नर्मदा नदी की यात्रा करके उस पर किताबें लिखने वाले अमृतलाल वेगड़ आज नहीं रहे. उनकी स्मृति में यह श्रद्धांजलि लिखी है नॉर्वे-प्रवासी डॉक्टर लेखक प्रवीण झा ने- मॉडरेटर
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हम जैसों को अमृतलाल जी कल्पनाओं में ही मिले, और कल्पना में ही दूर हो गए। जैसे कुमार गंधर्व, जैसे बाबा नागार्जुन, जैसे अनुपम मिश्र। कभी-कभी रश्क आता है उनसे जो इन लोगों को करीब से मिलते रहे। बर्मन घाट, धवरीकुंड, पथौरा, नरेश्वर, सरदारनगर, भेड़ा घाट मन ही मन घूमता रहता हूँ। यूँ तो अब नदियों के देश में नदी तीरे ही रहता हूँ, और नदियाँ जब पहाड़ों को काट कर ‘फ्योर्ड’ बनाती है तो नर्मदा की छवि बनती है। नदी जिसे मर्जी काटे, जिसे मर्जी ले डूबे। समस्या तो तब आती है जब हम नदी को अपनी मर्जी से काट नर्मदा संकरी कर देते हैं।
जिन्होंने भी अमृतलाल जी के साथ नर्मदा का परिक्रमण किया हो, उन्हें शायद याद हो कि कैसे ओंकारेश्वर में नर्मदा और कावेरी मिलती हैं, फिर उनमें कुछ मनमुटाव होता है तो अलग हो जाती हैं, और फिर उनमें वापस मित्रता हो जाती है। जैसे नदियों का मानवीय स्वरूप हो, दैविक नहीं कहूँगा। अमृतलाल जी की परिकल्पना में भी नदी का अस्तित्व पार्थिव ही नजर आया, कभी मातृस्वरूपा तो कभी संगिनी। जब उन्हें नर्मदा किनारे एक चाय की कुटिया पर बैठे सज्जन मिलते हैं, और कहते हैं कि उनका घर यह खाट है, उनका झोला उनकी संपत्ति और नर्मदा संगिनी। जब नर्मदा का क्रोध बढ़ता है, तो उनकी खाट उठा कर दूर पटक देती है। और वो फिर नर्मदा के पास लौट मनाने आ जाते हैं। कुछ महीनों में नर्मदा शांत हो जाती है। वो नर्मदा के बिना नहीं रह सकते, और मुझे वेगड़ की जो पढ़ कर लगा कि नर्मदा भी शायद उनके बिना न रह पाए।
जब यह प्रश्न उठता है कि साहित्य के लिए शब्दों की लड़ी और मायाजाल बुनना पड़ता है, तो वेगड़ जी जैसे लोग इसमें एक मूलभूत तत्व लाते हैं। गर मनुष्य जीवन में रम नहीं गया, तो क्या शब्दजाल बुनेगा? और गर रम गया तो कलम से शब्द भी फूटेंगे और चित्र भी। मैंने उन्हें इंटरनेट पर ही सुना-पढ़ा, और साहित्य अकादमी पुरस्कार वाले भाषण की सहजता ने दिल जीत लिया। कभी उनका कहा सुना कि जैसे उनके शरीर पर चर्बी नहीं, वैसे ही उनके भाषा में भी भारीपन नहीं। एक गुजराती प्रकृतिप्रेमी की हिंदी में मुझे वो वजन लगा कि मैं उसके भार से मुझ जैसे सदा के लिए दब गए। एक मित्र ने उनका सूत्र दिया, और उस डोर को पकड़ हकबकाए जो भी उनका लिखा मिलता गया, पढ़ता गया। अब हर नदी में कथा ढूँढता हूँ, गीत ढूँढता हूँ, पर मुझे वो हासिल नहीं होता जो वेगड़ जी को हुआ। इसके लिए उनके ही शब्दों को जीना होगा। जटा बढ़ा कर झोला लटकाए झाड़ियों को लाँघते नर्मदा का परिक्रमण कई बार करना होगा। नेताओं और मनोकामना पूर्ण की इच्छा से नहीं, नर्मदा की परिक्रमा नर्मदा के लिए ही करनी होगी।
नदियों और नहरों के शहर एम्सटरडम के सफर पर हूँ, जहाँ लोग कहते हैं कि “हम जल से लड़ते नहीं हैं, जल के साथ जीते हैं”। यह बात तो वेगड़ जी कब के कह गए। पर अब कौन कहेगा? न अनुपम जी रहे, न वेगड़ जी।
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