देवेश पथ सारिया को उनके कविता संग्रह ‘नूह की नाव’ के लिए युवा कविता का प्रतिष्ठित भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया गया है। आइये इस कविता संग्रह की समीक्षा पढ़ते हैं। लिखी है महेश कुमार ने जो काशी हिंदू विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं-
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देवेश पथ सारिया हिंदी के युवा कवि हैं। ‘नूह की नाव’ उनका पहला कविता संग्रह है। साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया है। देवेश ताइवान में तारामंडल से जुड़े विषय पर शोधरत हैं। एक प्रवासी जीवन है उनका। उनकी कविताओं में विज्ञान के प्रति विनम्रता, प्रवास में रहते हुए ताइवान के भिन्न रूपों का आस्वादन, दैनिक जीवन से अर्जित अवलोकन की दृश्यात्मकता और भारत में बिताए गए पारिवारिक जीवन की स्मृतियाँ उपस्थित हैं। देवेश की कविताओं में ‘राजनीतिक आक्रोश’ ( political loudness) की शब्दावलियाँ नहीं है। कविताओं को राजनीतिक पोस्टर और मेनिफेस्टो होने से बचा लिया गया है। कवि जो भी कह रहा है उसमें दैनिक जीवन और उसके वातावरण के दृश्य और बिम्ब प्रमुखता से आते हैं। दरअसल देवेश की कविताएँ जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों से मिलकर बनी हैं जो मनुष्यता का वृहत्तर कोलाज बनाती है।
संग्रह की पहली कविता है ‘अल्मनक’। कविता नाविकों और अल्मनक से प्यार करने वालों (जो कवि भी है) के संबंधों पर है। मानव सभ्यता ने नाविकों के दो चेहरों का अनुभव किया है। एक साम्राज्यवादी चेहरा और दूसरा नदियों के प्रति कृतज्ञ होकर मानव सभ्यता को विस्तार देने वाला चेहरा। भारत में साम्राज्यवादी नाविक-व्यापारिक बनकर आए और दम भर लूटा। यूरोप ने दुनियाभर को इसी तरह लूटा। आजादी के बाद आंतरिक उपनिवेशवादी नीतियों के तहत नदियों के किनारे बसे हुए तमाम शहरों और गाँवों को आधुनिक नाविकों ने तबाह किया है। नदियों में टेंट सिटी बनाने वाले, स्टीमर चलाने वाले, बड़े-बड़े क्रूज चलवाने वाले और समुद्रों में बड़े पैमाने पर जहाज चलवाने वाले ये सब आधुनिक नाविक हैं और नदियों के अपराधी हैं। आज भी जब बाढ़ और तूफान आते हैं तो नदियों और समुद्रों के किनारे बसे मछुआरे और निषाद अपनी जान पर खेलकर लोगों की जान बचाते हैं। वे ऐसा करते हैं क्योंकि यही उनका जीवन मूल्य है। नदियों के साथ रहते हुए यह कर्तव्यबोध ही उन्हें नदियों का सच्चा सेवक और साथी बनाता है। कवि इसी जीवनदर्शन के पक्ष में है। ऐसा जीवनदर्शन जिसका इतिहास आज भी हाशिए का इतिहास है। कवि लिखता है:-
“इस बार साम्राज्यवाद की लालसा लिए नहीं
सिर्फ परंपरागत नाविक बने रहने के लिए
उसी पुराने प्रण के साथ
कि चप्पुओं में बसते हैं नाविक के प्राण
कि जहाज के साथ डूब जाना होता है कप्तान को”
‘जहाज का कप्तान’ यदि साम्राज्यवादी मुनाफे का स्वाद चख चुका है तब उसका लक्ष्य केवल मालिक की दलाली करना होगा। यही उसका कर्तव्य और जीवन मूल्य भी बना रहेगा। जब हवाई जहाज का आविष्कार नहीं हुआ था, तब राजनीति शास्त्र में एक सिद्धांत चलता था जिसके अनुसार जिस राष्ट्र का कब्जा जलमार्गों पर जितना ज्यादा होगा वह उतना शक्तिशाली होगा। इस सिद्धांत में वे नाविक और कप्तान गायब हैं जिन्होंने अपना जीवन नदी सभ्यताओं को आपस में जोड़ने के लिए होम कर दिया। कवि ऐसे वर्चस्ववादी राजनीतिक सिद्धांतों से परे जाकर अपना ‘अल्मनक’ कर्तव्यनिष्ठ नाविकों को सौंपना चाहता है। दरअसल यह एक वैज्ञानिक चेतना से लैस कवि का मनुष्यता के पक्षधर नाविकों के साथ देते रहने की प्रतिबद्धता है।
