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आदित्य रहबर की कविताएँ

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आदित्य रहबर की कविताएँ बेहद प्रभावी हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति जिसने अपनी सोचने-समझने की शक्ति को बचाई, बनाई रखी हुई है उन सबकी अभिव्यक्ति है यह कविताएँ। आदित्य बिहार के मुज़फ्फरपुर जिले के एक छोटे से गाँव गंगापुर के निवासी हैं। लंगट सिंह कॉलेज, मुज़फ्फरपुर से इतिहास विषय में स्नातक के बाद वर्तमान में हिन्दी साहित्य से स्नातकोत्तर की पढ़ाई कर रहे हैं और साथ में दिल्ली रहकर यूपीएससी की तैयारी भी। इनकी एक कविता संग्रह ‘नदियाँ नहीं रुकतीं’ प्रकाशित है। शॉर्ट फिल्में भी लिखते हैं। आज उनकी यह बेहद साहसिक एवं अनिवार्य कविताएँ आप सबके समक्ष हैं – अनुरंजनी

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१. चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
 
आसमान में चाँद देख रहा हूँ मैं
किन्तु चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
 
डर लगता है कहते हुए कि
इस बार ईद की सेवईयाँ खाने जावेद तुम्हारे घर आऊँगा!
 
दोस्तों ने पिछली बार भी कहा था मुझसे
रामनवमी की रैली में तलवार लेकर जय श्री राम के नारे लगाने को
“मुझे पढ़ना है” के बहाने नहीं निकला था मैं उस दिन घर से बाहर
 
मैं जहाँ इस वक्त बैठकर कविताएँ लिख रहा हूँ
डर है मुझे, कि मेरी कविता को देश विरोधी घोषित कर  मुझपर लगा दिया जाएगा आरोप देशद्रोही का और कर दिया जाएगा साबित किसी अलगाववादी दल का नेता
जबकि अपने देश के संविधान में मुझे पूरी निष्ठा है और रामचरितमानस से ऊपर अपने देश के संविधान की प्रति रखता हूँ
 
बचपन में अपनी पेंसिल छिन जाने पर लड़ जाता था मैं
माँ जब भाई से कम देती थी खाना तो अड़ जाता था मैं
क्रिकेट खेलते वक्त गलत निर्णय पर तूल जाता था मैं
बड़ा हो गया हूँ अब, सो चाँद को चाँद कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
 
रामनवमी के मेले मुझे  खूब पसन्द हैं
गेहूँ की दौनी करके थकी देह, जब मेले में जाने के लिए नहाकर तैयार होती है, तो रात में निकला चाँद अधिक दूधिया लगता है और देह की गंध मंडप में जल रही अगरबत्ती से अधिक सुगंधित लगती है
 
मेले की जलेबियाँ और समोसे का स्वाद लेना
जीभ के साथ किया गया सबसे सुन्दर न्याय है
किन्तु, अब मेला को मेला कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
 
एक लड़की से बरसों से प्रेम करता हूँ मैं
किन्तु कह पाने के भय से सहमा हुआ हूँ
बगल के गाँव में पिछले ही बरस एक लड़के को दिन दहाड़े मारकर जला दिया गया था
वह लड़का भी किसी लड़की से प्रेम करता था और वह यह कह पाने का साहस रखता था
 
इस देश में जितनी जोर से ‘अल्लाह हु अकबर’ और ‘जय श्री राम’  के नारे लगाए जाते हैं,
उसका एक प्रतिशत भी अगर ‘मुझे तुमसे प्रेम है’ कहने में खर्च कर देता
तो मुझे चाँद को चाँद कहते डर नहीं लगता
 
छठ पूजा में शाम को जब कोसी भरा जाता था तो
गीतहारिन आती थीं गीत गाने
साथ में रबीना, समीना और तेतरी दाई भी होती थीं
सबको आता था सुन्दर स्वर में गाने “काँच ही काँच के बहंगियाँ, बहंगी लचकत जाय…”
समीना, रबीना सुबह उठकर जाती थी मदरसा कुरान पढ़ने और उधर से ही कुरान सीने से लगाए पहुँच जाती थी छठ घाट
 
