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अनुकृति उपाध्याय से प्रभात रंजन की बातचीत

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किसी के लिए भी अपनी लेखन-यात्रा को याद करना रोमांच से भरने वाला होता होगा । जब आप अपनी शुरुआती स्तर से कुछ दूर निकल आते हैं तब वहाँ से पीछे मुड़ कर देखना-सोचना अलग तरह के एहसास से भर देने वाला होता है, जब अपनी ही यात्रा एक-एक कर आपके सामने बारी-बारी चलने लगती है । इन्हीं बिन्दुओं के इर्द-गिर्द अनुकृति उपाध्याय अपने अनुभव हमसे साझा कर रही हैं ।  अनुकृति उपाध्याय हिन्दी में अपनी कहानियों से जानी जाती हैं, उपन्यास ‘नीना आंटी’ से जानी जाती हैं और अंग्रेज़ी में अपने उपन्यासों से। उनसे यह बातचीत प्रभात रंजन ने की है, आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी

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प्रभात रंजन – शुरुआत से शुरू करें। अपनी लेखन यात्रा के बारे में बताइए और यह भी कि पहली पुस्तक लाने में इतनी देरी क्यों की ?

अनुकृति उपाध्याय – जब से चेतन स्मृति गठी, तब से पाया कि लिखती हूँ । माँ बताती हैं – बहुत छुटपन से ही कविताएँ पिरोती थी, अकेले बैठ कर शब्द सोचती थी । हॉंगकॉंग प्रवास के सात-आठ वर्षों के दौरान बिल्कुल नहीं लिखा – न कविता, न कहानी, न डायरी । जीवन, अनुभव, जिज्ञासा नएपन की फागुन-चैत धूप में पकते-रसाते रहे । लौटने पर फिर लिखने लगी, अधिकतर पिता के साथ बाँटने के लिए । जब तक वह रहे, लिखने-पढ़ने का आर्क उनके साथ पूरा हो जाता । उनके जाने के बाद सोचा – किसी एक को पढ़वाऊँ लेकिन किसे? फिर राजकमल के अशोक जी से संयोगवश मुलाक़ात में उन्होंने कहा – गद्य लिखो हिन्दी में, नए काम की बहुत दरकार है । सो हिंदी में तीनेक कहानियाँ लिखीं, तब तक कहानियाँ-उपन्यास अंग्रेज़ी में लिख रही थी । ममता कलिया जी का नम्बर कहीं से मिला और उनको कहानियाँ ईमेल की । उसी रात बारह बजे उनका ईमेल आया – बहुत प्रशंसा, बहुत प्रोत्साहन और जानकीपुल से सम्पर्क । वहाँ से आप जानते ही हैं – कहानियाँ जानकीपुल पर प्रस्तुत हुईं और कथादेश, हंस, तत्सम आदि में । एक दिन अचानक राजपाल की मीरा जौहरी जी ने संदेश भेजा – कहानी संग्रह प्रकाशित करना चाहती हूँ । उससे पहले प्रकाशन का सोचा ही नहीं था, ज़रूरत ही नहीं लगी थी । आज भी मेरे लिए लिखने और किसी सहृदय के द्वारा पढ़े जाने से लेखन का अनुभव संपूर्ण हो जाता है।

प्रभात – आपकी कहानियाँ अपनी संवेदना में हिन्दी कहानियों से बहुत अलग थी । भाषा बहुत अलग थी । आप यह सायास कर रही थी या सब अनायास था ?

अनुकृति – अलगपन सायास नहीं है, अनायास कहना भी कठिन है क्योंकि इस अलगपन तक पहुँचने में जीवन, चुनावों और नज़रिए का समावेश है । बहुत सा जीवन किताबों में निज-पर टटोलने और बहुत सा बहुत सी दुनिया को बहुत से अचरज के साथ देखने में ख़र्चा । इन दो धुरियों पर घूर्णित संवेदना को अभिव्यक्ति और भाषा देने में शायद अलगपन आवश्यक था । जीवन और सरोकारों के चलते प्रवास और देशाटन दोनों हुए, भिन्न भिन्न देशों में, चित्र-विचित्र लोगों, उनकी जीने की पद्धति, धारणाओं, जीवन के ज़रूरी-ग़ैरज़रूरी व्यापारों को घनी जिज्ञासा से देखते हुए पाया – त्वचा-तले हम एक हों लेकिन भिन्नताएँ कितनी दिलचस्प। दूसरे, जीवन दरअसल दूसरे ब्रह्मांड हैं – उनके अपने सूरज-चाँद-धरती-आकाश हैं, अपने जंगल, अपने दलदल, अपने सागर। दूसरों के सूत्र कहाँ सबसे, स्वयं से, जुड़े-टूटे हैं, उन संधियों और विच्छेदों को लिखने की कोशिश रही है, उस लिखाई के लिए भाषा और मुहावरे बनाने की कोशिश उसी अभिव्यक्ति की कोशिश का हिस्सा है ।

प्रभात – अपनी हिंदी कहानियों पर शुरुआती प्रतिक्रियाएँ किस तरह की रहीं?

