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आलोचना की विश्वसनीयता हमारे समय की एक बड़ी चुनौती है

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आज पढ़िए गरिमा श्रीवास्तव से संजय श्रीवास्तव की बातचीत। गरिमा श्रीवास्तव जानी-मानी आलोचक, लेखक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं। आप बातचीत पढ़िए- मॉडरेटर

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प्रश्न. आलोचनात्मक लेखन में आपकी रूचि कब और कैसे पैदा हुई ? आप इधर क्या लिख रही हैं ?

उत्तर : आलोचना में में मेरी रूचि आरंभ से ही रही है. मैं शुरू से हिन्दी साहित्य की अध्येता रही हूँ और संयोग से गत दो-ढ़ाई दशकों से बारी-बारी से भारत के तीन बड़े केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य का अध्यापन भी करती रही हूँ. साल-दो साल यूरोप के एक बड़े विश्वविद्यालय में भी प्रोफ़ेसर रही हूँ. साहित्य के विधिवत अध्ययन एवं स्तरीय अध्यापन के लिए आलोचना से जुड़ाव बहुत ज़रूरी है. वजह यह कि साहित्य का आम पाठक किसी रचना को पढ़ने के बाद उसे बहुत अच्छी या सतही बताकर छुट्टी पा सकता है,पर साहित्य के अध्यापक से कृति की अर्थ मीमांसा एवं मूल्यांकन की अपेक्षा की जाती है जिसके लिए उसे कृति के साथ ही उस पर लिखित तमाम उल्लेखनीय आलोचनात्मक निबन्धों, विनिबन्धों, पुस्तकों आदि के आलोक में किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की कोशिश करनी होती है.

इस क्रम में जब मेरे मन में कोई नया विचार कौंधता है तो आलोचना लिखने की ओर प्रवृत्त होती हूँ. किसी नयी-पुरानी रचना पर यूं ही कुछ लिख देना और उसे अच्छा या बुरा बता देना मुझे पसंद नहीं है.इससे आलोचना अविश्वसनीय हो जाती है. आलोचना को विश्वसनीय बनाना हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती है.

आजकल लिखने की तैयारी के क्रम में अन्तराष्ट्रीय स्तर पर स्त्रियों की तस्करी को लेकर कुछ उधेड़बुन कर रही हूँ.

प्रश्न: आपकी कृति ‘देह ही देश’ बहुत लोकप्रिय हुई . हिन्दी में ऐसा लेखन पहले नहीं हुआ है.आपने इसमें भी स्त्री-यातना को केन्द्रीय स्थान दिया है. इसकी वजह क्या है ?

उत्तर:  युद्ध,दंगे और आतंक के माहौल में समाज के कमजोर तबके के लोगों और ख़ास तौर से स्त्री को जिन अमानवीय स्थितियों को झेलना पड़ता है वह अकल्पनीय है.

अपने क्रोएशिया प्रवास के दौरान ऐसी अनेक स्त्रियों से मेरा मिलना हुआ जिनकी गाथा सभ्य कहे जाने वाले योरोप में स्त्रियों की दुर्दशा का कच्चा चिट्ठा खोल देती हैं. अपनी शक्ति और सीमा में इसका अंकन ‘देह ही देश’ में मैंने किया है.

 किसी भी समाज में सबसे कमजोर तबके में स्त्रियाँ आती हैं.पुराने साहित्य में इसका बारहा उल्लेख है कि कैसे विजित राजा की रानियाँ-पटरानियों में से अनेक विजेता राजा की मर्जी के मुताबिक उनके साथ जाने को बाध्य होती थीं.सवाल है कि क्या उन रानियों के सीने में दिल नहीं होता होगा. पेरिस निवासी सुप्रसिद्ध लेखिका Irène Némirovsky  रचित  Suite Française शीर्षक उपन्यास इसका एक उदाहरण है. यदि द्वितीय महायुद्ध को लेकर पुरुषों द्वारा रचित कृतियों से इसकी तुलना करते हुए कोई अध्ययन प्रस्तुत किया जाए तो साफ़ पता चलेगा एक स्त्री लेखक के लिए युद्ध उतना ही नहीं होता जितना पुरुष रचनाकारों के लिए होता है. चूंकि नेमिरोस्की यहूदी थीं इसलिए उन्हें गिरफ्तार करके आउश्वित्ज़ भेजा गया जहाँ उनकी मृत्यु हुई. इसी प्रकार ‘द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल’ में महज तेरह वर्षीय एनी फ्रैंक नाज़ी आक्रमण के भय के तहत अपने परिवार के सदस्यों के फ्रंक्फर्ट से जिन भयावह स्थितियों में एम्स्टर्डम भाग जाने और छिपकर रहने का वर्णन करती हैं वह रोंगटे खड़े कर देता  है. यह डायरी उनके तह्वें जन्मदिन पर शुरू होती है और पन्द्रवें जन्मदिन पर अचानक समाप्त हो जाती है. ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं,पर उस विस्तार में जाने का यहाँ अवकाश नहीं है.