हम विज्ञापन युग में रह रहे हैं। हमारी सरकारें विज्ञापनों पर टिकी रहती हैं। सोशल मीडिया पर ‘फॉलोवर’ की संख्या से ‘इंफ्लूएंसर’ की बार्गेनिंग क्षमता का पता चलता है। लोकप्रियता फॉलोवर की संख्या से तय होती है। सोशल मीडिया और अलग-अलग क्षेत्रों के सेलिब्रिटी अपने साथ एक बड़ा उपभोक्ता समूह साथ में लेकर चलता है। अकारण नहीं है कि कॉस्मेटिक, सट्टेबाजी, गुटखा, दारू, स्पा, सैलून से लेकर हर छोटी-बड़ी चीज का प्रचार अब रील्स तक में दिखाई देने लगे हैं। सरकारें अपनी उपलब्धियों को बताने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करती हैं जिसका प्रचार सेलिब्रिटी करते हैं। विज्ञापन के इस मोह से साहित्यकार भी अछूते नहीं हैं। पोस्टर कविताएँ इसका उदाहरण हैं। विज्ञापन अब रोजमर्रा का हिस्सा है। साहित्य हो या कोई वस्तु उत्पादन इतना अधिक है कि इसे खपाने के लिए विज्ञापन की जरूरत है। पूँजीवाद ने जो बाजार खड़ा किया है उसके उत्पादन प्रणाली के संकट से उबरने के लिए इसने मानवीय संकटों और भावनाओं को भी विज्ञापन में बदलकर मुनाफा कमाने की युक्ति निकाल ली। चैरिटी और एनजीओ का पूरा बाजार इसी पर खड़ा है। इससे सरकार और पूंजीपति दोनों को फायदा है। नुकसान केवल ‘वेलफेयर स्टेट’ की अवधारणा को है। देवेश अपनी कविता में इसको चिन्हित करते हैं। ‘फटेहाल का ख़ज़ाना’ कविता में पूरा परिदृश्य उभर कर सामने आता है।
“दुनिया के नामचीन फोटोग्राफर
भटकते हैं
भूखे नंगे लोगों की बस्ती में
और उन अभावग्रस्त लोगों में से
एक चेहरा चुनते हैं
भिखारी, दीन-हीन
अपने फटे-चीथड़ों में
ख़ज़ाना समोए हैं
जो बेचने की तरकीब जानते हैं
उन्हें लूट ले जाते हैं
बड़े सस्ते में”
‘फोटोग्राफर’ यहाँ पूँजीवादी तंत्र का एक नुमाइंदा मात्र है। उसे तो मुनाफे का बहुत ही छोटा हिस्सा मिलता है। इसके असली लाभार्थी राज्य और वैसे पूँजीपति हैं जिनके पास अपने केंद्रीकृत पूँजी से कई मँझोले पूँजीपति खड़े करते हैं जो उनके लिए दलाल का काम करते हैं। कवि की दृष्टि सीमित अर्थों में केवल फोटोग्राफर तक गयी है। अखबारों में फ़ोटो छपती है कि अमुक नेता ने गरीबों की बस्तियों का जायजा लिया। इस गाँव के मछुआरों के साथ खाना खाया। अमुक उद्योगपति ने इस गाँव को गोद लिया। कोरोना महामारी के समय बिहार की एक लड़की साईकिल पर अपने पिता को बैठाकर गाँव पहुँची। सरकार ने पुरस्कृत किया। बिहार के गया जिले में लौंगी भुइँया नाम के व्यक्ति ने सिंचाई के लिए कुदाल से नहर खोद दिया। मीडिया में खूब फ़ोटो आयी। उनकी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। दशरथ माँझी पर फ़िल्म बनी। उनके घरवाले आज भी मजदूरी कर रहे हैं। छवि निर्माण का यह पूरा तंत्र उसी विज्ञापन का हिस्सा है जिसके जरिए गरीबी, भुखमरी और अभावग्रस्तता बेची जाती है। इसके बलबूते सरकारें बनती हैं