़ऊ हाथों में अपना सिर दिये, अपनी ही दुनिया में खोया, बैठा रहा। शंकर इंतजार करता रहा कि वह बात की शुरुआत करेगा। वह कनखियों से बुढ़ऊ को देखता जाता। बुढ़ऊ यूं बैठा था मानो वहाँ उसके अलावा और कोई न हो।

आखिरकार अपने हाथ झाड़ते हुये शंकर ने बुढ़ऊ का सामना किया – “लोरिक गाँव लौटा?”

“ना:!”

बुढ़ऊ ने अपना मैला गमछा आँखों पर लगा लिया। उसके कँधे हिल रहे हैं। बुढ़ऊ को रोता जान, शंकर की सहानुभूति व चिंता गहरा गयी। वह ग्राहकों को चाय दे कर बुढ़ऊ के पास चला आया। जब उससे न रहा गया तो वह बोल पड़ा – “गायब होने से दो दिन पहले लोरिक आया था यहाँ…”

बुढ़ऊ ने जोर की हिचकी भरी और फटी-फटी आँखों से शंकर को देखने लगा। उसकी आँखों में वह आस थी कि पल भर के लिये पृथ्वी भी थम जाये।

एक नजर बुढ़ऊ पर डाल कर शंकर आगे बोला – “…बता रहा था कि उससे घर का टेप रिकॉर्डर खराब हो गया था। इस जुर्म के लिये भईया ने उसे बेरहमी से पीटा। दो-तीन दिन  के बुखार और दवा-दारू से उठ कर चला आ रहा था वह! फिर और दो-तीन दिन बाद साहब के नौकर उसे खोजते हुये यहां आये…तब पता चला अपना झोला ले कर कहीं गायब हो गया है वह!…बड़ी खोजाई हुई लेकिन साहब ने पुलिस में रपट नहीं लिखाई। खुद बबुआ ने उसे वह मार मारा था कि पुलिस इनसे भी तो कुछ जरूर पूछती?”

एक-दो ग्राहक यह किस्सा सुनने पास सरक आये थे। एक ने अपनी राय प्रकट की – ” अगर चोरी कर के भागा होता तो मालिक सबसे पहले थाने में खबर करते। तुरंत खोजा जाता!”

बुढ़ऊ मतिसुन्न हो कर सब सुन रहा है।

शंकर ने पूछा – ” जब लोरिक गाँव नहीं पहुँचा तो बुढ़ऊ तुम कहाँ रहे जो इतनी देर से उसकी खबर लेने पहुँचे हो?”

“हम जानबे नहीं करते थे…” बुढ़ऊ ने दुहराया।

“थाने में गुमशुदगी की रपट लिखवा दीजिये।” एक जवान लड़के ने सलाह दी।

एक प्रौढ़ ट्रक ड्राईवर ने टोका – “बेवकूफी की बात! लड़का तो क्या मिलेगा लेकिन मालिकों से पूछताछ होते ही, वे उस पर कोई बड़ी चोरी का आरोप अवश्य लगा देंगे। लो मजा! इन बड़े लोगों को नहीं जानते तुम!”

शंकर ने चाय भरा काँच का गिलास बुढ़ऊ के हाथ में जबरदस्ती पकड़ाया और एक प्लेट लिट्टी-चोखा  उसके सामने सरकाते हुये कहा – “सबर कीजिये। वह लौट आवेगा। जवान जहान लड़का है, कहीं मेहनत मजदूरी करके अपना पेट पालता होगा। भगवान से मनाईये, उसे विपदा से दूर रखे।”

“हमरे घर जन्मा इससे बड़ा विपत्त क्या होगा?” बुढ़ऊ प्लेट पर अपनी आँखें गड़ाये बोला।

अपना हाथ बढ़ाने से पहले उसने धीमे से कहा, “पैसा नहीं है।”