युद्ध में विजेता सैनिकों के लिए कम्फर्ट वीमेन की चर्चा अनेक देशों के सन्दर्भ में होती रही है.मैंने ‘देह ही देश’ में इस पर विस्तार से लिखा है. आतंकवादियों द्वारा भी यौनदासियों को जबरन रखने के किस्से हज़ार हैं. मध्यपूर्व के देशों में यज़ीदी या कुर्द स्त्रियों के साथ आज ‘आईसिस’ जो कर रहा है या तालिबान के शासन में स्त्रियाँ जिन अमानवीय स्थितियों से गुजर रही हैं वह वर्णन के परे है.

प्रश्न: आम तौर पर हिन्दी के रचनाकार अपने जमाने के आलोचकों से असंतुष्ट और कई बार नाराज़ दिखाई पड़ते हैं.ऐसा क्यों होता है ?

उत्तर: यह बात पूरी दुनिया के साहित्य के सन्दर्भ में मात्रा-भेद और गुण-भेद से सही है. सब तो नहीं, पर अधिकतर रचनाकार प्रशंसा के आकांक्षी होते हैं. वे आलोचनात्मक निबंधों में अपना नाम और अपनी कृतियों का उल्लेख ही नहीं,तारीफ़ चाहते हैं. दिनकर जी ने लिखा है कि ‘प्रशंसा कवियों-कलाकारों का आहार है.’ किन्तु,ध्यान रखना ज़रूरी है कि रचना या रचनाकार की आधारहीन प्रशंसा आलोचना को अविश्वसनीय बनाती है.जो खूबी रचना में नहीं है, उसका उल्लेख करनेवाली आलोचना सजग पाठकों के लिए ‘सिर धुनि गिरा लागि पछिताना’ वाली स्थिति उत्पन्न करती है. इसी प्रकार आलोचना-क्रम में किसी श्रेष्ठ कृति का कुपाठ करके अपने दुराग्रह के तहत अवमूल्यन करने की सफल-असफल कोशिश भी ‘मर्द-ए-नादाँ पर कलाम-ए-नर्म-ओ-नाज़ुक बे-असर’ का ही उदाहरण बनकर रह जाने को अभिशप्त होती है.

अज्ञेय की ‘नाच’ कविता को याद करती हुई कहूँ तो आलोचना में संतुलन तनी हुई रस्सी पर चलने के सामान दुष्कर है. बड़े-बड़े आलोचकों के लेखन में श्रेष्ठ कृतियों की अवहेलना या कई बार अन्यथाकरण की स्थिति दिखाई पड़ती है. इसी के साथ बड़े आलोचकों ने कुछ ऐसे रचनाकारों पर भी आशीर्वादी टिप्पणी लिखी है जिनका आज कोई अतापता नहीं हैं.

प्रश्न: अपने आलोचनात्मक लेखन के बारे में कुछ बताइए. आपने किन कृतियों और कृतिकारों पर केन्द्रित आलोचना लिखी है ?

उत्तर: मेरी रूचि शुरू से ही कथालोचन में रही है. आरंभ से ही हिन्दी साहित्य-शिक्षण के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अनुमोदित पाठ्यक्रम काव्य-प्रधान रहा है. हिन्दी के लगभग सारे बड़े आलोचक मुख्यत: कविता के आलोचक रहे हैं. उनमें से जिन लोगों ने कहानी, उपन्यास आदि की आलोचना लिखी है उसके बारे में कहा जाता है कि उसमें काव्यालोचन की युक्तियों का अनुप्रयोग हुआ है.

ऐसे में कथालोचन के क्षेत्र में काम करना मेरे लिए बेहद उत्तेजक और चुनौतीपूर्ण रहा है. कथालोचन का श्रीगणेश मैंने कृष्णा सोबती से किया था.उनके साहित्य का वर्षों विधिवत अध्ययन और उनकी रचनाओं पर लेखन एक बड़ी चुनौती थी. वजह यह कि दिल्ली विश्वविद्यालय के मेरे गुरुओं और अन्य साहित्यिक मित्रों के आलावा मेरे लेखन को खुद कृष्णा जी की नज़र से भी गुजरना था और वे बड़े से बड़े प्रोफेसर की बखिया उधेड़ने में नहीं हिचकती थी.इसलिए उन पर लिखना चुनौतीपूर्ण था.

