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बलात्कार, कुछ दिन का शोर और फिर चुप्पी ही चुप्पी

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इस समाज में स्त्री कहाँ सुरक्षित है? घर, बाहर, शिक्षण संस्थान या कोई भी संस्थान, पुलिस स्टेशन, जिसका काम ही है सुरक्षा देना या कहीं भी औरपिछले दिनों कलकत्ता में जो हुआ उससे यह ध्यान आया वाजिब है कि इसके पहले भी इस तरह की घटनाएँ हुई हैं, उनका क्या हुआ? कुछ दिनों का शोर और फिर सब शांत? इन्हीं सवालों से जूझते हुए अनामिका झा अपना अनुभव हम सबके साथ साझा कर रही हैं। आइए पढ़ते हैंअनुरंजनी

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निर्भया और बिलकिस बानो की याद में

आज हम ‘आरजी कर मेडिकल कॉलेज’ की ट्रेनी डॉक्टर के साथ बर्बरता से हुए बलात्कार और उसके बाद हत्या के खिलाफ़ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं, उसके लिए न्याय माँग रहे हैं, अपना आक्रोश और विद्रोह प्रकट कर रहे हैं। एक अस्पताल में कार्यरत ट्रेनी डॉक्टर के साथ ऐसी बर्बर और जघन्य घटना होना हमारे सामने तीन बड़े सवाल खड़े करती है। पहला यह कि अगर कोई महिला अपने कार्यस्थल पर भी सुरक्षित नहीं है तो फिर और कहाँ होगी? दूसरा यह कि यदि डॉक्टर के रूप में कार्यरत महिला के साथ भी ऐसी घटना हो सकती है, जबकि यह एक ‘कुलीन’ पेशा माना जाता है, तो फिर जो महिलाएँ या बच्चियाँ ऐसा काम करती हैं जिन्हें समाज की नज़रों में ‘खराब या छोटा–मोटा’ काम समझा जाता है, उनके साथ कार्यस्थल पर कैसा व्यवहार किया जाता होगा? तीसरा यह भी कि यदि यह बर्बरता किसी डॉक्टर के साथ नहीं हुई होती तो क्या यह मामला इतना तूल पकड़ता? ऐसे ही न जाने कितनी लड़कियाँ ‘पावर डायनामिक्स’ के बीच पिस जाती हैं! कोई और मामला इतना तूल नहीं पकड़ता, इसका संकेत यह भी है कि बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में एक दलित लड़की को अगवाह कर उसके साथ सामूहिक बलात्कार तथा हत्या की ख़बर किसी मुख्यधारा मीडिया (जो कि पिछले दस साल से सोई हुई है या सत्ता पक्ष की चाटुकारिता में ही व्यस्त है) के द्वारा शायद ही प्रसारित की गई है।

जहाँ तक बात है आज के इस आक्रोश की– इसका कुछ खासा असर समाज पर नहीं पड़ेगा, अब तक की प्रतिक्रियाओं को देख कर ऐसा ही लगता है। लोग आज आक्रोश में हैं, और दस दिन, एक महीना रहेंगे फिर भूलने लगेंगे। यह आक्रोश की भावना कम हो जाएगी। लोगों के लिए सब सामान्य हो जाएगा। याद रखेंगे तो बस कुछ चुनिंदा लोग ही। नए कानून बनाए जाएँगे लेकिन फिर भी लड़कियों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकेगी। बेहद निराशा और नाउम्मीदी के साथ यह बातें कहानी पड़ती हैं क्योंकि लगता नहीं कि कुछ भी बदलेगा! इतने सालों में क्या बदला? निर्भया के साथ क्या हुआ? बिलकिस बानो के साथ क्या हुआ? हाथरस में, कठुआ में क्या हुआ? हमारे देश की पहलवानों के साथ क्या हुआ? जब ठीक दो साल पहले बिलकिस बानो के बलात्कारियों को रिहा कर दिया गया था तब बिलकिस के ग्यारह बलात्कारियों का स्वागत फूल-मालाओं से किया गया था। यहाँ तक कि बिलकिस के बलात्कारियों के ब्राह्मण होने के कारण अच्छे संस्कार होने का हवाला भी दिया गया था! तब यह आक्रोश कहाँ था? तब क्यों जनता सड़कों पर नहीं उतरी? हमारे समाज की दिक्कत यही है कि हम ‘सेलेक्टिव’ आज़ादी की बात करते हैं, हम यह भूल जाते हैं कि अपनी आज़ादी के लिए हमें दूसरे की आज़ादी में भी शामिल होना पड़ेगा।

