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अरविंद कुमार मिश्र की कविताएँ

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आज पढ़िए अरविंद कुमार मिश्र की कविताएँ। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र पढ़ाते हैं और कविताएँ लिखते हैं। जानकी पुल पर उनकी कविताएँ पहली बार प्रकाशित हो रही हैं- मॉडरेटर

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1
तुम इस काल का पटाक्षेप हो

आंखों में फैल रहा आकाश
और गुज़रे हुए कारवों की याद
मन के हर कोने में काबिज
दरख़्तों की छांव
और
रातों में हर तरफ फैल जाने वाला
बेला और जूही का तिलिस्म
यह कोई कविता है?
या सुदूर कहीं जमीन में अंकित हो गई
तुम्हारे पावों की छाप
उन पुरातन चट्टानों की तमाम गाथाओं में
तारों और ताराधीश से होने वाली मुलाकातों के दर्ज किस्से
और दूर कहीं अलसायी हुई नीलगायों का तुमको निहारना
अरे रुको…….
क्या कहे जा रहे हो?
इस गूंजते हुए कोलाहल के बीच
तुम्हारी बातें मुझे अपनी तरफ खींच रही हैं
और मैं जादुई कल्पनाओं में खुद को खोज रहा हूं
चहुं ओर फैले सघन अरण्य के बीचों – बीच
उसी ताराधीश की रश्मियां फैलीं
और मृग – कस्तूरी की गुंजायमान सुरभि
तत्क्षण तुम्हारे मुख की कांति का दैदीप्यमान सम्मोहन
नहीं………
तुम कौन हो?
और समय को क्यों बांध रहे हो मुसाफिर
अतीत के उन वर्तमान और भविष्य के मध्यांतर में
तुम इस काल का पटाक्षेप हो…….।

2
‘ओकोटिल्लो’ के फूल
हे मन वापस लौट आना तुम
चांदनी रातों में आने वाले
अनगिनत स्याह सपनों से
जैसे मीलों फैले थार की
अपनी तपती यात्राओं से
एक दिन लौट आते हैं
रेगिस्तान के जहाज़
कठिन समय की लम्बी उपस्थिति में भी
अपनी उत्तरजीविता की जिजीविषा को
हे मन निर्बाध रूप से बनाये रखना
जैसे ‘कुटज’ अनंत काल से
अपने होने की गवाही देता रहता है…
जीवन में आने वाले
अकल्पनीय निराशा के मध्य में भी
हे मन तुम चेतन-प्रहरी बन
लड़ते रहना झंझावातों से
जैसे दुर्जेय मरूस्थल का सीना चीर कर
खिलते रहते हैं ‘ओकोटिल्लो’ के फूल।


3
जीवन का तिलिस्म
जीवन एक जादुई रहस्य है
जिसके तिलिस्म को हम
पा जाना चाहते हैं
भोर के किसलय को
एक टक निहारते हुए
हम पहुंच जाते हैं
सांझ की अनगिनत
टहनियों पर
और चिर तरुणाई की
प्रत्याशा लिए
हम निकल पड़ते हैं
कभी ना खत्म होने वाली
अनंत यात्राओं पर
कभी अपनी
यात्री – अस्मिता को टटोलते हुए
स्वयं को चंद्रप्रभा की
लौकिक दिव्यता के
समीप पाते हैं
और हमें तब
चेतना के धरातल पर
वह मायावी अनुभूति होती है
कि जीवन का तिलिस्म तो
असंख्य अलौकिक पड़ावों के
दिगंतर में कहीं विश्राम कर रहा है….।



4
और शायद इसी को जीवन कहते हैं
जीवन की तमाम कहानियों को
हम जीते चले जाते हैं और
उम्मीद की पगडंडियों को नापते हुए
सरसों के पीले फूलों को निहारकर
हम रोज गुजरना चाहते हैं उन रास्तों से
जो हमें बचपन की मासूमियत को
कुछ इस तरह याद दिला दे जैसे कि
रंगीली तितली के पंखों को छूते हुए
हम खिलखिला पड़ते थे और
उसके उड़ जाने के बाद
एक टक उस तितली और आसमान को
निहारते रहते थे
जीवन की इन तमाम कहानियों में
समय की गाड़ी हमेशा चलती रहती है
पर बचपन ठहर जाता है
और साथ में ठहर जाती है
हमारी कागज की वो कश्ती
जो बारिशों में हम अक्सर बनाया करते थे
और छोड़ देते थे ठहरे हुए पानी में
नाव चलती रहती थी
हमारा जीवन भी चलता रहता है
पर हम वो नहीं हो पाते जो हो सकते थे
और शायद इसी को जीवन कहते हैं….।


5
शाख़ से टूटा हुआ कोई पत्ता
शाख़ से टूटा हुआ कोई पत्ता
ऐसे ही नहीं गिर जाता
किसी की भी देह पर
गिरते हुए पत्ते को भी होती है
एक चाह और आस
सहेजे जाने की
अतीत का जिया हुआ यथार्थ
बार बार लौट आता है
पीत होते हुए
वर्तमान के साँकल के मध्य
स्मृतियों की अनवरत भागादौड़ी
धुंध और धूप की अपनी नीरसता में
जारी रहती है
कभी ना लौट सकने वाली
बीते हुए समय की अनुभूतियाँ
आगाह करती रहती हैं कि
तमाम मिथ्या प्रलापों के बाद भी
घटित होने की निरंतरता ही
जीवन है
जीवन का मर्म है।

6
छूट जाने की विभीषिका
कई बार हमारे अंतस में कुछ रिसता रहता है
कभी विक्षोभ बनकर कभी विषाद बनकर
कई बार हमारी मुस्कुराहटों की तलहटी में
छुपे रहते हैं जटिलताओं के झंझावात
जीवन की अपनी यात्राओं में
हमारे साथ कुछ चलता रहता है
जो अरसा पहले हमसे छूट गया होता है
और छूट जाने की विभीषिका को
हम अपने अस्तित्व के सदृश रखकर
ना जाने क्यों खुद से छूट जाते हैं….।

7
बहुतेरे अनपाये रंग
दृश्य और परिदृश्य के बीच
खोजती हुई आँखें
अक्सर मन के तहों के बीच
अंतर्द्वंदों में उलझ जाती हैं
मन के उन तमाम तहों में
छिपे हुए हैं
बहुतेरे अनपाये रंग
जिनसे मैं चाहता हूँ कि
ऐसी तस्वीर बनाऊँ
जो हृदय को इस तरह मुक्त करे
जैसे चिरंतन काल से दबी हुई
कोई अभिलाषा पूर्ण होकर
अरावली के समीर में फैल जाए
और जीवन की जटिलताओं के समानान्तर
जब मैं अपने आत्म को मुठ्ठी में पकड़ूँ
तो वह छिटककर
उस समीर से मिल जाए।



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