हिन्दी और मैथिली की प्रख्यात लेखिका उषाकिरण खान बिहार की पहली महिला लेखिका हैं जिन्हें पद्मश्री का सम्मान मिला। वे बिहार के मिथिला क्षेत्र दरभंगा लहेरियासराय से संबंधित हैं। उनकी तकरीबन चालीस किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनको “भामती” के लिए साहित्य अकादमी सम्मान मिल चुका है।
उषाकिरणजी की यह कहानी “बम महादेव” मैथिली से अनूदित है। कहानी के एक पात्र रसूल मियाँ को खुदाई में महादेव-गौरी की मूर्ति मिलती है। फिर एक बिजनेस ऑपरच्युनिटी का आईडिया आता है। भगवान का बिजनेस कोई नयी बात तो है नहीं, लेकिन अगर कोई मुसलमान हिन्दू भगवान को बेचे तो…? — अमृत रंजन
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रघुनाथ बाबू काॅलेज से रिटायर होकर गाँव जाने का विचार करने लगे। दक्षिण बिहार में जो आजकल झारखण्ड कहलाता है उसी ओर आज से उठ छत्तीस साल पहले काॅलेज की नौकरी करने गये थे। नयी उमर थी, नवविवाहित थे, नयी गृहस्थी थी और नई नौकरी भी थी। कॉलेज में पढ़ाना इनका सपना नहीं था कभी, सपना था बैंक की नौकरी करना सो जबतक नहीं हुआ था तबतक के लिए मित्र के सुझाव पर काॅलेज ज्वाइन किया जो स्थाई हो गया, बैंक में कभी प्रतियोगी परीक्षा नहीं निकाल पाये। शुरुआती दिन में गाँव जाया करते छुट्टियों में। गाँव जाते तो ननिहाल जाते, बुआ के ससुराल जाते, काकी के मायके जाते। छुट्टियाँ लम्बी हुआ करतीं। आम लीची खाने, निमंत्रण का मान रखने गाँवों में जाते रहते रघु बाबू। पूरी छुट्टी गाँव में बिताते मात्र जाना और आना न करते। झारखण्ड अलग प्रदेश हुआ। आवास उन्होंने बिहार की राजधानी में बनाया, उनके कई सहकर्मियों ने भी वैसा ही किया क्योंकि घर तो बिहार के इलाके में था। राजधानी में रहना इसलिए जरूरी था कि डाॅक्टर वैद्य की सुविधा थी, बेटे बेटी भी आसानी से आते जाते रह सकते थे। सबसे बड़ी और अहम बात कि नगर में रहने की आदत हो गई थी। बहुत दिन हो गये थे गाँव गये, विचार तो करते थे पर पैर नहीं उठते थे। ऐसे ही समय में बालसंगी रामजी केवट मिलने आये। रघुनाथ बाबू ने प्रफुल्लित होते हुए कहा – “आओ दोस्त, बहुत दिन बाद मिले।”
‘‘क्या कहते हो? मैं तो जब बाबा धाम गया, तुमसे मिला, तुम्हीं तो गाँव भूल गये हो।’’ – उसने उत्तर दिया –
‘‘ मैं अक्सर गाँव जाता रहा’’ – रघुनाथ बाबू थे।
‘‘अपने गाँव जाते रहे, बुआ के गाँव कहाँ कभी गये?’’
