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ऋचा की आठ कविताएँ

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पेशे से फ्रेंच अध्यापक ऋचा बंगलौर में रहती हैं, लेखन के जरिये अपने को हासिल करना चाहती हैं. यह कहीं भी प्रकाशित होने वाली पहली रचनाएँ हैं- मॉडरेटर

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एक

सुनो इस तरह
जैसे सुनी जाती है सन्नाटे में पत्तियों की सरसराहट
पूजाघर की घंटी
जब सुनना मात्र क्रिया हो
नीरसता निवास करती हो

दो
टूटी और बिखरी स्त्री का
अस्तित्व मकड़ी के जाले के पहले रेशे की तरह है
जो दिखाई नहीं देता
अस्तित्व के जाल में जकड़ी हुई स्त्री
अंतिम रेशे तक पहुंचने के लिए
ना जाने कितने प्रहार सहती है
प्रत्येक रेशे की रक्षा का भार लिए

तीन
आज सुबह मैं उठी
हताशा ठहरी थी चेहरे पर
मुंह धोने के लिए बेसिन में
झुकी
नज़र पड़ी दीवार के किनारे
एक मकड़ी आ रही थी
झूलती हुई
शायद जाले का पहला रेशा
बनाया होगा उसने
हताशा धुल गई
मैंने जाना
कविता की पहली पंक्ति
मकड़ी के जाले का पहला रेशा है
जो दिखाई नहीं देता
लेकिन जाला पूरा हो जाने पर
मेरी काया पर चमकता है

चार

पीछे देखती हूँ
सुनाई देती है अंधेरे की पदचाप
आगे गहरी नदी
मुझे तैरना नहीं आता
पीछे से गूंजती आती कदमों की आहट
मुझे तैरने की वजह दे जाती है

पाँच

मैंने एक छोटी-सी संदूकची
सम्हाल कर रखी हुई है
उस पर मां का नाम लिखा है
सहेजे हुए संवाद और बिखरी हुई अनकही बातें
प्रतिदिन हुआ फोन
दैनिक संवाद की पुनरावृत्ति
यह संदूकची मेरे
के अधूरेपन से
टकराती है
क्या पता मां
तुमने भी ऐसी कोई डिबिया
संजोए रखी होगी
जिसके ऊपर मेरा नाम लिखा होगा

छह

स्त्री की सहनशीलता
उस पत्थर से अधिक होती है
जिससे किसी देवता की मूर्ति बनती है
देवता की मूर्ति बनाते वक्त
तराशा जाता है पत्थर
चकनाचूर नहीं किया जाता
जब कोई स्त्री
टूटकर बिखरती है
तब वे टूटे हुए टुकड़े
कांच की तरह चुभते हैं उसके पांव में
रसोई से उठती है गरम भाप
चलने के लिए उकसाती है
जिस राह पर पहले कभी उसे
संशय और डर के साए ने घेर रखा था

सात

एक दिन अपने हाथ पर
महसूस हुई कोई नदी
लकीरें लगीं
मानो लहरें
अगर हमारे हाथों पर
नदी बहती
जब मैं तुम्हारा हाथ थामती
नदियां अपना विस्तार लेती चलतीं
दुनिया महासागर का रूप ले लेती

आठ

गणित में कमजोर ही रही
दसवीं के परिणाम जब घोषित हुए
पिता ने कहा था
उन्हें उम्मीद नहीं थी पास होने की
दो और दो सिर्फ़ चार हो सकते हैं
आज भी यह मान नहीं पाती
किसी आकार में ढलने की
इच्छा नहीं होती
कोई घटना
जब त्रिभुज-सी सामने आती है,
उसके तीसरे कोण में
अपने अस्तित्व को अटका हुआ पाती हूँ


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