आगे चलकर मैंने किसी एक रचनाकार के बजाए युगीन और ख़ासकर स्त्री जीवन की विडम्बना को उजागर करनेवाली कृतियों को अपने कथालोचन का विषय बनाया. ‘चुप्पियाँ और दरारें:मुसलमान स्त्रियों की आत्मकथाएं’ शीर्षक  विनिबन्ध इसी का सुफल है. इसमें मैंने उन स्त्रियों के मसले पर विचार किया है जिनको लेकर साहित्य-जगत में चुप्पी छाई हुई थी. जाहिर है कि केवल साहित्य के दायरे में रहकर इस मुद्दे पर लिखना असंभव है. साहित्य का समाजशास्त्र,इतिहास आदि समाज विज्ञान से जुड़े विषयों में मेरी दिलचस्पी रही है. इसलिए आत्मकथाओं पर एक नये नज़रिए से विचार करना मेरे लिए संभव हो पाया.

याद आते हैं मुक्तिबोध जिन्होंने लिखा है कि जो लेखक साहित्य से जितना बाहर जाएगा उसमें अच्छा लेखक बनने की उतनी ही संभावना होगी. इस विनिबन्ध लेखन के लिए विवेच्य आत्मकथाओं के साथ-साथ इतिहास, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन भी अपरिहार्य था. बहरहाल, साहित्य के अनेक गंभीर पाठकों द्वारा इसे पसंद किया जाना मेरे लिए संतोषप्रद रहा.

प्रश्न: आपने जिस विषय पर लिखा है उसे स्त्री-जीवन से किसी न किसी रूप में अवश्य जोड़कर लिखा है. यह स्त्रीवादीवादी विचारधारा के दबाव के तहत हुआ है या कोई और बात है.

उत्तर:  पहली बात यह है कि मैंने केवल स्त्रियों के बारे में नहीं लिखा है. किशोरीलाल गोस्वामी और लाला श्रीनिवासदास पर भी लिखा है जो विनिबंध के रूप में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित है. स्त्री-जीवन से सायास जोड़कर मैंने कुछ नहीं लिखा है. वह स्वाभाविक रूप से स्वत: जुड़ गया है.मामला आधी आबादी का है जिसकी और उपेक्षा करने का दुस्साहस आज पुरुष लेखक या आलोचक भी नहीं कर सकते. पहले यह माना जाता था कि सबकी मुक्ति एक साथ होगी. इसलिए अलग से स्त्री-मुक्ति की बात करना बहुत ज़रूरी नहीं है. धीरे धीरे यह समझ में आ गया कि जो चीज़ प्रक्रिया में शामिल नहीं होती वह परिणाम का हिस्सा भी नहीं हो सकती. इसलिए सदियों से हाशिए पर खड़े रह जाने के लिए मजबूर समुदायों की समस्याओं को उजागर करना हमारे समय के लेखकों के लिए अस्वाभाविक नहीं है.

कोई भी श्रेष्ठ लेखन केवल किसी विचारधारा से निर्देशित या उसका अनुवाद नहीं होता है. कई बार बेहतर साहित्य लेखक की विचारधारा के बावजूद संभव हो जाता है. सच तो यह है कि विचारधारा भी केवल विचारों की धारा नहीं होती. वह रचनाकार या आलोचक की विश्वदृष्टि के तहत निर्मित होती है जिसमें उसके भाव-बोध,जीवन-जगत से प्राप्त कटु-मधु अनुभव,परिवेश,जीवन मूल्य आदि का युगपत समीकरण झलकता है. इसलिए स्त्रीवादी विचारधारा के दबाव के बजाए अवधारणा को अवबोध में तत्त्वान्तरित करके ही सृजन संभव है.

प्रश्न: हिन्दी नवजागरण पर भी आपकी पुस्तक स्त्री प्रश्न पर केन्द्रित है.इसकी कोई ख़ास वजह ?