“आप से किसी ने माँगा? खाईये!” – शंकर ने डाँट दिया।

बुढ़ऊ खाने पर टूट पड़ा। सुबह से उसके पेट में एक दाना नहीं गया, यह साफ पता चलता है। शंकर ने आँख का ईशारा किया। वहाँ मौजूद मेहनतकश्तों की मैली जेबों से मुड़े-तुड़े नोट निकल आये। उनका एक नन्हाँ ढेर लग गया। शंकर ने रुपये गिने और अपनी तरफ से कुछ मिला कर सौ पूरे कर दिये। उसने वे नोट और सिक्के बुढ़ऊ के कुर्ते की जेब में अपने हाथ से डाल दिये और कहा – “यह गाड़ी-भाड़ा के लिये दे रहे हैं। ट्रेन में डब्लू.टी. सफर कर भी लीजियेगा लेकिन आगे बस वाला नहीं मानेगा…। यदि रूपये बच गये तो काम आयेंगे।”

डब्लू. टी. यानी ‘विदाऊट टिकट’ – इन शब्दों के मायने सबको पता है। यह अँग्रेजी शब्द नहीं, जैसे इसी मिट्टी की बोली-बानी है।

:

लोरिक तीन साल बाद गाँव लौटा। वह पहले वाला मरियल लड़का नहीं रहा। अब यदि यार खाने की शर्त बदें तो वह एक किलो गोश्त आसानी से उड़ा लेता है। कमीज व फुल-पैंट वह मामुली पहनता है लेकिन उसके पैर कभी काले चमड़े के नोकदार जूतों से खाली नहीं रहते। सोन नदी के किनारे बालू में चलते हुये यह जूते धँसते हैं और धूसरित हो उठे हैं। उसकी काली पैंट की मोहरी में रेत भर रही है। हर कदम पर मुट्ठी-भर बालू हवा में उछलता है। उसकी चाल धीमी हो गई है। वह अपने में मग्न चला जा रहा है हालाँकि उसके पास काफी सामान है। पीठ पर कवर में गिटार झूल रहा है, कँधे पर एक छोटा ढोलक लटका है और दायें हाथ में उसने स्लेटी रँग का सूटकेस उठाया हुआ है जिसमें लिट्रेचर माने पर्चे हैं, कपड़े हैं, ‘इरास्मिक’ शेविंग क्रीम है। उसने देखा, चढ़ती दोपहर की चिलचिलाती धूप में बाड़े के पास के चाँपा कल का लोहे का हत्था चमचमा रहा है। एक औरत मुँह में दतुवन लिये उस तपे हुये लोहे को चला रही है, इतने दिन चढ़े मुँह धो रही है?

वह जैसे उस औरत के करीब से गुजरने को हुया कि अनायास वह उसके पहचान में आ गई। औरत ने उसे देखा, दतुवन के रेशे थूके और फिर दतुवन चबाने लगी। उससे एकदम बेपरवाह।

लोरिक को अजीब लगा। वह जरा सा हँस कर बोला – “भौजी, हमें चिन्ही नहीं?”

औरत ने हामी में सिर हिलाया और फिर गर्दन बढ़ा कर थूका। उसने चाँपा चला कर अपना थूक बहाया, फिर कुल्ला कर के अपने चेहरे पर खूब पानी मारा। धूप में गीले, चमकते हुये चेहरे से उसने लोरिक का सामना किया – खामोश।

लोरिक ही बोला – “तुम एकदम बदल गयी हो। दूर से मैं तुम्हें पहचान न सका।” वह अपनेआप पर हँसा। कहाँ तो वह दुबली-पतली, सूखी, हँसमुख लड़की हुआ करती थी। और अब उसके शरीर का अनुपात अतिश्योक्तियों से भरा है। जहाँ भराव वहाँ अत्यधिक भराव, जहाँ कटाव वहाँ अत्यधिक कटाव।

“माल्दह आम लगती हो!…तुमने क्या मुझे मरा समझ लिया था जो पहचानने में  इतनी देर लगा दी?”

“वह मर गया।”

“कौन?” लोरिक थोड़ा हँसा, थोड़ा चौंका।

“तुम्हारा दोस्त, मेरा पति…बिनोद!”

“क्या बकती हो?”

“हाँ। उसने सोन में डूब कर जान दे दी।” औरत ने अपना हाथ लंबा कर नदी की तरफ ऊँगली से इशारा किया।

“आँय…काहे?”

