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आज़ाद देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी?

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अभी बीते वर्ष से भारत सरकार की ओर से यह आदेश जारी हुआ है कि प्रत्येक वर्ष 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका दिवस’ के रूप में मनाया जाए। विश्विद्यालयों में इस आदेश का पालन भी पिछले वर्ष से ही ज़ोर-शोर से किया जाने लगा है। लेकिन उन कार्यक्रमों में ऐसी बातें अधिक होती हैं जिससे लगता है कि मानो विभाजन का दंश केवल भारतीयों को झेलना पड़ा। ‘खोल दो’ कहानी पढ़ी होगी आप सब ने, यदि नहीं पढ़ी तो ज़रूर पढ़ लीजिए – https://www.hindisamay.com/content/262/1/सआदत-हसन-मंटो-कहानियाँ-खोल-दो.cspx

इसी कहानी का मंचन बीते 14 अगस्त को जेएनयू की थियेटर सोसाइटी में होना तय था। लेकिन आगे क्या हुआ वह ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज, सांध्य के विद्यार्थी पीयूष प्रिय के शब्दों में पढ़िए – अनुरंजनी

(तस्वीर साभार – शब्दांकन)

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                              सारा झगड़ा खतम होई जाए

अभी हमने स्वतंत्रता दिवस मनाया है। सन 47 में स्वतंत्रता के बाद हमें विभाजन की विभीषिका को भी झेलना पड़ा था। विभाजन का दर्द थोड़ा कम हुआ तो कश्मीर का मामला शुरू हो गया और फिर दोनों मुल्कों की जनता में टकराहट शुरू हो गई। पहले तो यह कुछ चंद मुट्ठी भर सांप्रदायिक दंगों में तक सीमित था मगर जब लड़ाई जमीन की हो गई तो इसमें और लोग जुड़ते गए। जितने लोग जुड़ते गए हैं उतनी बद्तर स्थिति हो गई। न भारत सरकार कश्मीर को संभाल पा रहा था ना पाकिस्तान और अंग्रेज हमें कुएं में लटका कर छोड़ गए थे। 

14 अगस्त 2024 की रात को जेएनयू की थिएटर सोसाइटी एक कहानी को प्रस्तुत करना चाहती थी जो कि विभाजन के दौर में मंटो द्वारा लिखी गई कहानी थी, कहानी का नाम था ‘खोल दो’। जेएनयू प्रशासन ने यह कहा कि इसमें जो ‘सकीना’ नाम है, उसको बदलकर कुछ और किया जाए। मगर छात्रों का यह मानना नहीं था, इसीलिए जेएनयू प्रशासन ने जबरदस्ती इस कार्यक्रम को स्थगित कर दिया। सीधी बात है नाम बदलना बतला रहा था कि जेएनयू प्रशासन के भीतर सांप्रदायिकता के अवशेष अभी भी बचे हुए हैं जो कि विभाजन के समय कुछ मुट्ठी भर लोगों में देखा जा सकता था।

कुछ ऐसा ही कार्यक्रम 1948 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद दोनों देशों की सहमति से बाघा बॉर्डर पर कराया जा रहा था, जो कि भारत के स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य पर था। वहाँ बेगम अख़्तर अपने नग़मे पेश कर रही थीं। सरहद के एक तरफ़ भारत की जनता थी और दूसरी तरफ़ पाकिस्तान की आवाम और बीच में दोनों के आँखों का सितारा जिन्हें मल्लिका-ए-ग़ज़ल भी कहा जाता है वह थी बेगम अख़्तर।

भारत और पाकिस्तान अभी-अभी कश्मीर में हुई भयानक हलचल से बाहर आए थे, लेकिन उस हलचल की दुर्गंध अभी तक दोनों देशों की हवा में फैले हुई थी। इस दुर्गंध का तकाज़ा लगाते हुए मल्लिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर ने अब उनकी सबसे पसंदीदा ठुमरी, जो कि सुदर्शन फ़ाक़िर द्वारा लिखा गया था, जिसे फ़ैज़ बार-बार सुनते थे, “हमरी अटरिया पर आजा रे सांवरिया” पेश किया। इससे पहले इस ठुमरी को सुनकर लोग यह समझते थे कि स्त्री अपने प्रिय से प्रेम का निवेदन कर रही है। मगर विभाजन की विभीषिका और कश्मीर का द्वंद्व को देखते हुए बेगम अख़्तर ने उस ठुमरी में दो और पंक्तियों को जोड़ दिया, और वह पंक्ति है “आओ सजन तुम हमरे द्वारे सारा झगड़ा ख़तम होई जाए” और उन्होंने वहाँ इसको गा भी दिया। बाघा बॉर्डर पर इस महफिल में सब चुप थे। सबकी आँखों में आँसू थे, बस थोड़ी देर के लिए ही सही मगर यह जरूर लग रहा था कि फिर से दोनों देश एक हो गए हैं। फिर से हमें पूरा भारत मिल चुका है । और यह सिर्फ बेगम अख़्तर के जादू के कारण हो पाया। हमें इन चीजों से सीखना चाहिए कि जिस तरह यहाँ भारत की जनता सांप्रदायिक लोगों से आहत है, सरहद उस पार भी कुछ ऐसा हीं है। आम जनता चैन से जीना चाहती है। सांप्रदायिकता की दिशा भारत और पाकिस्तान को गर्त में ले जा रही है। सरहद सिर्फ हमारे नेताओं को अलग करती है, यहाँ के हुक्मरानों को अलग करती है‌। वह जनता को कभी नहीं अलग रखती, जनता की समस्याओं को कभी नहीं अलग करती, जनता के तौर-तरीकों को कभी नहीं बांटती। देखा जाता है कि भारत में आज फ़ैज़, एलिया जैसे शायरों के शेर में लोगों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही है और वहाँ के गानों की तो खैर बात ही मत पूछिए। इस तरह भारत के कलाकार भी पाकिस्तान में खूब पढ़े और देखे जाते हैं। भारत और पाकिस्तान को हर तरीके से अलग करने का प्रयास किया गया मगर आज तक दोनों देशों की कला अलग नहीं हो पाई। दोनों देशों के जवान एक-दूसरे के देश में पसंद किए जाते हैं। कितना अच्छा हो कि हम सब विभाजन के उस दर्द और दोनो देशों के कला के प्रति एकजुटता दिखाकर एक बार फिर हम दोनों पड़ोसी देशों के बीच कलह को खत्म करने की कोशिश साकार हो जाए और वही “सारा झगड़ा ख़तम होई जाए”…


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