उत्तर: उस पुस्तक का नाम है –‘हिन्दी नवजागरण: इतिहास गल्प और स्त्री प्रश्न’. इसकी ठोस वजह है. हिन्दी में डॉ.रामविलास शर्मा एवं नामवर सिंह जी ने हिन्दी नवजागरण पर लिखते हुए स्त्री प्रश्नों को थोड़ा-बहुत रेखांकित तो किया है,पर उस पर विस्तार से नहीं लिखा है. वहाँ विमर्श मूलत: पुरुष केन्द्रित है. इसलिए स्त्री प्रश्न पर सविस्तार विचार करते हुए हिन्दी नवजागरण की उपलब्धियों के साथ ही उसकी सीमाओं की शिनाख्त मुझे ज़रूरी लगा. कहने की ज़रूरत नहीं कि कविता के मुकाबले कथा साहित्य का इतिहास से गहरा नाता हुआ करता है. इतिहास पर संवेदना का जब आरोप होता है तब उपन्यास का जन्म होता है. सवाल उठता है कि क्या इतिहास की गति को व्यापक मानवता के हित में विकासोन्मुख बनाने में स्त्रियों की कोई भूमिका नहीं थी ?  अगर थी तो उसका क़ायदे से उल्लेख किया जाना बेहद ज़रूरी है.इसलिए हिन्दी नवजागरण के अग्रदूतों में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे तमाम पुरुष लेखकों के साथ श्रीमती हरदेवी को भी रखना होगा. उसके बगैर हिन्दी नवजागरण पर संवाद का वृत्त पूरा नहीं हो सकता. इसीलिए मैंने ‘हरदेवी की यात्रा’ शीर्षक से एक किताब लिखी है जो ‘सेतु प्रकाशन’ से छपी है. इसके अलावा ‘श्रीमती हरदेवी’ पर अलग से विनिबन्ध भी लिखा है जो साहित्य अकादेमी से प्रकाश्य है.

हिन्दी नवजागरण और स्त्री शृखला में मैंने सात पुस्तकें सम्पादित की हैं जो ‘नई किताब’ प्रकाशन से छपी हैं. इसमें अनेक स्त्री कवियों की रचनाएं भी शामिल हैं जो लगभग भुला दी गयी हैं. ‘हिन्दी काव्य की कलामयी तारिकाएँ’, ‘हिन्दी काव्य की कोकिलाएं’ और ‘स्त्री कवि संग्रह’ जैसे सम्पादित-प्रकाशित संकलन इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. उस जमाने की कविता की चर्चा के दौरान लोग श्रीधर पाठक और गुलाबरत्न वाजपेयी का तो नाम लेते हैं पर विद्यावती कोकिल का उल्लेख करना ज़रूरी नहीं समझते.

प्रश्न: इतिहास पर चर्चा के दौरान अक्सर स्त्रीवादी इतिहास-दृष्टि की ज़रूरत पर बल दिया जाता है. यह स्त्री-दृष्टि कैसे पुरुष-दृष्टि से भिन्न है ? क्या स्त्रियों की दृष्टि में एकरूपता होती है ? मार्क्स ने सारे दुनिया के मजदूरों से एक हो जाने का नारा दिया था. क्या सारी दुनिया की स्त्रियों को लेकर यही बात कही जा सकती है ? क्या स्त्रीवादी आलोचकों द्वारा स्त्री-साहित्य का समुचित मूल्यांकन किया जा रहा है ?

उत्तर: स्त्री के सन्दर्भ में इतिहास-दृष्टि का प्रश्न बेहद जटिल है. वजह यह कि वर्ण,वर्ग आदि के साथ जब जेंडर का मामला जुड़ जाता है तब इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों की मुश्किलें कुछ और बढ़ जाती है.यह सुखद है कि समाजविज्ञान के क्षेत्र में सबालटर्न  नज़रिए से काफी काम हो रहा है जो प्रोफ़ेसर अभय कुमार दुबे सरीखे इक्का-दुक्का समाजविज्ञानियों की पुस्तकों को छोड़कर  मूलत: अंग्रेज़ी में प्रकाशित है.उनमें से कुछ के हिन्दी अनुवाद इधर छपकर आए हैं.

कालिदास के नाटक की शकुन्तला पर संस्कृत और भारतीय भाषाओं के साथ ही अंग्रेज़ी में काफी लिखा गया है. कितु,प्रोफेसर रोमिला थापर ने जब कालिदास की शकुन्तला पर  कुछ व्याख्यान दिए जो बाद में छपे भी , तो उसमें स्त्री-दृष्टि से उस कृति का विश्लेषण किया.

ठीक ही इतिहास-लेखन को विचारधाराओं का कुरुक्षेत्र कहा जाता है जिसमें सबके द्वारा अपना-अपना महाभारत लड़ा जाता है और विचित्र बात है कि सब के सब अपने –अपने युद्ध को धर्मयुद्ध ही मानते  हैं.

वर्ण-जाति और वर्ग की तरह जेंडर से जुड़े अनेक पूर्वाग्रह समाज में व्याप्त हैं.गोस्वामी जी जब मंथरा की विकलांगता का उल्लेख करते हुए उसे दुष्ट बताने का उपक्रम करते हैं तो उसके जेंडर को ख़ास तौर से रेखांकित करते हुए ‘तिय बिसेषि पुनिचेरि कहि भरतमातु मुसुकानि’ लिखते हैं.