‘‘फुरसत नहीं थी। बुआ रही नहीं, उनके सारे बच्चे बाहर रहते हैं कहाँ जाता; तुम्हें ही आना था।’’
‘‘कैसे आता, सुनता कि तुम आये हो। जब तुम्हारे गाँव आता तुम लौट गये होते।’’
‘‘अब मैं यहाँ स्थाई रहॅूंगा। गाँव भी आया करूॅंगा, खबर दॅूंगा, मुलाकातें होती रहेगी।’’ –
रामजी केवट दरभंगा से मोटर साईकिल से किसी नवयुवक के साथ आये थे। बहुत दिनों बाद दोनों मित्र सुस्थिर होकर मिले थे और घर परिवार की बातें की थीं। रामजी केवट तालमखाने की खेती और व्यापार करते थे सो अच्छे मोटे हो गये थे। रूपये पैसे आने के बाद गाँव इलाके के छुटभैया नेता भी हो गये थे। बहुत देर तक दोनों मित्र गपशप करते रहे थे। चाय नाश्ता करके रामजी केवट जब विदा हुआ तब रघुनाथ सोचने लगे कि इनका अपने गांव में कोई दोस्त तो है ही नहीं। उसका कारण गोतिया लोगों का परस्पर द्वेष था। बहुत लोग अनपढ रह गये। गाँव में कोई कृषि उद्योग मसलन पशुपालन, मछली पालन भी नहीं किया, खेती भी ढंग से नहीं की; नतीजा यह हुआ कि बाल बच्चों के ब्याह में जमीन बेच कर खर्च किया। वे सहज रूप से विपन्न होते गये। रघुनाथ बाबू ने ऐसा नहीं किया। अपनी कमाई से बच्चों को पढ़ाया और विवाह किया। माता–पिता के देहावसान के बाद खेत बटाई पर था अब स्वयं जाकर करने की कोशिश करेंगे ।
रामजी केवट का मोबाईल नं0 नोट कर लिया था। विचारा था जाने के पहले उन्हें खबर कर देंगे । बुआ के गाँव का रामजी केवट और रसूल कुजड़ा इनके निकटतम मित्र थे। बुआ के देवरों के बेटे इनसे खूब नहीं घुलते मिलते। आठ साल की आयु से ही ये तीन दोस्त थे। हर साल कम से कम एक सप्ताह के लिए बुआ के गाँव जाते । वहाँ बंसी खेलते मछली पकड़ते, फानी लगाकर बगेरी फॅंसाते। खेत में ही सूखा घास जलाकर मछली और बगेरी भून कर खाते। बुआ को पता चल जाता, डाँट पड़ती पर बेपरवाह के बेपरवाह बने रहते। बुआ मल्लाह टोला जाकर रामजी की दादी को चेता आतीं -‘‘काकी ये क्या करते हैं बच्चे ? मेरे भतीजे को कुछ हो गया तो भौजाई नौ नतीजा करेगी। बच्चों को बजरिये, यहाँ वहाँ डोलते न फिरें।’’
‘‘ऐे कनियाँ, कुछ न होगा, रमजीया जलजीव हैं, रघुनुनू को कभी पानी में जाने न देगा।’’- कहने को कह देती दादी पर रामजी को अपनी टेढ़ी वाली–लाठी लेकर दौड़ाती – ‘‘इधर आ सइंमेरौनी का नाती, तेरे बंसी में जंग लगे! कहाँ गया वह मियाँ छोकरा रसुलबा, जो कुजड़ागिरी छोड़कर फानी लगाने लगा फुद्दी बगेरी फॅंसाने? बड़का महाजाल बुनवैया बना है, अभी सलाई लगा दूँगी।’’ – रामजी केवट गायब हो जाते । शाम ढले, गाय बैल घंटी टुनटुनाते बथान पर लौट आते तब तक रामजी का पता नहीं चलता। उस दिन बुआ के दालान वाले मचान पर रामजी केवट और रसूल राइन, सुशील बालक बन गाल पर हाथ धरे बैठा रहता और एक लकड़ी की उॅंची कुर्सी पर बैठकर रघुनाथ बाबू चन्दामामा की तिलस्मी कहानी पढ़कर सुनाते होते। भड़भूजे के यहाँ से भुने पचरंगे चबेनों में अॅंचार का तेल मसाला मिला बुआ बड़े चाव से फूल की छिपली में रघुनाथ को और डलियों में अलग–अलग रामजी और रसूल को फाँकने बड़े प्रेम से देतीं । उन्हें हिदायत भी देती – ‘‘ऐसे ही रघु बौआ से ज्ञान की बात सीखा करो तुमलोग।’’ – बुआ जी ममता की मूरत थीं। शाम ढले, दीया बाती होने के बाद जब रामजी नहीं पहुॅंचता तब दादी अपनी टेढ़ी मेढ़ी लाठी टेकती रघु की बुआ के घर ही आतीं।