“तुम बस्ती का हाल नहीं जानते? एक बित्ता घूँघट में कब तक औरत छुप सकती है? कुत्ते उसकी गँध लेते रहते हैं। आये दिन रात के अँधेरे में दबंग आँगन में कूद जाते, तमंचा दिखाते…! हमारे दाँतों में बँदूक की नली बजती और वहाँ उनका…” लोरिक ने अपनी नजरें फेर ली। उसकी दृष्टि में सोन का पानी तेजाब के मानिंद चिलचिलाने लगा।

“यह घर-घर में होता लला। लड़ो तो मुँह में बंदूक सटा कर मनमानी करता, पड़े रहो तो बँदूक हटा कर मनमानी करता। और इ सब बस्तीवाला, अपनी माँ का यार सब, दिन में हम जैसी को पापिन ठहराता और रात होते ही इनका सत्त इनकी गांड में घुस जाता। भगवान का भी सहारा नहीं था! कोई जान दे देती, किसी की जान ले ली जाती। हम? हम पहले लड़े…फिर पड़े रहा करते। देखा, बिनोद हमसे आँखें चुराता है? अब कोई आस नहीं। तो हम उन लोग को मजा देने लगे…वो मजा देते कि बाबू लोग मार सिसकारी…। सोने का बहाना बनाये घर के लोग खटिया पर करवट बदलने लगते। फिर हमारे यहाँ रात में चोर का कूदना बँद हो गया। अब उ लोग हमको पूरी इज्जत से अपने साथ लिवा ले जाते, सुबह बस्तीवालों के सामने घर छोड़ जाते। जब तुम लोग की आँखों में पानी नहीं रहा तो हम ही क्यों पर्दा करें?

ऐसे ही एक बेर भोर में बर्जे से इस पार लौट रहे थे कि पानी के किनारे बिनोद की लाश उतरा रही थी – हम ही उसे सबसे पहले देखे। रात में किसी वक्त जान दे दी थी उसने। उसे बर्दाश्त न हुआ। वह प्यार करता था न? वह जान दे सकता था, किसी की ले न सका! हमारी भी नहीं।” वह चुप हो गयी और नदी को देखने लगी।

लोरिक का कंठ सूख आया। थूक घोंटना उसे काँटे की तरह चुभा। हिम्मत कर के उसने पूछा, “यह सब…?”

लोरिक का इशारा समझ, उसने अपने लहठी भरे हाथ फैला कर देखे, गुलाबी साड़ी की चुन्नट झाड़ी तो पैर में चाँदी की पायल चमक उठी। वह तंज से मुस्कायी। फिर हाथ पीछे कर के दिखाया, “वह देखो कितने मजे का घर चुनवा दिये हैं बाबू लोग – मेरा है।”

“कितने यार पाली हो?” लोरिक ने वितृष्णा से भर कर पूछा।

“यार और यार के यार…पुलिस, नेता, अफसर, जिन्हें जब खुश करना हो। चाहो तो तुम भी आजमा सकते हो?” उसने चुनौती दी।

“ऐसी गंदी बात?…खबरदार!” लोरिक भिन्ना उठा।

“तुम शहर जाते वक्त इतने से थे, तब भी मेरे साथ गंदा मजाक करते थे। अभी-अभी तुमने मुझे माल्दह आम बताया, चखोगे नहीं?”

लोरिक आगबबूला हो कर गरजा – ” तब तुम मेरी भौजी थीं, बिनोद था। अब वह नहीं है!”

वह तमक कर बोली – “हाँ, तब तुम भी खबरदार जो हमें भौजी बुलाये। बिट्टू देवी नाम है मेरा। इलाके में रहना है तो इज्जत से नाम लेना!”

लोरिक दंग देखता रह गया। बस्ती थोड़ी दूरी पर थी। उसने पूछा, “पानी पिलाओगी?”

बिट्टू ने पास रखी कलसी उठायी और पानी भरने लगी। लोरिक सूट-केस पहले ही नीचे रख चुका था। अब उसने अपनी पीठ पर टँगा गिटार उतारा। कँधे से ढोलक छुड़ा कर जमीन पर रखा। न जाने उसके मन में क्या बात आयी, उसने जैसे स्लो मोशन में अपने पैंट की कमर से कमीज़ छुड़ायी और एक सेमि-ऑटोमेटिक पिस्तौल निकाल कर पास पड़े पत्थर पर रख दी। तेज धूप में नंगी पिस्तौल चमक उठी! बिट्टू ने कनखी से देखा। लोरिक अनजान बना रहा। उसने कमीज़ की बाँहें चढ़ायीं, बिट्टू ने पानी दिया – उसने मुँह-हाथ धोये और जी भर कर पानी पिया। उसने दुबारा एक-एक कर अपना सामान लादा, मानो पिस्तौल से वह लापरवाह हो।