याद रहे कि ऐसी अनेक पंक्तियों से गोस्वामी तुलसीदास की मानसिक संरचना के बजाय तत्कालीन सामाजिक संरचना में स्त्री को लेकर गहरे तक पैठे पूर्वग्रह का परिचय देने वाली पंक्ति है. लुसिएँ गोल्डमान ने उत्पत्तिमूलक संरचनावाद के सन्दर्भ में लिखा है कि रचनाकार की कृतियों में जो संरचना दिखाई पडती है वह पहले से समाज में मौजूद होती है.लेखक उसकी शिनाख्त का गवाह भर होता है.

कभी-कभार पुरुष रचनाकारों और ख़ास तौर से आलोचकों में स्त्री की जयजयकार करने की जो प्रवृत्ति दिखाई पडती है उसके पीछे भी पूर्वग्रह हुआ करते हैं.स्त्रियों के बीच पेशेवर परस्पर इर्ष्या –द्वेष भी कम नहीं है.सच तो यह है कि हर रचनाभियान की तरह स्त्रीवादी लेखन को भी अपने आलोचक पैदा करने होंगे.तभी सही स्त्री-लेखन के सही मूल्यांकन की कोई सूरत बन सकती है.सुमन राजे ने अपनी शक्ति और सीमा में ‘हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास’ लिखकर इस कमी को पूरा किया है.

 इस क्रम में सबसे बड़ी बाधा स्वस्थ संवाद की अनुपस्थिति को लेकर पैदा होती है.कहने की ज़रुरत नहीं है कि बगैर स्वस्थ संवाद के श्रेष्ठ आलोचना नहीं लिखी जा सकती. संगोष्ठियाँ एक तो कम होती हैं और अगर होती भी हैं तो उनमें स्त्री लेखकों और आलोचकों की भागीदारी नगण्य होती है.एकाध सत्र में उन्हें शोभा की वस्तु के रूप में मंच पर बिठा दिया जाता है जिसमें वे ‘जोई सोई कछु गावे’ के अंदाज़ में कोई सार्थक बात करती दिखाई नहीं पडतीं. संगोष्ठियों में भागीदारी करनेवाली स्त्री को लेकर कई बार लोग अपने विकृत मनोरंजन के लिए तरह-तरह के प्रवाद भी गढ़ते और फैलाते पाए जाते हैं.दुखद है कि कभी-कभार ऐसी बेबुनियाद बातों को गढ़ने में कुछ पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रस्त स्त्रियों की भी भूमिका होती है.

यह सवाल बेहद उत्तेजक पर जटिल है कि स्त्री-दृष्टि कैसे पुरुष दृष्टि से भिन्न है. याद रहे कि स्त्री या पुरुष होने के पहले दोनों प्रांत: एक मनुष्य हैं.इसलिए बहुत सी बुनियादी बातें दोनों के सन्दर्भ में सच है. किन्तु, जेंडर-भेद के कारण दृष्टिकोण में जो भिन्नता पैदा होती है वही स्त्री दृष्टि को पुरुष-दृष्टि से अलग करती है. लेखन में भाषणधर्मिता और संवादधर्मिता के बीच का फर्क क्रमश: पुरुष और स्त्री-दृष्टि के बीच अंतर की रचनात्मक फलश्रुति है. इसी प्रकार आक्रामकता और सहनशीलता को अगर लें पुरुष और स्त्री मनोविज्ञान के बीच का अंतर कुछ स्पष्ट हो सकता है.किन्तु,इसका यह मतलब नहीं कि पुरुष में सहनशीलता और स्त्री में आक्रामकता होती ही नहीं. गांधी के बारे में कहा जाता है कि वे खुद अपने बच्चों के पिता के साथ कुछ-कुछ माँ भी थे. बड़े रचनाकार भी लेखन में अपने वर्ण,जाति,वर्ग और जेंडर की सीमाओं का अतिक्रमण करते रहे हैं.फिर भी गहरे पैठने पर शेष के तौर पर जो प्राप्त होता है उसमें कई बार उनका जेंडर बोलता है. प्रेमचन्द के गोदान में प्रोफ़ेसर मेहता का वह ब्यान याद कीजिए जिसमें वे कहते हैं कि पुरुष जब नारी के गुण लेता है तब वह देवता बन जाता है, किन्तु नारी जब नर के गुण सीखती है तब वह राक्षसी हो जाती है। सवाल है कि क्या कोई जागरूक स्त्री लेखक ऐसा कह पाएगी.