अनुकृति – प्रतिक्रियाओं के विषय में बहुत भाग्यशाली रही । वरिष्ठ लेखकों और समसामयिकों ने सराहा, पाठकों ने प्रशंसा के शब्द लिखे, समीक्षकों ने भी । यह सब अप्रत्याशित था। एकदम अनजान लेखक के लिए पढ़ा जाना ही बड़ी बात है फिर ममता कालिया जी, हृषिकेश सुलभ जी, मनीषा कुलश्रेष्ठ जी, अलका सरावगी जी जैसे वरिष्ठ जनों की प्रशंसात्मक प्रतिक्रिया तो बिल्कुल उम्मीद के बाहर । हालाँकि इसका श्रेय जानकीपुल को जाता है, रचनाएँ वहाँ प्रस्तुत हुईं और चर्चा में आईं ।

प्रभात – प्रेरणाओं-प्रभावों की बात करें तो किन लेखकों का ध्यान आता है ?

अनुकृति– बहुत से लेखकों को सराहती हूँ, बल्कि मुझे लगता है कि मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं पढ़ा जिससे कुछ सीखा नहीं । पिता सुरेंद्र उपाध्याय की प्रेरणा और छाप मन पर और लिखे पर , सब पर है। बहुत कुछ ने प्रभावित किया – महादेवी की सहजता, अज्ञेय की सुसंस्कृत अभिव्यक्ति, हज़ारीप्रसाद द्विवेदी की विद्वता, अनामिका दीदी के कोमल विरोध, विनोदकुमार शुक्ल के रोज़मर्रा के पत्थर जीवन को सोना करने का जादू । बहुत से अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाओं के लेखक मूल और अनुवादों के सहारे पढ़ कर ख़ाली गगरी में सागर समाने की दुस्साहस भरी चेष्टा करती रही हूँ – जेन ऑस्टिन, मार्केज़, अकूतागावा, मुराकमी, तानीज़ाकी, योको ओगावा, जेम्स जोयस, बुकोवस्की, अपडाइक, टोनी मोरिसन, नाबोकोव, तोलस्टोय, चेखव दोस्तोव्सकी – सब प्रियतर लेखक हैं जिनके लेखन से चमत्कृत हूँ ।

प्रभात – आप बहुत गिनी चुनी लेखकों में हैं जिन्होंने एक तरह से हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में एक साथ लेखन शुरू किया । दोनों भाषाओं के लेखक-पाठक समाज में अच्छी स्वीकृति मिली लेकिन ज़ाहिर है दोनों भाषाओं के अपने अलग-अलग अनुभव रहे होंगे । इसको किस तरह से देखती हैं ?

अनुकृति – कितना दिलचस्प प्रश्न । हिंदी का कथा-संग्रह ‘जापानी सराय’ अंग्रेज़ी उपन्यास द्वय ‘दौरा’ और ‘भौंरी’ से पहले आया । पाठकों-समीक्षकों की प्रतिक्रियाएँ अंग्रेज़ी उपन्यासों पर पहले और अधिक आईं, साहित्यिक समारोहों के लिए बुलावे और पुरस्कार भी अंग्रेज़ी काम के कारण आए । मुझे लगता है दो भाषाओं में काम करने के कारण मुझे अंग्रेज़ी साहित्य-समाज में हिंदी-अंग्रेज़ी की दूरी पाटने के माध्यम के रूप में देखा जाने लगा और मेरे काम को लेकर एक तरह की जिज्ञासा पैदा हुई । हिंदी साहित्य समाज में पाठकों से दूरी-सी महसूस होती है क्योंकि उनसे सिर्फ़ साहित्य पर जुड़ने के मौक़े न के बराबर मिले हैं । इसमें मेरी कोताही भी रही, सोशल मीडिया पर सीमित उपस्थिति है और अपने काम में लगे रहना, अपने आप में बझे रहना हमेशा से अधिक रुचिकर रहा है । हिंदी में लग कर काम कर रही हूँ । आशा है पाठकों से वह जुड़ाव स्थापित कर पाऊँगी जो अंग्रेज़ी में है । हिंदी माँ का घर है, इसमें शुरू से बसी हूँ, घर वालों से घनिष्ठता धीरे-धीरे बढ़ेगी ही ।

प्रभात – अपनी कविताओं के बारे में बताइए । आपने लिखने की शुरुआत कविताओं से की और आज भी नियमित रूप से कविताएँ लिखती हैं । अपनी कविताओं को अपनी कहानियों, उपन्यासों से अलग देखती हैं ?