“यह खिलौनवा लेते जाईये लोरिक बाबू। बिस्तर में रोज रात, इससे ज्यादे तेज और बड़ी बँदूक हमरे लात में पड़ी रहती है!” बिट्टू ने अपनी हँसी दबायी।

पिस्तौल उठा कर वह तेज कदमों से अपनी राह पर बढ़ गया। बाप रे! कितना जलील कर सकती है यह औरत? तब न इसके पति ने जान दे दी! वह ऐसी बचकानी हरकत करने ही क्यों गया इसके सामने? लोरिक ने खुद को धिक्कारा।

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यह किससे साबका पड़ा उसका? वह कितना खुश था। किस तरह वह तीन साल जिया, यह वही जानता है। उसने खुद को इस काबिल बनाया है कि सिर उठा कर अपने लोगों के बीच लौट सके। अपने बाप को अपनी शक्ल दिखा सके, उसके हाथ पर अपनी कमाई रख सके। लेकिन अब उसका सारा उत्साह उतर गया है। वह बस्ती की तरफ इस तरह कदम बढ़ा रहा है मानो कल ही वहाँ से गया था, आज लौट रहा है। उसने क्या सोच लिया था, इस दरम्यान उसके लोग अपनी युगीन जिल्लतों से छुटकारा पा चुके होंगे?

बस्ती वैसी ही थी। उसका घर वैसे ही मिला – चिकनी लाल मिट्टी से लीपा, फूस की छत वाला। उसने आवाज देना जरूरी नहीं समझा। वह अंदर चला गया। अंदर उसे कोई दिखाई नहीं दिया। तीन वर्षों में यहाँ  तिनका भर बदलाव भी न होने पाया था। यथास्थान बालू के ढेर पर सुराही टिकी थी, हमेशा की तरह बालू भीना था। हमेशा की तरह सुराही का पानी भी ठंडा होगा। पिछवाड़े, जामुन के पेड़ की छाँव  तले पालतू बत्तखें अल्मुनियम के ढबरे में मांड-भात चुग रही हैं, चूजे इस भोजन से अनमने हुये घूम रहे हैं।

बुढ़ऊ एक वाचाल मेमने को अपनी बगल में दबोचे हुये लौटा। वह उसे पड़ोसी की बगिया से ढूँढ़ कर लाया था, इससे पहले की पड़ोसी को पता चलता और वह कोई टंटा खड़ा करता। बुढ़ऊ ने बाँस की खपच्चियों से बने बाड़े में मेमने को डाला और फाटक को अच्छे से बंद किया। घर के भीतर घुसते ही उसे काठ मार गया। वहाँ एक बक्सा, नया ढोलक, कोंची (क्या चीज) तो काले-लंबे से लिहाफ में दीवार से टिका रखा था?

बुढ़ऊ चिल्लाया – “के है?…कौन घुसा है?”

“काहे हल्ला करते हो, हम हैं, लोरिक।” नंगे बदन, कमर में गमछा लपेटे, कँधे पर धुली व गीली पैंट-शर्ट-अंडरवियर लादे लोरिक बस्ती के सार्वजनिक चाँपा से लौट आया – पहले से अधिक लंबा, स्वस्थ और जवान।

उसने देखा बुढ़ऊ भावनातिरेक में सूखे पत्ते सा काँप रहा है…

लोरिक ने धुले कपड़े पास खड़ी खटिया के पाये पर लादे और लपक कर गीली बाँहों से पिता को अँकवार में भर लिया, कहीं बुढ़ऊ गिर न पड़े!

काली चमड़ी वाले चेहरे की झुर्रियों और गड्ढों में आँसुओं का सैलाब भर आया। बुढ़ऊ की घिग्घी बँध गयी। लोरिक अपनी मजबूत हथेलियों से बुढ़ऊ की छाती और कँधों पर मालिश सा करता रहा – जैसे बुढ़ऊ को अपने होने का दिलासा दिलाता रहा।

“घिस कर आधा हो गये हो, बाबा?”