कहना यह है कि जिस दिन स्त्री आलोचना के अपने मानदंड विकसित हो जाएंगे उस दिन सौंदर्यशास्त्र के बहुत से मानक बदल जाएंगे जिन पर हमें नाज है.

प्रश्न: आपके रचनात्मक लेखन में भी प्रखर शोध का ताना-बाना झलकता है. उपन्यास की एक मुख्य  पात्र भी अकादमिक जगत से उभरी है जो कथा-सूत्र का संचालन करती है. इस सन्दर्भ में आप कुछ कहना चाहेंगी.

उत्तर: आपने दुरुस्त फरमाया कि मेरे रचनात्मक लेखन में भी ‘प्रखर शोध का ताना-बाना’ दमकता है. सच तो यह है कि बगैर पर्याप्त शोध के कोई सार्थक कृति नहीं लिखी जा सकती.जो लेखक अपने समय-समाज की संरचना की गहरी जानकारी रखता है वही अच्छी कृति रच सकता है. केवल लिजलिजी भावुकता के भरोसे  जो रचनाएँ लिखी जाती हैं उनमें जीवंतता कमी होती है..

 किन्तु, यह कहना एक सीमा तक ही सही होगा कि मेरी रचनाओं में अकादमिक जगत से उभरी एक स्त्री पात्र ही कथा की सूत्रधार है.वस्तुत: रचनाकार जिस किसी पात्र को रचता है उसके व्यक्तित्व में अगर वह पूरी तरह खुद को निमज्जित नहीं कर पाता तो जीवंत पात्र की सृष्टि करने में वह सफल नहीं हो सकता. उदाहरण के लिए ‘आउश्वित्ज़ : एक प्रेम कथा’ उपन्यास को लीजिए. उसमें प्रतीति सेन, रहमाना खातून और सबीना –तीनों पात्रों को बड़े जतन से रचा गया है और लेखन-क्रम में इन तीनों पात्रों के साथ ही नैतिक साहस की कमी से पीड़ित बिराजित सेन जैसे पुरुष पात्र की अंतरात्मा में गहरे उतरकर कथा निर्माण की प्रक्रिया को मंतकी अंजाम तक पहुंचाया गया है.कीट्स ने लिखा है कि रचनाकार में एक ख़ास तरह की ‘नेगेटिव कैपेबिलिटी’ हुआ करती है जिसके तहत रचना-क्रम में वह वैसा हो सकता है जैसा वह वास्तविक जीवन में नहीं होता.जाहिर है कि हर रचनाकार अपनी शक्ति और सीमा में यह काम पर पाता है.मुझे इसमें कितनी सफलता मिली है इसका निर्णय  प्रबुद्ध पाठक करेंगे.

प्रश्न: हिन्दी में ज़्यादातर रचनाकार एवं आलोचक मध्यवर्ग से आते हैं. स्त्री-लेखन का भी बड़ा हिस्सा मध्यवर्गीय स्त्रियों द्वारा रचित है.क्या मध्यवर्गीय पूर्वाग्रह स्त्री-लेखन को भी प्रभावित करते रहे है ?

उत्तर: वर्गों,वर्णों और सम्प्रदायों के बीच सेतु निर्माण में सबसे बड़ा अवरोध रचनाकार का अपने  वर्ग,वर्ण और सम्प्रदाय के साथ ही जेंडर के तहत उत्पन्न सहज-स्वाभाविक पूर्वग्रहों को दुराग्रह का शिकार हो जाने से बचा नहीं पाना हुआ करता है.मध्यवर्ग की मानसिक संरचना उच्च  वर्ग या निम्न वर्ग की तुलना में ज़्यादा जटिल होती है.मध्यवर्गीय स्त्री या पुरुष  एक ही साथ आदर्शवादी और समझौतावादी,दोनों हो सकता है. उसमें धन.पद,पतिष्ठा,पुरस्कार आदि पाने की लालसा अनंत होती है.जब उसे यह नहीं मिलता तो वह तथाकथित क्रांतिकारी भाषा में व्यवस्था के प्रति अपना गहरा असंतोष व्यक्त करता है और लाभ-लोभ के व्याकरण के तहत अपना सुर बदलकर राग दरबारी गाने लग जाता है.विवादास्पद मुद्दों पर काष्ठमौन धारण कर लेना उसकी रणनीति हुआ करती है.यदि रचनाकार स्त्री है तो वह समाज के पितृसत्तात्मक मिजाज़ को देखते हुए अपने जेंडर का भी यथास्थान इस्तेमाल करने से बाज नहीं आती.इसलिए मध्यवर्गीय स्त्री या पुरुष लेखकों,सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं से बहुत उम्मीद करना बेमानी है.