‘‘लो, यह यहाँ विराज रहा है मैं जंगल तालाब भटकती रही।’’
‘‘पहले लोग घर में ढूँढ लेते हैं तब बाहर जाते हैं काकी, आपको भी भटकना अच्छा लगता है।’’ – बुआ कहतीं।
‘‘आपने ही तो कहा था कनियाँ, कि ये लोग खेत पथार, गड़हीं तालाब नापते रहते हैं।’’
‘‘आज तो मजलिस यहीं, जमी।’’ – अब सब अपने अपने घर की ओर चले गये। रसूल मियाँ की सिर्फ एक दादी थी, न माँ न बाप! एक बड़ी बहन थी सो ब्याह कर ससुराल चली गई। समय बीतता चला गया। रघुनाथ बाबू बी0ए0 की परीक्षा देकर बुआ के गाँव गये थे। रामजी केवट का विवाह, द्विरागमन हो चुका था। रघुनाथ बाबू उसके आंगन गये थे, रामजी की कनियाँ ने घूंघट न उठाया पर चुपचाप पीछे से एक बाल्टी आलतई रंग घोलकर नहा जरूर दिया था। रसूल कुजड़ा बुआ के खेत में आलू बैगन उपजाता और बैलगाड़ी पर लादकर हाट पर बेच आता।
सांध्यकालीन बैठक में रामजी और रसूल ने रघुनाथ से कहा – ‘‘मछली फॅंसाने के लिए बाँस का बाड़ा लगा रहे थे कि पैर में कुछ ठोस वस्तु टकराया; खोदकर निकाला तो मूर्ति निकली, हमने उसे वहीं दबा दिया है।’’
‘‘ऐं कैसी मूर्ति है, किसकी है?’’ – रघुनाथ ने पूछा
‘‘देखोगे तब न यार, जान पड़ता है शिवलिंग है।’’
‘‘उसपर देवी की मूरत भी हैं। मेरी समझ से ऐसी मूरत कहीं नहीं है’’ – रसूल ने कहा ।
‘‘कहाँ हैं?’’
‘‘चलो न, उसे चैर में ही दबा दिया है।’’ – तीनों मिलकर चैर पर पहुॅंचे। चैर पहले कभी बड़ा रहा होगा पर अभी छोटा सा जलजमाव था। चारो ओर खेती ही खेती। ये लोग मात्र 81-82 साल के थे परन्तु योजना सौ साला बना बैठे। सचमुच काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था उसपर सोलहो श्रृंगार किये गौरी पार्वती की मूर्ति उत्कीर्ण थी। तीनों मित्रों की सलाह हुई कि कल नाटकीय ढंग से घोषणा की जाय – कि रात में देवी ने इन तीनों को स्वप्न में आकर कहा है कि मैं चैर में मिट्टी के नीचे दबी पड़ी हॅूं। मेरा उद्धार करो रघुनाथ ने बताया मित्रों को कि या तो सन् चौंतीस को भूकम्प में यहाँ कोई विशाल मंदिर होगा जो जमींदोज हो गया या बड़े वाले जलाप्लावन में कहीं नेपाल तरफ से दह–भॅंसकर आ गया होगा। अब जो हुआ सो हुआ। क्यों न थोड़ी प्रतिष्ठा अर्जित कर ली जाये साथ ही पुन: प्रतिष्ठा का पुण्य लूट लें। लोकोपकार भी होगा। जैसे ही इन तीनों के मुॅंह से सपने की कथा प्रसारित हुई लोगों ने मूर्ति खोजना शुरू किया। गाँवों के इलाके भर में समाचार आग की तरह फैल गयी। लोग चैर के पास इकट्ठे होने लगे बच्चे बूढ़े और जवान। निकट गाँव की स्त्रियाँ भी आ जातीं। खुरपी कुदाल चलने लगा। एक बुजूर्ग ने बरजा – ‘‘कुदाल का सफाई हाथ न मारो मूरत खंडित न हो जाय।’’
