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टिकुली डोगरा की कविताएँ हिन्दी अनुवाद में

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पढ़िए टिकुली डोगरा की कविताएँ। टिकुली मूलतः अंग्रेज़ी की कवि और कथाकार हैं। उनकी कई रचनाएँ राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं और पुस्तकों में प्रकाशित हुई हैं।  अंग्रेज़ी में उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं तथा लेखन के लिए उन्हें कई सम्मान भी प्राप्त हुए हैं। टिकुली एक चित्रकार, प्रकृति, इतिहास प्रेमी और घुमक्कड़ भी हैं।उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद किया है गायत्री मनचंदा ने। आप भी पढ़ सकते हैं-

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अनाम

दुःख, एक अनदेखी बीमारी की तरह

हड्डियों के ढाँचे में ऐसे घर कर जाता है

जैसे थोड़ा खोकर बहुत कुछ गंवा दिया।

 

लॉकडाउन में एक दूसरे को नोच खरोंचते

बिना तालों के घर नुमा जेल में बंद लोग

जिनके घर छोड़ भाग जाने के रास्ते बंद,

एकाकीपन ने ऐसे में ढूंढ ली गली सांकरी।

 

वो दबे पांव आ, कोहरे की ओढ़नी बन कर,

धीरे-धीरे, मेरे अस्तित्व को ढाँप रहा था ।

मन के मंजीरे, मेरे पोरों में घुलते दुःख को

देख कर अनदेखा करने की कोशिश करते

नकार भी तो नहीं पाए थे उसका वजूद

पर मैं उसका कुछ कर भी नहीं सकती थी,

मेरे लिए यह कोई नया एहसास नहीं है,

एकल जीवन से मेरा परिचय पुराना था।

 

फर्क इतना – पहले लोग ऐसे मर नहीं रहे थे,

धूप से बेहिस इतने थके, छलनी पाँव नहीं थे,

सुनसान, बियाबान हो चुके हाईवे पर कितने,

बिना नाम- चेहरों कई, अपनों से धोखा खाये,

लोग जानते थे बस भूख, बेबसी और प्यास,

बस देखते थे सर पर लटकी मौत की तलवार,

एक अनंत यात्रा, कौन जाने कितने घर पहुंचे।

 

मेरी खिड़की के बाहर सरसराता सा

एक ज्वलंत गुलमोहर का पेड़ है, जो

एहसास कराता था, मेरे स्वाधिकार का।

जिस वक़्त पूरी दुनिया संघर्ष कर रही थी

इस गृह बंधन से बाहर निकलने के लिए

मैं आज़ाद हो रही थी, काट कर महीन रेशे,

अपने खुद के ऊपर बिछाये जंजालों के।

 

मैं, अब खुले रास्तों पर अडिग फिरती हूँ,

अब, हर खुली खिड़की, हर खुले दरवाजे से

आकाश काली चिमनी सरीखा नहीं दिखता,

न जाल में फंसा, न धुएं से लिपटा लिपटा,

पेड़ों से अठखेलियां करता एक नीला मरूद्यान,

जिसके पत्तेदार गुम्बदों में पक्षी ऐसे चहचहाते,

जैसे अलसायी दोपहरों में मरवा के राग गाते हो ।

बिल्ली मेरी एड़ियों से सट कर बैठी,

देखती है मुझे हवा के लाए तोहफे समेटते –

नीम के फूल और कच्ची कैरियाँ –

कच्ची कैरियों में धार लगाकर

लाल मिर्च और नमक का साथ –

संकेत है ,मेरे शहर में बहार आयी है।

 

गली के उस छोर पर,

दो सड़कों के संगम पॉइंट पर

अमलतास की महफ़िल सजी है ,

ये हमेशा की तरह एक साथ ही आयी हैं ,

सड़कों पर कोई लॉक डाउन नहीं लगा है.

 

कुछ आगे चल कर देखो कैसे सिरिस –

अपनी सुगंध से तोते को रसिक बना रहा है

मैं शहतूत बटोरने के लिए नीचे उतरती हूँ,

आसमान में तारे जाल फैलाए मुग्ध बैठे हैं,

एक रूफस ट्रीपी चुपचाप निहारता रहा ,

कोयल को सन्नाटे में मिश्री घोलते देख।

मैं अपनी चिंता का ओढ़नी परे फेंक कर

हवाओं में घुल रहे रंगों से रूबरू हो रही हूँ

और एक कौआ मुस्कुरा कर देख रहा है.

 

जल्द ही इस शाम की परछाइयां

और गहरी, और लम्बी हो जायेगी ,

मेरे क्षितिज की ओर रास्ता दिखाते।

फिर मैं इमली और गुड़ के साथ मिला

चांदनी की चासनी से सराबोर हुई

रम जाऊंगी उस एहसास में, जो मेरा है।

 

किसी की भँवे तनी हुई है, पूछ रहे हैं –

” क्या ये नैतिक है ? इस संकट के काल में,

अपने आनंद और स्वाधिकार की अनुभूति का नंगा नाच दिखाना? “

मैंने जवाब दिया ,

” ये उस औरत से पूछो, चिरकाल से वो जिस घर का सपना देख रही थी  ,

वो सपना अब पूरा हुआ और उसे अपना घर मिल गया।  ”

 

Untitled : Tikulli Dogra

 

…….

 

दिवास्वप्न

 

दिल्ली के ढहते खंडहर की दीवारों पर गर्मियां ओस बन टपकती है

ग़ज़ल की तरह फूलों के दरमियान पिघलता वक़्त ठहर जाता है,

टहनियों से छनती रोशनी की नक्काशी पर मैं उंगलियां फिराती,

पोरों पर महसूस करती, मिट्टी से सनी पीले फूलों की बेलों को,

भूले हुए शहरों में खोये हुए प्रेमियों के प्रेम पत्र दर्ज़ हो यहाँ जैसे,

अमूमन, शोर से पूरे बाग़ को अपने सर पे उठाते कौवे, आज मौन,

बग़ल के नीम के पेड़ों की छायादार गहराइयों में डूबे हुए हैं।

हरी झिर्रियों की धुंध से परे हट मैं खुली आँखों से सपना देख रही हूँ

हवा का एक नरम झोंका मुझे गुज़री गर्मियों में वापस ले आया है,

मैं समय के उनींदे हिस्सों से पैदा हुई एक परिकल्पना को जी रही हूँ,

मृगतृष्णा की तरह उठती पीली गर्मी – विषाद के उमस में लिपटी

नयी दिल्ली ने अतीत के पन्नों में जाने कितने किस्से दफन किये हैं

कितने भूल गयी मैं…जाने कितने अमिट छाप छोड़ कर ग़ुम हो गए हैं .

 

Daydream : Tikulli Dogra

 

 

परित्यक्त

 

वह पहाड़ी पर खड़े उस खाली घर की तरह थी

वह खामोश, उजाड़ घर जहाँ कभी कोई नहीं जाता,

जिसकी स्याह दीवारों पर समय की कालिख पुती है

और बंज़र हुई खोखली बेज़ार आँखें बंद- खुली हैं

वहाँ दिखता नहीं कोई पर हलचल पुरज़ोर होती है,

दबे क़दमों की आहटें , कभी दरवाज़े से आवगमनी,

गहन अंधेरे को चीरता रौशनी का एक टूटा कतरा –

एक ही समय, खुद डरता औरों को डराता, परित्यक्त।

 

Haunted : Tikulli Dogra

……

 

Original Poems by : Tikulli Dogra

Translation By : Gayatri Manchanda

 

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