“हम सोचे तुम…” बुढ़ऊ बोल न सका, उसने आसमान की ओर संकेत किया।

“तुमसे पहले नहीं जायेंगे।” लोरिक हौले से हँसा। हालाँकि जिस बात का उसने बुढ़ऊ को भरोसा दिलाया है उस पर उसे खुद कतई भरोसा नहीं।

“हम का जानते थे कि तुम आओगे! खाने को कुछ न धरा है…” बुढ़ऊ विस्मित हुआ। फिर बोला, “हम कुछ माँग कर लाते हैं…” वह उठने को हुआ।

“ठहरो। जरा शाँत बैठो। खाने को लाई है मेरे पास। पहले चूल्हा सुलगाने दो।” बाड़ पर अपने गीले कपड़े फैलाते हुये लोरिक बोला।

बुढ़ऊ खुश हो गया। बोला, “तुम चूल्हा बालो। हम एक ठो बत्तख मार कर साफ करते हैं – झोर बनायेंगे!” बूढ़ा बेटे के लौटने की खुशी में जश्न मनाना चाहता है।

“मेरा मन नहीं बाबा। अंडा से काम चल जायेगा।” लोरिक ने मना किया। बूढ़े की खुशी में कोई अंतर नहीं आया।

अंतत: जब चूल्हे में आग जल उठी तब अल्मुनियम के काली पेंदी वाले बड़े पतीले में पानी चढ़ा दिया गया। उसी में भात के लिये उसना चावल और बत्तख के पाँच अंडे उबलने के लिये डाल दिये गये। पिता, पुत्र से अपने सुख-दु:ख बताते रहा। लोरिक ने बुढ़ऊ को बताया वह गँगा-पार किसी ट्राँस्पोर्ट कम्पनी में नौकर है। बुढ़ऊ के पूछने पर कि वह क्या करता है वहाँ – उसने जवाब दिया वह हिसाब देखता है, माल चढ़वाने-उतरवाने की निगरानी करता है, उसके मालिक उसे बहुत मानते हैं और बदले में तीन हजार प्रति माह मेहनताना देते हैं। जिम्मेदारी का काम है। – इस बात से बुढ़ऊ सहमत हुआ कि यह तो बहुत जिम्मेदारी का काम है।

यह सब बताते हुये लोरिक गंभीर और सावधान हो जाता है। वह तात्तल (गर्म) भात पर उबला अंडा फोड़ कर सानता है, उसमें सूखी लाल मिर्च-प्याज-लहसुन-नमक पर सरसों तेल चूआ कर बनाया फिफोरा ऊँगलियों से मसलता है। बुढ़ऊ भी यही करता है। दोनों गपा-गप खाते हैं। आह…तृप्ति!

बुढ़ऊ प्रस्ताव देता है कि वह बेटे के लौटने की खुशी में क्यों न मेमना जिबह कर, बिरादरी को भात दे? लोरिक मना कर देता है। अच्छा, कम से कम साह हलवाई की दुकान से बुँदिया छनवा कर ही क्यों न वह दस लोगों में बाँट दे? लोरिक को यह भी नागवार है।

“शाँति से नहीं बैठ सकते? किसका बेटा तीन हजार कमाता है? लोग जलेंगे…फिर वही प्रपँच करेंगे। यह अकल भी हमीं दें तुम्हें? सुख में देह गिरा कर रहना सीखो।”

“एह्ह…बड़ा आया हमें अकल देने वाला…” बुढ़ऊ मुस्काते हुये बड़बड़ाता है। दरअसल उसे अब किसी बात की परवाह नहीं रही। आज उसने ईश्वर को उसकी तमाम ज्यादतियाँ मुआफ कर दी हैं।