बावजूद इसके मायूसी फैलाना कुफ्र होगा. सच्चाई का एक पहलू यह भी है कि दुनिया-भर में ज़्यादातर परिवर्तनकामी स्त्री-पुरुष मध्यवर्ग से ही पैदा होते रहे हैं. सिमोन हों या उनसे पूर्व ‘शृंखला की कड़ियाँ’ में  स्त्री-प्रश्नों को जोरदार ढंग से उठाने वाली महादेवी वर्मा हों, इनका जन्म किसी रजवाड़े में नहीं हुआ था.

प्रश्न: आपने हिन्दी लेखन में वैश्विक परिदृश्य को वृहद आयाम दिया है.आपके उपन्यास ‘आउश्वित्ज़ : एक प्रेम कथा’ में स्थानीयता भी है जिसे आप अंतर्देशीय सन्दर्भ से जोडती हैं. ऐसे में अभिव्यक्ति और पाठ के बीच हिन्दी समाज की सहचारिता आपको कितना आश्वस्त करती है ?

उत्तर:

प्रश्न: आपने सिमोन द बोउआर की कृति ‘अ वेरी इजी डेथ’ का अनुवाद भी किया है . इस सन्दर्भ में पहला सवाल अनुवाद में कृति के नाम को ज्यों का त्यों रख देने को लेकर है. दूसरा सवाल यह कि कला-साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में अनुवाद की राजनीति कैसे काम करती है. महादेवी वर्मा की ‘शृखला की कड़ियाँ’ का लेखन-प्रकाशन ‘द सेकेण्ड सेक्स’ से पहले का है,पर क्या अनुवाद की राजनीति के कारण वह महान कृति उपेक्षित रही ? यह बात क्या सम्पूर्ण भारतीय साहित्य पर भी  लागू होती है ?

उत्तर: क्रोएशिया प्रवास के दौरान मैं सिमोन की आत्मकथा के एक अंश ‘अ वेरी इजी डेथ’ का तर्जुमा भी कर रही थी जो पुस्तक के  साथ ही ईबुक रूप में भी प्रकाशित है.वह कृति मुझे बेहद मार्मिक लगी और मैं उसका अनुवाद करने बैठ गयी. आत्मकथा का वह अंश सिमोन की कैंसर से पीड़ित माँ की मृत्य का मार्मिक विवरण प्रस्तुत करता है. दुर्भाग्यवश 78 वर्ष की आयु में उनकी माँ के जांघ की हड्डी का उपरी हिस्सा टूट गया था जिसकी सर्जरी के दौरान डॉक्टर को उनके कैंसर से पीड़ित होने का इल्म हुआ. कैंसर बहुत भयानक था और तेज़ी से फ़ैल रहा था और उस दौरान सिमोन और उनकी बहन माँ के साथ अस्पताल में देखभाल के लिए लगातार  रहीं.जिस रात माँ का निधन हुआ सिमोन की बहन उनके पास थीं.

इस कृति का शीर्षक अत्यंत व्यंजक है.कैंसर से पीड़ित एक बुजुर्ग का निधन किसी भी तरह से ‘इजी डेथ’ नहीं कहा जा सकता. किन्तु सिमोन इसमें लिखती हैं कि अंतत: मृत्यु सबको लील लेती है,पर अंतिम दिनों में समुचित देखभाल के लिए प्रियजनों का पास  होना सबके भाग्य में नहीं होता. इसी अर्थ में एक पीड़ादायक मृत्यु को लेखिका ने ‘इजी डेथ’ कहा है.

एक दिन जब सिमोन की बहन माँ से कहती हैं कि ‘आपने आज खूब अच्छी नींद ली’ तो माँ का उत्तर था कि ‘आज का दिन मैंने नहीं जीया.’ यह एक बीमार और बुजुर्ग महिला की जीजिविषा का प्रमाण है.

मैंने अनुवाद करने के साथ पुस्तक की एक लम्बी भूमिका भी लिखी है और जिज्ञासु पाठकों को वहां अनेक विचारणीय बिंदु मिल जाएंगे जिससे इस  कृति का पठन-पाठन उनके लिए कुछ और सार्थक बन पड़ेगा .

इस पुस्तक की रचना-प्रक्रिया पर अगर दृष्टि डाली जाए तो माँ की सेवा-सुश्रुषा करती हुई सिमोन की रचनाकार में जो निर्वैयक्तिकता है,उनकी जो बारीक पर्यवेक्षण क्षमता है –उसका लोहा मानना पड़ता है.यह ठीक ही कहा गया है कि सच्ची निर्वैयक्तिकता किसी लेखक में तब पैदा होती है जब वह वैयक्तिकता की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है.