अब पिछले कुछ सालों से नहीं आती हैं तेतरी दाई और न समीना, रबीना
अब वे दूर से देखने लगी हैं छठ घाट
शायद! उन्हें भी छठ को छठ कहते डर लगने लगा है
 
टीवी पर न्यूज देख रहा हूँ
“विपक्षी दल के नेता की सदस्यता खत्म”
न्यूज चैनल का नाम रिपब्लिक भारत है, किन्तु
रिपब्लिक भारत को रिपब्लिक भारत कहते डर लग रहा है
लोकतांत्रिक होने का भय दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है
विपक्ष कटता जा रहा है और
हम जन गण मन अधिनायक की जय हो रटते जा रहे हैं
भारत भाग्य विधाता बनता जा रहा है।
 

२.तुम सुंदर ही नहीं हो, बहुत सुंदर हो
 
तुम सुंदर ही नहीं हो
बहुत सुंदर हो
तुम जब भी किसानों की बात करती हो
भ्रष्ट सिस्टम की बात करती हो
परिवर्तन की बात करती हो
और ज्यादा सुंदर लगने लगती हो
  
तुम्हारी सुंदरता इसलिए नहीं है
कि तुम चेहरे से सुंदर हो बल्कि
तुम्हारी बेबाकी, तुम्हारा अल्हड़पन
तुम्हारा आजाद ख्याल, तुम्हारा मन
तुम्हारी इच्छा सुंदर है
 
तुम जब बेड़ियों से मुक्त समाज की खातिर लड़ती हो
नव भारत की कल्पना करती हो
तो तुममें सावित्री बाई फुले, शांति और सुनिती की परछाई दिखती है
जो तुम्हारी सुंदरता में गुणात्मक वृद्धि कर देती है
 
सबसे बड़ी बात
तुम मुझे इसलिए भी सुंदर लगती हो
क्योंकि-
तुममें एक क्रांति का ओज दिखता है
और क्रांतिकारी लोग मुझे बेहद पसंद है।
 
३. हम सभ्य नहीं थे
 
मैंने गाँव को लिखा
इसलिए नहीं कि मुझमें गाँव है
 
मैंने दोस्तों को लिखा
इसलिए नहीं कि साले मुझ से ही लगते हैं
 
मैंने नदियों को लिखा
पहाड़ों को लिखा, फूलों को लिखा
काँटों को लिखा
इसलिए नहीं कि उनसे मेरा वास्ता है
 
मैंने शहरों को लिखा
इसलिए नहीं कि उसको कई सालों तक काटा हूँ
 
मैंने माँ को लिखा
पिता को लिखा, भाई को लिखा, बहन को लिखा
उस लड़की को लिखा जो मेरे बहुत पास रहती है
इसलिए नहीं कि मैं उन सबसे प्रेम करता हूँ
 
मैंने छल को लिखा
इसलिए नहीं कि मुझे हर बार मिला
मैंने मोह को लिखा
इसलिए नहीं कि मैं उसमें फँसा रहा
मैंने जीत लिखा
मैंने हार लिखा इसलिए नहीं कि ये मिलते रहे
 
मैंने विद्रोह लिखा
इसलिए नहीं कि मैं ज़िंदा हूँ
मैंने मौन लिखा
इसलिए नहीं कि मैं मरा हुआ हूँ
मैंने दया लिखा
इसलिए नहीं कि मैं दयालु हूँ
 
मैं लिखता हूँ और बारहा लिखता हूँ
मैं इसलिए लिखता हूँ ताकि कल को हमारी आने वाली पीढ़ी हमारे सभ्य होने पर संदेह ना करे
संदेह ना करे कि मुझे किसी लड़की से प्रेम नहीं हुआ
संदेह ना करे कि मेरे दोस्त मेरे अपने नहीं थे
संदेह ना करे कि मुझे माँ, बाप, भाई, बहन का प्यार न मिला
संदेह ना करे कि मुझमें गाँव की मिट्टी नहीं सनी
संदेह ना करे कि शहरों के अकेलापन ने मुझे नहीं काटा
संदेह ना करे कि काँटों ने उतना ही सुकून दिया जितना फूलों ने
 