अनुकृति – कविता मेरे लिए नांदी पाठ सी हैं । उनके बिना लिखने की कल्पना नहीं कर सकती । बहुत सी ज़रूरी सुंदरताएँ, बहुत से आवश्यक विरोध कविताओं में छनते हैं । कई बार किसी संवेदना का पैनापन या कोई आकस्मिक उद्गार कविता का बायस बनते हैं । कविता की मेरी प्रैक्टिस गद्य को माँजने के लिए भी बहुत ज़रूरी है । भाषा की अंतर्निहित लय और सुगमताएँ कविता से ही उजागर होती हैं । मुझे लगता है कि गद्य की रवानी, खटकते शब्दों को सुधारने और भटकती भाषा को साधने के लिए कविता वाले कान चाहिए। दुःख सबको माँजता हो, हर तरह के लेखन को । कविता का अभ्यास चमकाता-पैनाता है, ऐसा मेरा मानना है। इस का यह अर्थ नहीं कि मैं कविता को सीढ़ी या साधन मानती हूँ, कविता का जो अपना ज़रूरीपन है, ये सब उसके अतिरिक्त है ।

प्रभात – आपकी कहानियाँ हिन्दी में एक अलग तरह की भाषा में आईं । न सिर्फ़ विषयवस्तु बल्कि एक अलग तरह की भाषा के साथ लेखन की शुरुआत करना सायास था यह सब सहज स्वाभाविक रहा?

अनुकृति – भाषा और मुहावरे का चुनाव चेतन रूप से नहीं किया, जो भाषा-मुहावरा कहानी में सहज था, कथा को विचलित नहीं करता था, उसी में लिखा । कहानियों में भाषा कथा का पैरहन है, ये मेरा मानना है, उसे कहानी से पहले नहीं रखा जा सकता लेकिन उसके बिना कहानी कही नहीं जा सकती। इसी तारतम्य की उधेड़बुन में कहानियाँ लिखती हूँ ।

प्रभात – हिन्दी में आपका उपन्यास आया ‘नीना आंटी’। इस उपन्यास का कथानक ही बहुत अछूता नहीं था बल्कि इसकी भाषा भी आपकी कहानियों की भाषा से अलग थी । क्या उपन्यास के रूप में सोचते हुए आप कथाकार से अलग तरह से सोच रही थीं ?

अनुकृति – हिंदी मुझे प्रियतर है, उससे बड़ी पुरानी पहचान है, मेरी जीभ पर कोई भाषा हो, मुँह में, मन में हिंदी ही घुली है । उसे सहला-बहला कर, उमेठ-मरोड़ कर, कभी लँगड़ी लगा कर, कभी बाँहों में उठा कर उस से कुछ भी करवा सकती हूँ, ऐसा मानती हूँ । इस प्यारी सहूलियत के कारण अलग-अलग काम में भाषा की लय और बुनावट अपने आप बदलती है, मेरी कोशिश यही रहती है कि भाषा और कहानी साथ-साथ रहें, अलग रास्तों न निकल पड़ें । ‘ नीना आँटी’ में भी यही करने की कोशिश की । ‘नीना आँटी’ लम्बे फ़ॉर्म में मेरी पहली रचना थी । कहानियों से रचना-प्रक्रिया में समानता होते हुए भी लम्बे गद्य के लिए भिन्न मानस चाहिए । कहानी वाली सोच लेकिन कहने लिए अधिक धैर्य, अधिक टिके रहने की ताब । नीना की कई कहानियाँ थीं, सुनाने वाले के अनुरूप उन्हें कहना और बिखर कर वायवीय न हो जाने देना पहली शर्त थी । शिल्प के स्तर पर कहानी में जो तत्त्व छोटे कलेवर में होते हैं – चरित्र, कथानक, देश-काल – उपन्यास में उनकी निरंतरता बनाए रखना, तनाव और कसाव ढीले न होने देना दूसरी शर्त थी । और इस सबके बीच नीना का पहेली सा चरित्र न बहुत खुले न बहुत छुपे – यह तीसरी शर्त थी। इन्हीं को आधारभूत बना कर लिखा ।

प्रभात – आजकल क्या लिख रही हैं ?

अनुकृति – आज कल एक कहानी संग्रह पर काम कर रही हूँ । दसेक कहानियाँ और जापानी सराय से एकदम भिन्न । एक उपन्यास पर भी काम कर रही हूँ लेकिन बहुत धीमे । लिखना मेरे लिए मन का भोजन है, रस ले कर करती हूँ ।

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