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अनुकृति उपाध्याय की नौ ग़ज़लें

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अनुकृति उपाध्याय को हम हिन्दी-अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं के समर्थ और सशक्त लेखक के तौर पर जानते हैं। आज कल वह एक नई विधा में हाथ आज़मा रही हैं। ग़ज़लें लिख रही हैं। उनकी कुछ ग़ज़लें प्रस्तुत हैं-
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1
दर्द है दिल में या ज़माने में
धड़कता क्या मेरे फ़साने में
एक मुद्दत हुई लुटाए हुए
गौहरे-अश्क़ थे ख़ज़ाने में

ठहर पाया यहाँ कहाँ कोई
उम्र खोई है आने जाने मे

दर्द से नीलगूँ हैं गुल सारे
ज़ीस्त है मौत के दहाने में

हम हैं उसके वो जानता था मगर
देर कर दी हमें बताने में…

2

क्या है कि रंग झर नहीं जाते
क्या है कि ख़्वाब सर नहीं आते

तकते रहते हैं रास्ता किसका
क्या है कि लोग घर नहीं जाते

ज़ुल्मतें शब की हिस्से आती हैं
क्यों ये रंग ओ सहर नहीं आते

चाहे जलता हो अर्श का सीना
शब के कौक़ब क़मर नहीं जाते

मुझको आए और जो कुछ भी
क्यों ये शेर-ओ-बहर नहीं आते

खार बोए हैं ख़ुद ही राहों में
और सोचे हैं गुल नहीं आते

3

टूट कर हम जहाँ जहाँ से जुड़े
उन दरारों से दर्द रिसता है

दस्तकों पर मुँदे रहे शब भर
उन किवाड़ों से दर्द रिसता है

सहारे हैं जो पीपल की जड़ों के
उन दिवारों से दर्द रिसता है

पास आकर जो दूर दूर रहे
उन कनारों से दर्द रिसता है

टूटता है जो अब्र का सीना
चुप चनारों से दर्द रिसता है

तराशे कोह नाज़ुक पाँखुरों से
उन अश’आरों से दर्द रिसता है

4

सिफ़र से सिफ़र तक जुनूनी सफ़र में
कहाँ किन ख़यालों रहे किस फ़िकर में

ढली बारहा पर गुज़रती नहीं शब
घुले हैं अँधेरे धुँआसी सहर में

याँ पैरों तले की ज़मीं खो रही है
बहे जा रहे हैं किधर किस लहर में

रहे राब्ते ना न रिश्ते बचे हैं
बदलती है सूरत घड़ी में पहर में

5

ख़ुद ब ख़ुद यूँ ही धड़कन ये सँभल जाती है
तेरे आने की घड़ी आ के निकल जाती है

वो जो इक बात नहीं कहनी थी आने पे तेरे
तेरे आते ही वही बात निकल आती है

बिगड़ी जाती थी जो झूठे दिलासों पे तिरे
तबीयत वो तेरी यादों से बहल जाती है

6

मेरे काँधों पे है सलीब मेरा
मेरे हाथों में है नसीब मेरा

कहूँ किस से मैं ज़ीस्त के सदमे
मेरा हमराज़ है रक़ीब मेरा

कहने-सुनने को था बहुत लेकिन
बेक़लाम ही रहा हबीब मेरा

नब्ज़ अपनी है धड़कनें किसकी
दूर मुझ से रहा क़रीब मेरा

7

रूठे जो ख़्वाब सो नहीं आते
जागी आँखों में फिर नहीं आते

साल ढलते हैं दिनों की मानिंद
कल जो जाते हैं कल नहीं आते

वक़्त रुख़सत के जो गले न मिले
याद आती है वो नहीं आते

उनके जाने का सबब क्या ढूँढें
आते आते भी जो नहीं आते

सबको मिल जाते हैं चेहरे बाँहें
सबके हिस्से में दिल नहीं आते

8

धूप डालों पे फूल छाँहों के
फ़ासले खेल हैं निगाहों के

इक जुनूँ में निकल पड़े घर से
आँख सपनों की पैर राहों के

सुब्ह के शबनमी से आरिज़ पर
दाग़ हैं नीलग़ूँ गुनाहों के

रात के रेशमी रुख़्सारों पर
गिरे गौहर किसी की आहों के

तरे सेहरा तो पाएँगे दरिया
कैसे धोखे सहे हैं चाहों के

9

उक़ाबों में कबूतर खोजते हैं
किनारों पर समंदर खोजते हैं

नहीं मिलना है उसको ना मिलेगा
वो जिसको हम बराबर खोजते हैं

लहू में घुल रहा है क़ौम की जो
दवा हम उस ज़हर की खोजते हैं

करे गुलज़ार सहराओं को मन के
उसी मौसम के घर दर खोजते हैं

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