उन्हें संदेह ना हो कि
छल नहीं इस दुनिया में
संदेह ना हो कि
हार और जीत नहीं इस दुनिया में
संदेह ना हो कि मोह से उबर गई है दुनिया
 
संदेह ना हो कि लोगों ने आवाज़ उठाना छोड़ दिया है अन्याय के विरुद्ध
संदेह ना हो कि मौन अभिव्यक्ति ना रहा
संदेह ना हो कि दया का अस्तित्व नहीं रहा
 
मैं लिखता हूँ और बारहा लिखता हूँ ताकि यह संदेह ना रहे कि हम सभ्य नहीं थे
क्योंकि, हमने इतिहास से सीखा है
कोई समुदाय तब तक सभ्य नहीं समझा जाता
जब तक वह लिखना न जानता हो।
 
४. भारत माता की जय
 
२१ वीं सदी गैस चूल्हे पर नहीं पक रही
लकड़ियों के सहारे ले रहे हैं हम अपने युग का स्वाद
 
ऐसा नहीं है कि सिलिंडर व्यर्थ जा रहा
बहुत उपयोगी है सरकार का दिया सिलिंडर
ऐसा धन्नु काका बता रहे थे
पिछले साल बाढ़ का पानी उसी ने पार करवाया था
ऐसे ही थोड़े न महँगी है
पेट ना सही, जान तो बचा रही है…
 
विद्यालयों में नहीं दिखती शिक्षा क्षेत्र की बढ़ोतरी
इसलिए अब मैं बैकों के सामने खड़ा होकर ढूँढता हूँ साक्षरता दर
लोन का प्रतिशत बताता है
विद्यालयों में बढ़ती घटती बच्चों की संख्या का अनुपात
  
संसद की बन रही नई इमारत से
मर्सिया गाने की आवाज़ सुनाई पड़ती है
ईंटों की जगह देहें जोड़ी जा रही
राहत के नाम पर धार्मिक पताका लहराया जा रहा और
लोगों का पेट भरने के उनके मुँह में राष्ट्रवाद का निवाला ठूँस दिया जा रहा…
 
गाँव में बेटियों की विदाई साहूकार के बटुए में अटकी है
खेतों का पानी पार्टी कार्यालय के पौधों का प्यास बुझा रहा
बुढ़िया काकी का इलाज़ दिल्ली से चलता तो है
किन्तु गाँव आते आते दम तोड़ देता है
 
दो बच्चों के बाप महेशर भाई
रिक्शे से माप रहे हैं सरकार की योजनाएँ
मेरे दोस्त नारों में ढूँढ रहे हैं सरकारी नौकरी
और मैं देख रहा हूँ
योजनाओं को भीड़ में बदलते हुए
 
मुझे कोई बचाओ इस भीड़ से
मेरा दम घुट रहा है
मेरी कान फट रही है
भजन चीखों में तब्दील हो रहे हैं
आदमी भेड़ियों की शक्ल में हैं
सभी बारी बारी से राष्ट्र को नोच रहे हैं और
सबकी जुबान पर एक ही नारा है “भारत माता की जय”
पता नहीं क्यों यह नारा कम, भूख से उपजा विलाप अधिक लग रहा।
  


५. हताशा की परिभाषा
 
मैं शहर और गाँव के ठीक बीचों बीच खड़ा हूँ
मेरे पास संपत्ति के तौर पर मेरी एक देह है
जो अपेक्षाओं और उम्मीदों की चोट से जर्जर हो चुकी है
 
हताशा की अगर सबसे सुंदर परिभाषा देनी हो या लिखनी हो
तो मेरे चेहरे को पढ़कर आसानी से लिखी या देखी जा सकती है
 