लोरिक को दस दिन की छुट्टी मिली है। उसने एक महीने की छुट्टी माँगी थी। लेकिन उसके कमांडर नरेन मुंडा ने उसकी माँग खारिज कर दी। इतनी छुट्टी भी इस निर्देश के साथ मिली है कि उसे अपने क्षेत्र से रँगरूट लाने होंगे। लेकिन कैम्प से चलते वक्त जैसा सोचा था वैसा यहाँ पहुँच कर नहीं हुआ। वह यहाँ आ कर खुश नहीं। उसने बुढ़ऊ को ढोलक दिया, बुढ़ऊ ने झूम-झूम कर उस पर थाप दी। उसने मेले से खरीदा रँग-रोगन का डिब्बा दिया – मेकप का सामान! वहीं पालथी मारे, बुढ़ऊ ने अपना चेहरा पोत लिया और तरह-तरह की अभिव्यक्तियाँ दिखा कर खुश हुआ। लोरिक ने ढोलक बजाया, बुढ़ऊ लँगड़ा-लंगड़ा कर नाचा। दोनों हँसे। बुढ़ऊ की हँसी सच्ची है – किसी मासूम बच्चे सी। लोरिक बुढ़ऊ का दिल रखने के लिये हँसता है। बुढ़ऊ रँगमँच का पुराना कलाकार है, उससे जो चाहे रोल करवा लो, औरत-मर्द – सब में फिट! गाने में, नाचने में, सब में उस्ताद! लेकिन वह पुरानी बात हुयी जब बुढ़ऊ लोक-मंचों का आकर्षण हुआ करता, आस-पास के गाँव-कस्बों के लोग उसे देखने के लिये उमड़ते – चाहे धार्मिक पात्र हो अथवा रामेश्वर कश्यप द्वारा लिखित रेडियो पर प्रसारित होने वाले भोजपुरी नाटक के पात्र लोहा सिंह की नकल हो, बुढ़ऊ का कोई मुकाबला न कर पाता। वह नाम और दाम, दोनों कमाता! …वे दिन अब बीत गये हैं। उसके जीवन में साँझ हो गयी है। अपना पेट पालने के वास्ते वह नदी किनारे थोड़ी सब्जियाँ उगा लेता है, बत्तखें पाल कर उनके अंडे बेचता है, कभी बत्तख या मेमना भी।

लोरिक ने अपने बाप को गिटार बजा कर दिखाया। बुढ़ऊ प्रभावित हुआ। वह बोला, “पहले इ सब कहाँ होता था? अंग्रेजी बाजा है न?”

“हाँ, वहीं खरीदे थे। अपना मन लगाने को।” लोरिक झूठ बोल गया। वह पुराना गिटार था। ट्रेनिंग के दौरान उसके सीनियर, कॉमरेड हेम्ब्रम ने उसके बहुत माँगने पर, दया कर के अपना गिटार उसे दे दिया था। उसने उन्हीं से इसे बजाने का ढंग सीखा था तथा उनसे कुछ धुनें भी सीखी थीं – चर्च में बजने वाला संगीत भी, जिसे हेम्ब्रम ‘कॉयर’ कहा करते।

“कॉयर का ‘हिम’ सुनोगे?”

“वह क्या होता है?”

“ईशु मसीह का भक्ति संगीत।” यह कहते हुये वह गिटार पर धुन बजाने लगा। जरा सी देर बाद वह गाने भी लगा –

“हे निर्मल, हे निष्कलंक, हे…परम दयामय ज्ञानी…”

अजीब सा समाँ बँध गया है। वहाँ के पेड़-पौधों ने पहली बार गिटार की स्वर-लहरी सुनी – बुढ़ऊ ईशु को नहीं जानता, उसने पहली बार ऐसा भजन सुना – लोरिक को ईश्वर मात्र से कोई प्रयोजन नहीं है फिर भी वह निरर्थक ही यह गीत गा रहा है…। ऊपर बैठा प्रभु निष्कलंक है। वह अपने सारे कलंक मनुष्यों पर थोप कर फुर्सत से भजन सुन रहा है।

तीन दिन – तीन रातें लोरिक ने बेजा काटीं। वह खटिया पर पड़े-पड़े सोच रहा है, इसी तरह और दिन भी कट जायेंगे। ऐसे बैठे रहने से कैसे काम चलेगा? वह चाहे अपने लिये घर आया हो लेकिन उसे भेजा तो गया है रँगरूट लाने के लिये! इलाके के लोगों से उसे मिलना ही होगा। उनके बीच पर्चे बाँटने होंगे, भाषण देने होंगे, उन्हें प्रलोभन देना होगा, अपनी खुशहाली का इश्तेहार बयान करना होगा। वे टूटेंगे जैसे भूखे टूटते हैं पूड़ी-बुँदिया के पत्तल पर! –  यह सब उसे अपने लोगों के बीच गुप्त तरीके से करना होगा ताकी बाहरी-जन और पुलिस को भनक न लगने पाये।