‘‘अंग–अंग मूरत पूजित न होंगी।’’ – दूसरे ने कहा। कीर्तनमंडली अपना झाल मृदंग लेकर बैठ गई । कीर्तन होने लगा। एक डाॅक्टर साहब थे गाँव में। उन्होंने कहा – ‘‘अरे नवयुवकों ने सपना देखा, उस बात को इतनी गंभीरता से क्यों ले बैठे आपलोग? सपने कहीं सच होते हैं?’’ कुछ लोगों को उनका कहा सही लगा पर अधिकतर लोगों को बहुत बुरा लगा।
‘‘देवी क्यों सपने में आयेंगी सत्य ही होगा।’’ – एक आस्थावान वृद्धा बोलीं। बुआ जी के मन में द्वन्द्व होने लगा कि उन्हीं के भतीजे ने सपना देखा और यह मजमा इकट्ठा हो गया है ।
‘‘हे माँ, लाज रखना।’’-
रामजी और रघुनाथ ने विचार किया आज रसूलबा के हाथों देवी प्रकट किया जाय। कोेई सन्देह न हो सो रामजी दूसरी ओर पानी में उतरा और रसूल मियाँ मूर्ति की तरफ कच्छा पहन कर घुसा। एक घंटा तक इधर उधर डूबते तैरते रसूल ने पकड़ा – ‘‘यह बड़ा पत्थर मिला, मूर्ति ही है।’’ चारो तरफ से तैराक कूदे और देखते देखते मूर्ति लेकर निकल आये। फुलपाॅक से मूर्ति निकाल सूखे पर रखी गई। कई बाल्टी पानी से धोई गई। काले सुचिक्कन प्रस्तर मूर्ति को देख अचम्भित और भावविभोर थे लोग। इस इस विषय पर विचार होने लगा कि मूर्ति को कहाँ और कैसे स्थापित किया जाये। अनायास विचार हुआ कि मन्दिर वहीं बने। यह जमीन गैरमजरूआ है, तालाब घाट सहित बन जाय। इन तीन तिलंगों का भाव बढ़ गया था। समय पाकर मंदिर बन गया। भव्य मंदिर! आखिरी बार जब रघुनाथ बाबू बुआ के गाँव आये थे तो देखा विशाल मंदिर अहाता, परिसर। परिसर में दूकानें फूल बेलपत्र की, अॅंचरी चूड़ी, सिन्दुर चुनरी की दूकानें। इन पूजन सामग्री की दूकान रसूल मियाँ की थीं। रामजी केवट की दो दूकानें थी पूजन सामग्री और भभूत मिठाई वगैरह की। रसूल और रामजी की दूकानें पक्की थीं। रसूल ने पक्का घर भी बनवा लिया था। शादी हो गई थी, बाल बुतरू भी हो गये थे। त्योहार के अवसर पर मंदिर खूबसूरती से सजाया जाता। जैसे–जैसे भक्तों की वांछित मनोकामना है पूरी होती, वैसे–वैसे ख्याति बढ़ती जाती। भक्तगण कुछ न कुछ दान देकर शोभा द्विगुणित करते रहते। यह सब भगवान और भक्त के बीच का मामला था।
एम0ए0 करने के बाद रघुनाथ बाबू अपने निजी जीवन को गंभीरता से लेने लगे। काॅलेज की नौकरी सिर्फ टेम्परेरी समझकर किया था वहाँ परमानेन्ट हो गये। आवश्यकतानुसार पी0एच0डी0 करने में लग गये। काॅलेज में सीढ़ियाँ चढ़ते गये। विभाग के अध्यक्ष तो बने ही विश्वविद्यालय के प्रो0 वी0सी0 पद तक पहुॅंच गये। सचमुच रामजी केवट कई बार बाबा धाम आया और इनसे मिलता रहा। जब मखाने का व्यापरी हो गया तब अक्सर एक बोरिया मखाना लेकर आता था। गांव घर का समाचार सुनाता। रसूल राइन के बेटे सब्जियों के व्यापारी हो गये थे। मंदिर परिसर के कई भोजनालयों में तरकारी मुहय्या कराते। रसूल अब अधिक समय दूकान पर गुजारता शिवरात्रि का व्रत वह हर साल करता। रामजी केवट और रसूल राईन अक्सर खानगी में बतियाते कि धन्य ये गौरी शंकर कि हमलोगों जैसा नंगा फकीर आज सम्पन्न हैं। वह मूर्ति इन्हीं लोगों को क्यों मिली और इनलोगों ने ऐसी सुनिश्चित योजना ही क्यों बनाई ? राजी तो था ही, रसूल पूर्णतया भोला–भाला था। रमजान रोजा, सब अपनी जगह बाबा अपनी जगह। दोनों आस्था साथ लेकर चलता। रघुनाथ के पूछने पर रामजी ने बताया था कि ‘‘रसूल ने अपना खास दो बीघा जमीन अरज लिया है, बेटा बेटी पढ़ा सो व्यापार बढ़ाया। पर उसका एक दामाद बड़ा टेटियाहा है।