पांच फीट पांच इंच में समेट रखी है
दुनिया की तमाम कहानियाँ, जो किसी लेखक और पाठक के हिस्से नहीं आईं।
 
 
मेरी त्वचा पर सरकारी योजनाओं, उदेश्य और प्रेम की काई जम चुकी है
अब मैं सांस लेने के लिए भी संघर्ष करता हूँ।
 
सफलातों के किस्से फिक्शन फिल्मों जैसे लगते हैं,
जिन्हें देखकर सिवाय झूठी मुस्कान के कुछ भी नहीं आते
 
मैं अपनी शक्ल हर उस आदमी में देखता हूँ
जो लाईब्रेरी के किसी कोने में स्वयं को खपा रहा है, ताकि एक समय बाद उसकी जरूरतें आवश्यकता से ज्यादा टांग ना पसार सके
 
आदमी का सबसे बड़ा शत्रु उसकी आवश्यकताएँ रहीं हैं
मानो, हमने स्वयं के लिए नहीं आवश्यकताओं के लिए जीवन चुना है
 
जबकि आवश्यकताएँ हमें धीरे धीरे चबाती हैं
ठीक वैसे ही जैसे हवा और पानी खा जाते हैं लोहे को
 
हमारी देह लोहा ही तो है
एक-दूसरे के स्पर्श और टकराने में अब भेद नहीं कर पाती
एक चीख़ निकलती है, जिसका मूल्यांकन कर पाना
हँसते चेहरे के पीछे की उदासी ढूँढने से भी अधिक कठिन है
 
 
६. हमारा परिचय
 
हमने रोटी मांगी
उसने कहा-
धर्म बचाओ
 
हमने पहचान मांगी
उसने कहा-
काग़ज़ दिखाओ
 
हमने रोज़गार मांगा
उसने कहा-
आत्मनिर्भर बनो।
 
लड़ रहे हैं लड़ाई अपनी
बचा रहे हैं धर्म अपना  
धर्म जो कहता है-
अपना हक़ छीन कर लो
 
पुलिस की फाईलों में
अब हमारा परिचय ‘देशद्रोही’ है।
 
 
. भारत
 
वह ऐसा कभी नहीं चाहता था
ना होना था उसे
हमने नारों को शीशें की तरह पिघला कर डाल दिया उसकी कानों में
वह अपनी ही चीख़ को न सुन पाने को बेचैन हैं
 
सदियों पहले जहाँ मस्जिदें खड़ी की गईं
मंदिरें बनाई गईं
उनके नीचे धान की बालियाँ, गेहूँ के दाने और
कपास के पौधे दबे हैं
हमारी पीढी सभ्यताओं की इस हत्या का मूकबधिर गवाह हैं
 
मजहबी झंडों ने किया है आदम जात को नंगा और हमारी आधुनिकता ने उस नंगेपन को बौद्धिकता का चोला पहनाया है
वह सर्दियों में ठिठुरता है, गर्मियों में जलता है और
चुनाव में ख़ाक हो जाता है
 
वह चौराहे पर सूखा हुआ बरगद है
जिसके छाँव में राहगीर नहीं रुकता,
व्यापारी रुकता है और किसी इमारत के लिए दरवाजे़ गिनता है
 
वह भीड़ के पैरों तले कुचली हुई देह है
जिसपर निशान है राष्ट्रवाद के
धब्बे हैं धर्मांधता के और बहता खून है आदमियत का।
 
 
८. हमारे होने की पहली और आखिरी शर्त
 
 
खेत की डनेर पर औंधे मुंह
पड़ी हैं कृषि योजनाएं
 
महिला सशक्तिकरण के नारे आए दिन
चलती बसों में, खेतों में, और न्यायालय की सीढ़ियों पर चीखती हुई आवाज़ में मिलती हैं
 
श्रम कार्ड बंधुआ मजदूरों का डिजिटल हस्ताक्षर बन गया है
स्वास्थ्य बीमा योजना
निजी अस्पतालों में अंतिम सांसे ले रही है
 