रात के अँधेरे में सैकड़ों रोशन बिंदु तरल उड़ानें भरते हैं। सितारों की किसे गरज है जब रात जुगनुओं से जगमगाती हो? नदी की तरफ से हवा चलती है तो उमस का पर्दा हिल-डुल जाता है। हमेशा की तरह, झिंगुरों का कुछ नहीं किया जा सकता! लेकिन मच्छरों को भगाने के लिये खाट के नीचे गोईँठा की धूनी जला छोड़ी गयी है। कोई भटका जुगनु तैरते हुये, लेटे हुये लोरिक के बदन पर उतरता है और मानो तैरते हुये ही ऊपर उड़ जाता है। लोरिक की नींद भी जुगनु हो गई है।…वह कब तक चोर की तरह अपने घर में घुसा रहेगा? न जाने, जो उस दिन उससे सामना हो गया…कि किसी और का सामना करने की उसे हिम्मत नहीं पड़ रही। काश, बिनोद-बिट्टू का हश्र उसे मालूम न हुआ होता! वह साँस ले लेता। उनकी कथा नयी न थी। लेकिन वे दोनों उसके साथी हुआ करते। बिनोद की मौत और बिट्टु के जीवन से वह अछूता नहीं रह सकता।

न जाने क्यों, चिलचिलाती हुयी धूप में जलते बालू पर खड़ी, उसे ललकारती हुयी बिट्टु देवी के बारे में वह जब-जब सोचता है…उसे अपनी माँ याद आती है। एक संशय ने घर बना लिया है उसके मन में। उसे बताया गया है वह दशहरा का दिन था। बुढ़ऊ, नदी पार शहर भोजपुर में रामलीला का आखिरी मँचन कर के देर रात इस पार बस्ती में लौटे थे, लेकिन अकेले! माँ, उनकी साथी कलाकार उनके साथ घर नहीं लौट पायी। कई रोज बाद लोग कहने लगे उस रात माँ सोन में बह गयी….। जो वह आज होती तो क्या वह बिट्टु जैसी होती? न जाने बिट्टु उसे क्यों परेशान करती है? वह जहाँ से आया है, वहीं लौट जाना चाहता है – जँगलों में। उसके ठिकाने बदलते रहते हैं। यदि वहाँ से वह फिर कभी दुबारा यहाँ लौट पाया…यदि…यदिऽऽ…?…

सुबह, चूल्हे के धुँए की गँध ने लोरिक को जगा दिया। जमीन पर पेड़ से टपके हुये पके जामुन पड़े थे। उसने संभल कर खाट के नीचे अपने पाँव उतारे – बत्तख का बच्चा दबने से बच गया, चूजा घबरा कर भागा! लोरिक को हँसी आ गयी। थोड़ी देर बाद जब वह नदी की ओर जाते हुये कच्चे संकरे रास्ते पर उतर रहा था, बत्तखों के दो गंभीर जोड़े उसकी अगुवाई कर रहे थे…वह उन्हें देख मुस्कुराता रहा, चलता रहा। घास भरी ढलान पर एक दूसरे से होड़ लगाती बत्तखें पानी में प्रवेश कर गयीं। ठीक उनके पीछे-पीछे लोरिक पानी में हेल गया। कमर से कँधे तक पानी में जाते उसे देर न लगी…ताजा-दम…छप्-छप्…छप्-छप्…। तैरते हुये वह उस घाट के करीब चला गया जहाँ कुछ औरतें अपनी दिनचर्या में संलग्न दिखायी देती थीं। जैसे ही उसने उनमें बिट्टू को पहचाना वह पलट गया…और उल्टी दिशा में दूर तैरता चला गया।

लोरिक अपने साथ पाँच लड़कों की पहली खेप ले कर लौटा। इस तरह विधाता उन पाँच लोगों का भाग्य दुबारा लिखने के लिये बाध्य हुआ। उन सबके भाई-बँधु जो पीछे रह गये उन्होंने अगली बार जुड़ने का वादा किया और यह वादा भी दिया कि वे इस दरम्यान गुपचुप प्रचार कार्य बढ़ायेंगे और संगठित होंगे। घर-घर में लाल पर्चे पहुँच रहे हैं।

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लेखिका – पल्लवी प्रसाद
मो – 8221048752
ऊना, हिमाचल प्रदेश।

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