‘‘ऐं ऐसा क्या?’’ – रघुनाथ चौंका था।
‘‘भई दामाद कुछ ज्यादा पढ़ा लिखा है। अपने गांव में ही मदरसा खोल लिया है।’’ – रामजी ने बताया ।
‘‘ठीक तो है, गाँव के बच्चे पढलिख लेंगे।’’- रघुनाथ ने कहा।
‘‘पढ़ेगा! यह होता तब न ? चेला चाटी को उल्टा पुल्टा सिखाता है।’’
‘‘ऐं?’’ रघुनाथ सोचने लगे। समय पाकर गाँव गये तो रामजी को खबर की। रामजी से कहा कि रसूल को लेते आये। पर वो अकेले आया। पूछने पर बताया कि रसूल आने लायक नहीं है ।
घर में उसका दामाद अक्सर अपमानित करता है कि गौरीशंकर मंदिर में रहता है। बरत करता है, ईद बकरीद छोड़ कभी नमाज नहीं पढ़ता है। अब तो बेटों ने भी कहना शुरू किया कि मंदिर वाले दूकान को किराया पर उठा दो, तुम न बैठो पर रसूल न सुना तो न सुना। एक दिन रसूल ने अपने बेटे बेटी, बहू दामाद को बैठाकर मूर्ति मिलने की सच्ची कथा सुना दी और कहा – ‘‘देख लो, अल्लामियां ने मेरे हाथों मूरत का उद्धार कराया, हम उनका दर न छोडेंगे।’’
‘‘अल्ला को काहे सानते हो अब्बा, दोजख में भी जग्गह न मिलिहैं। फाजुल बात बोलते हो। दिमाग चल गिया है।’’- दामाद ने हिकारत से कहा रसूल अब लोगों को पकड़ पकड़कर मूरत मिलने की कथा कहता रहा, मेरे समझाने पर भी न मानता। सचमुच बौरा गया है।
अचानक जीवन के अवसान काल में रघुनाथ बाबू को बोध हुआ कि कोई अपराध हो गया तीनों तत्कालीन नवयुवकों द्वारा। यदि ये सच्ची बात जाकर लोगों को समझाते हैं तो इन्हें भी लोग पागल समझेंगे और रामजी अलग नक्कू बनेगा।
‘‘रामजी, क्या मैं चलूँ रसूल के पास? कोई लाभ होगा?’’
‘‘कैसे कहॅूं?’’ – रामजी ने कहा। रघुनाथ बाबू बहुत सोच विचार के बाद सीधे मंदिर परिसर गये । रसूल मियाँ अपनी दूकान पर मिले उसकी दूकान से सीधे गर्भगृह दीखता था; शिवलिंग के दर्शन होते। बहुत देर तक देखता रहा रसूल रघुनाथ बाबू को, पहचान गया; वर्षों बाद देख रहा था।
‘‘ओ रघुनाथ बाबू, मेरी सच बातों को कोई कान नहीं देता है, यह मलहबा रमजीया भी कुछ नहीं बोलता। मेरा मौलवी दमाद कहता है मंदिर छोड़ दो।’’- विह्वल था रसूल
‘‘रसूल यार, मन की बात मन में ही रखो। बाबा मन में हैं।’’ रसूल ने मेरी कही सुनी। गाँव से आये छः माह हो गये थे कि एक दिन रामजी आया। रसूल के बारे में पूछने पर बताया कि उसके घर की प्रगति हो रही है। मदरसा सरकारी हो गया और दामाद जी सरकारी सेवक। लेकिन रसूल मियाँ पूर्ण पागल हो गया। बच्चे ढेला मारते हैं और चिढ़ाते हैं – ‘‘बम महादेव बमरी, सवा हाथ का नेंगड़ी’’- हम डाँट कर भगाते हैं। बेटे दामाद जो उसी के कारण आज सम्पन्न हैं कहते हैं – ‘‘ईहो होयके बाकी रहलो हे, जैसन करनी तैसन भरनी’’
दोनों मित्र भारी मन से इस पारिवारिक विषय को सोचते बैठे रहे देर तक।
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