मेरी दिलचस्पी पहले देश–दुनिया–राजनीति की गतिविधियों में या ख़बरों में इतनी नहीं होती थी। इसका कारण मेरे बचपन यानी स्कूल के दिनों की एक घटना से जुड़ा है। मैं जब कक्षा 4 में थी तब ही कक्षा के लड़कों ने मुझे सेक्स/ इंटरकोर्स का मतलब बताया था। मुझे याद है कि वे लोग कक्षा में एक खेल खेला करते थे– (बंगाली में बोलते थे) “কে মেয়ে কে রেপ করেছে” (के मे के रेप कोरेछे) यानी किसने लड़की का रेप किया। वे लोग रेप करने को मज़ाक के तौर पर बोलते थे। मुझे उस समय इस शब्द का मतलब नहीं पता था। इसके बाद समाचार पत्र में यह शब्द बहुत दिखने लगा या यूँ कहूँ कि इस शब्द पर मेरा ध्यान अधिक जाने लगा। समाचार पत्र से भी इसका अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ लेकिन इतना समझ आया कि लोग इसके लिए जेल जाते हैं यानी कि यह एक अपराध है। चूँकि उस समय इंटरनेट तो हुआ नहीं करता था इसलिए इसका अर्थ ढूँढने के लिए मैंने अपना अंग्रेज़ी शब्दकोष निकाला। अर्थ पढ़ने के बाद भी कुछ समझ नहीं आया। ‘सेक्स’ और ‘रेप’ में अंतर नहीं मालूम चला कि क्यों ‘सेक्स’ ठीक है पर ‘रेप’ नहीं। अचानक से रेप के अर्थ में ‘फ़ोर्सफुली’ शब्द पर ध्यान गया तब समझ आया कि लोग ज़ोर–ज़बरदस्ती भी ऐसा करते हैं। तुरंत ऐसे लोगों के लिए मन में घृणा की भावना बैठ गई। इसके बाद समाचार पत्र में केवल यही ख़बर दिखने लगी। डर, घृणा और दुःख जैसे भावों से ग्रस्त हो मैंने फिर समाचार पत्र पढ़ना ही छोड़ दिया। इसके कुछ साल बाद ही निर्भया बलात्कार की घटना हुई थी। उस समय मैं कक्षा 8 में थी, और तब से दिल्ली शहर को लेकर एक डर सा मन में बैठ गया है। शायद यह डर मेरे साथ और भी कई लड़कियों के मन में घर कर गया होगा। निर्भया बलात्कार काण्ड के समय भी इसी तरह का सामूहिक विरोध प्रदर्शन और कैंडल मार्च किया गया था जैसा आज ट्रेनी डॉक्टर के लिए हो रहा है। लेकिन उसके बाद भी आज की स्थिति में क्या सुधार आया है? बीबीसी की 18.10.22 की इस रिपोर्ट– https://www.bbc.com/hindi/india-63226716 –के अनुसार “भारत में एक दिन में औसतन 87 रेप की घटना होती हैं” और “NCRB के ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक़, पिछले सालों के मुकाबले रेप के मामलों में 13.23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।” आँकड़ों से यह साफ है कि राजनेता चाहे कितना भी नारी सशक्तिकरण के ढोल पीट लें, आज का परिदृश्य इसके विपरीत ही है। क्योंकि नारी जब तक सुरक्षित और स्वच्छंद नहीं होगी तब तक सशक्त कैसे होगी? कृष्ण कुमार ने अपनी किताब “चूड़ी बाज़ार में लड़की” में सही लिखा है– “हम रोज देखते हैं कि स्त्री-पुरुष समता का ढोल लगातार बजता है और उसकी आड़ में स्त्री-पुरुष विषमता के साधारण से लेकर जघन्यतम कोटि के उदाहरण प्रतिदिन प्रकट होते रहते हैं। सामाजिक जीवन इस अंतर्विरोधी माहौल को सामान्य बना चुका है, इसलिए हमारी इस विषय पर ध्यान देने की शक्ति और क्षमता भी कुंद हो चली है।” और सचमुच इस विषय पर ध्यान देने की हमारी शक्ति और क्षमता कुंद ही हो चली है! इन सारी बातों का मेरे मनोविज्ञान पर यह असर हुआ कि इसके बाद ‘अज्ञानता ही परमानंद है’ को जीवन का मंत्र बना लेना उचित लगने लगा कि इन सभी चीज़ों के बारे में नहीं सोचने, नहीं पढ़ने से डर कम लगेगा। इसके बाद सीधे विश्वविद्यालय में स्नातक के दौरान शिक्षकों के द्वारा ‘जेंडर’, ‘सेक्स’, ‘प्यार’ जैसे मुद्दों पर खुल कर संवाद होने के कारण इन सभी विषयों पर सोच–विचार करने के लिए स्वयं को तैयार कर सकी। यह प्रक्रिया जब से शुरू हुई और जैसे–जैसे मेरी समझ धीरे–धीरे बढ़ती जा रही है तब से एक अलग किस्म का दुःख हर वक्त मन को घेरे रहता है। ऐसे में कबीर की यही पंक्तियाँ याद आती हैं–

“सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥”

देश में हाशिए पर स्थित वंचित समुदायों की स्थिति को जानते–समझते कोई कैसे खुश रह सकता है? देश के बिगड़ते हालात को लेकर मन–मस्तिष्क अक्सर चिंतित, क्रोधित, या दुःखी रहता है। जब दो साल पहले बिलकिस बानो के बलात्कारियों के रिहा की ख़बर सामने आई तो जगह–जगह उसके बारे में पढ़ा। पढ़ कर जब उसके साथ हुए यौन हिंसा के बारे में पता चला तो समझ नहीं आया कि ज़्यादा जघन्य कौन है(?)– ये बलात्कारी या हमारा समाज, जिसे कुछ ख़ास फ़र्क नहीं पड़ा बलात्कारियों के रिहा हो जाने से! निर्भया बलात्कार काण्ड के समय कम उम्र होने के कारण उस छोटी उम्र में चीज़ों को लेकर डर ही अधिक बना जिसमें अपने बचाव और अपनी सुरक्षा की चिंता अधिक थी। पर वयस्क होने पर यह चिंताएँ व्यापक हुईं। ऐसे अपराध चाहे किसी एक लड़की के साथ हों, लेकिन मानसिक पीड़ा और तनाव का अनुभव हर लड़की या हर वह व्यक्ति करता है जिसके साथ जीवन में किसी प्रकार का यौन उत्पीड़न हुआ हो। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ। बिलकिस बानो के बलात्कारियों की रिहाई की ख़बर ने मन को बहुत उद्वेलित किया। मैं इस ख़बर से अंदर तक हिल गई थी। मानसिक रूप से इस ख़बर ने मुझे बहुत प्रभावित किया, मैं बहुत परेशान रही। आज भी ऐसी कोई ख़बर पढ़ती हूँ तो बिलकिस की याद आती ही है। मुझे अभी भी याद है जब गोधरा काण्ड और बिलकिस बानो के विषय में पढ़ा और समझा था तो उस रात मैं सो नहीं सकी थी। सारी रात रोती रही। रोते–रोते बस बिलकिस का ही ख़याल आता कि उस पर क्या बीत रही होगी? अपने साथ हुए ऐसे भयानक अपराध के लिए वह इतने साल से लड़ रही थी, तिसपर बलात्कारियों का जेल से रिहा हो जाना– क्या गुज़र रही होगी उसपर, उसके परिवार पर? वह किस मानसिक यंत्रणा, डर से गुज़र रही होगी इसकी शायद हम कल्पना भी नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट ने भले इस साल उनके ग्यारह बलात्कारियों को रिहाई देने के गुजरात सरकार के फैसले को रद्द कर दिया पर न्याय में देरी न्याय न मिलने के समान है। ऐसे में स्त्री मन में यह सवाल आना स्वाभाविक है कि यह समय और स्थिति कब बदलेगी? स्त्री कब पूर्ण रूप से स्वच्छंद हो सकेगी? 


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