छात्र पढ़ते हुए ढूंढ रहे हैं
प्राइवेट कंपनियों में दस से बारह हजार की नौकरियां और
पूछने पर बता रहे हैं कि वे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे हैं
 
युवाओं की एक भीड़ करने में लगी है सरकारों की आलोचनाएं
कुछ ने लिया है देश के शीर्ष शिक्षण संस्थानों से शिक्षित होने का प्रमाण पत्र
प्रमाण पत्र से याद आया
आजकल वे सभी अपनी जाति का प्रमाण पत्र लिए
खत्म कर रहे हैं सामाजिक बनावट की सदियों पुरानी व्यवस्था और चिल्ला रहे हैं कि उन्हें भी दिया जाए जात के नाम पर अधिकार
 
शोषक और शोषित वर्ग अब  बंट गए हैं
सभी जातियों में उनके कुछ होनहार ने संभाल ली है
जाति व्यवस्था खत्म करने की कमान
अब सब लिख रहे हैं अपने नाम के आगे
अपनी जातियों के, वर्गों के ‘सरनेम’
 
बुद्धिजीवियों ने अपना एक कंफर्ट जोन बना लिया है
बोलना वहीं हैं जहां से उन्हें मिल सके लाइम लाइट
और चमकना किसे पसन्द नहीं होता
वो बात अलग है कि कमरे की फर्श भी चमकती है,
शौचालय की सीट भी चमकती है (अगर वो सार्वजानिक न हो तो) और चमकते जूते भी हैं चाटुकारों के द्वारा साफ़ किए जाने के बाद
 
सबका दावा है कि
वे देश बचा रहे हैं, लाखों साल पुरानी सभ्यता बचा रहे हैं
फिर कौन है जो विध्वंसक है?
वो जो चुप है?
वो जो सिर्फ चिल्ला रहा?
वो जो मुस्कुरा रहा?
वो जो लड़ रहा?
या हम, जो इन सबमें कहीं नहीं?
याद रखना साथी
होने की पहली और आखिरी शर्त है
प्रतिवाद!
 
९. आत्मघटित
 
जीवन की सबसे सुंदर कविता
तभी लिखी गई
जब लिखने वाले को पता नहीं था कि
कविता क्या होती है?
 
बाप की देह से आती पसीने की गंध
तब समझ आई
जब उनके देह का नमक पिघल कर
धीरे धीरे बेटे के चेहरे पर चढ़ आया
 
प्रेम में होते हुए
हम कितने निष्ठुर बन जाते हैं
यह विरह के दिनों में महसूसा गया
सबसे क्रूर एहसास है
 
अपनों की  समझ तब हुई
जब संसाधनों की पूर्णता के बावजूद
हमें लानते मिलती रही और अवसाद से निजात पाने के लिए
लगाता रहा मनोचिकित्सक के चक्कर
 
फर्श पर पैर फिसलने की वजह
जब दो दिनों तक बिस्तर पर पड़ा रहा तो जाना
माटी की कीमत
  
माँ के दिन भर खटते रहने पर
पिता का गुस्सा हो जाना अखरता रहा
तब तक जबतक मैं किसी स्त्री का
जीवनसाथी नहीं बन गया
 
फेसबुक पर दर्जनों कविताएँ लिखकर
हम क्रांतिवीर तो कहलाए
किंतु, शब्दों की चोट ने जितना हमें दुत्कारा
उसे झेल पाने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पाए
 
मेरी एक दोस्त हमेशा कहती है
प्रसव पीड़ा का दुःख
प्रसव पीड़ा में होकर ही समझा जा सकता है
 
मेरी दोस्त ठीक कहती है
बिना दुखी हुए दुख के आसपास हम गीदड़ की तरह भटक सकते हैं
दुखी नहीं हो सकते
 
मैं २५ की उम्र में बेरोजगारी पर कविताएँ लिख रहा हूँ
मुझसे बेहतर कोई नहीं बतला सकता कि इस देश में बेरोजगारी एक अभिशाप है।
 


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