अनुवाद के दौरान मूलत: फ्रांसीसी भाषा में रचित इस नायाब किताब के अंग्रेज़ी में अनूदित पाठ से गुजरते हुए कई बार पैदा हुई उलझनों को दूर करने में जाग्रेब विश्वविद्यालय में अस्थायी रूप से कार्यरत एक फ्रेंच भाषा-भाषी प्रोफेसर मित्र की जो मदद मिली जिसके लिए धन्यवाद बहुत छोटी शब्द है.इससे लाभ यह हुआ कि इस कृति के हिन्दी में अनूदित पाठ का वाक्य-विन्यास अंग्रेज़ी के बजाय फ्रेंच के करीब रखना संभव हो सका.

 बेशक अनुवाद की अपनी राजनीति हुआ करती है और विउपनिवेशीकरण के तमाम दावे के बावजूद  भाषिक वर्चस्व एक क्रूर सत्य है. डॉ.लोहिया कहा करते थे कि अगर दुनिया में गोरे के बजाय काले लोगों का राज होता तो आज काला रंग ही सुन्दर माना जाता.

इसी तर्ज़ पर कहने को जी चाहता है कि अगर औपनिवेशिक शक्तियों की भाषा हिन्दी या फारसी होती या भारत भी ब्रिटेन,फ्रांस,जर्मनी आदि की तरह विकसित देश होता तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक-सांस्कृतिक परिदृश्य वह नहीं होता जैसा आज है.विकसित देशों की भाषाओं में जो साहित्य लिखा जाता है वह पहले अंग्रेज़ी और आगे विश्व की अन्य भाषाओं में अनूदित होकर पूरी दुनिया के पुस्तक बाज़ार में उपलब्द्ध हो जाता है.इसी के साथ ‘टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट’ या ‘वाशिंगटन पोस्ट’ जैसे कुछ बेहद अच्छे अखबारों  में छपी उनकी समीक्षाएं और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों की वजह से एक अच्छी साहित्यिक कृति की कई मिलियन प्रतियां आनन फानन में बिक जाती हैं.

मुझे लगता है कि अगर ‘श्रृंखला की कड़ियाँ’ छपते ही अंग्रेज़ी और विकसित देशों की भाषाओं  में अनूदित हो जाती तब भी उसे वह ख्याति शायद नहीं मिलती जो सिमोन की ‘द सेकेण्ड सेक्स’ या केट मिलेट की पुस्तकों को मिली है. कारण स्पष्ट है.

कहा जाता है कि शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं. क्या यह सच नहीं है कि शासक वर्ग की भाषा भी शासक भाषा होती है.

विचित्र बात है कि जिस उपनिवेशवाद को एक जमाने में समाप्त हुआ सा मान  लिया गया था वह फिर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक आदि के माध्यम से विकासशील देशों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है और अब तक इसकी कोई काट नहीं दिखाई पड़ रही है.

अपने देश में संस्कृत, तमिल आदि अति प्राचीन भाषाओं के रचित महान साहित्य के साथ ही विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित श्रेष्ठ साहित्य की मौजूदगी के बावजूद अंग्रेज़ी में लिखने वाले छुटभैये लेखकों  की प्रतिष्ठा सर्वविदित है. आजकल एक मनोरंजक स्थिति भी दिखाई पड़ती है जहाँ बिलकुल नया कवि अपनी किसी कविता या कहानी को अंग्रेज़ी या किसी विकसित देश की भाषा में अनूदित देखने को बेचैन हो जाता है.

याद रहे कि प्रोफ़ेसर मैनेजर पाण्डेय ने ‘तद्भव’ में जब ‘शृंखला की कड़ियाँ ‘ के महत्त्व पर विचार करते हुए एक ज्ञानवर्धक आलेख लिखा तब हिन्दी जगत में उसकी क़ायदे से नोटिस ली जाने लगी.

प्रश्न. आगामी लेखन  को लेकर आपकी कोई ठोस योजना हैं ?

उत्तर : केदारनाथ सिंह की ‘मुक्ति’ कविता की एक पंक्ति है: ‘मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला तो मैं लिखने बैठ गया हूँ.’ कुछ न कुछ पढ़ना-लिखना होता ही रहता है.ऐसे आजकल मैं कन्नड़ स्त्री आत्मकथाओं पर काम कर रही हूँ और जैसा कि मैंने पहले बताया कि स्त्रियों की ट्रैफिकिंग को लेकर कुछ ठोस काम करने की योजना है.

 


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