और पूँजीपति अपना सरप्लस निवेश करके और बड़ा सरप्लस बनाते हैं। जो इस तंत्र का हिस्सा नहीं बनते हैं उनका दमन होता है। जब दलितों पर अत्याचार की फ़ोटो छपती हैं, गरीब मुसलमानों की हत्या होती है, भात के लिए जब एक स्त्री मार दी जाती है, गरीब औरतों का बलात्कार होता है, कोरोना की भयावह तस्वीरें आती हैं और ट्रेन से कटे मजदूरों की रिपोर्टिंग होती है तब ऐसे फोटोग्राफरों को जेल जाना पड़ता है। पुलिसिया दमन का शिकार होना पड़ता है। गरीबी को ग्लैमराइज करने वाले पुरस्कृत होते हैं और गरीबी पर सवाल करने वाले दंडित।
कविता का काम निरंतर मनुष्यता और कला के नए आयामों की तलाश करना है। देवेश के इस संग्रह में तीन तरह से इन आयामों को समझा जा सकता है। समकालीन घटनाओं से प्रेरित होकर लिखी गयी कविताओं से, प्रवासी जीवन के अनुभवों से और कलाकार और कला के आपसी संबंधों पर लिखी कविताओं से। ‘घुमक्कड़ की चाह’, ‘तुर्की का व्यापारी’, ‘पृथ्वी की नाभि का हाल’, ‘जिंदगी का मजा माइक्रो में है’, ‘एक ताइवानी लड़की के लिए’, ‘ताइवान में दुर्गा पूजा’ ‘छोटा रूसी कलाकार’, ‘युद्ध की डॉक्यूमेंट्री देखते हुए’, ‘प्रेम को झुर्रियाँ नहीं आती’, ‘पहाड़ और पगडंडी’, ‘पेड़ हलाक होते हैं शहीद नहीं’, ‘भेड़’ तथा ‘कवि और कच्चा रास्ता’ इन कविताओं में विभिन्न आयामों को ‘विचार और कलागत’ विशेषताओं के साथ चिन्हित किया जा सकता है।
कविता और अन्य कला ज्यादा से ज्यादा मनुष्यों की स्मृतियों, उनके दुखों और जीवन यथार्थ को जोड़ने की विधा है। इसलिए कविता और कला यायावरी, अवलोकन, जीवन में ठहराव और विभिन्न परिवेश की ठोस समझ की माँग करते हैं। हमारी दिनचर्या में यांत्रिकता इतना हावी है कि हम अपने रोजगारपरक काम के अलावा जीवन-जगत के तमाम सौंदर्य को भी इसी यांत्रिक दृष्टि से देखने लगे हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है यात्राओं पर हावी पर्यटनवादी और उपभोक्तावादी दृष्टि। घुमक्कड़ी में उस भौगौलिक परिवेश की जनता और शामिल होती है। उनका दुख, उनकी स्मृतियाँ, उनका आतिथ्य और उस खास जगह के प्रति जिम्मेदारी और अधिकार शामिल होता है। इसी आपसी भावनात्मक और मानवीय संबंधों से यायावरी में भी घर जैसा संबंध बनते हैं। अब पर्यटन ने इस भागीदारी को मिटा दिया है। अब हम घुमक्कड़ी पर नहीं पर्यटन पर जाते हैं ‘टूरिस्ट’ बनकर। जहाँ जाते हैं वहाँ की जनता से हमारा कोई संबंध नहीं बन पाता। हमें यह तक नहीं पता होता है कि जिस जगह को देखने जा रहे हैं उसके लिए कितने लोग विस्थापित हुए, कितना जंगल काटा गया और इससे किसको फायदा हुआ? यह सब हमारे जीवन में घटते ‘सौंदर्यबोध’ का सूचक है। कवि ‘घुमक्कड़ की चाह’ में लिखते हैं :
“एक बरगद की छाँव
मीठे पानी की सुराही
सुस्ताने की आजादी
जहाँ मिल जाए वहीं घर है”
इस कविता में जो छुपी हुई अभिव्यक्ति है वह यही है कि अब प्रकृति का यह स्वाभाविक रूप खत्म होने को है। जैसे-जैसे यह स्वाभाविकता खत्म होगी वैसे-वैसे घुमक्कड़ी और ज्ञान के आपसी रिश्ते भी खतरे में होंगे। कवि के लिए यह चिंता का विषय है। वह जिंदगी को ‘माइक्रो’ स्तर पर महसूस करना चाहता है। जीवन महसूस करने की जरूरत होती है। इसलिए कवि लिखता है:
“सरपट भागना जिंदगी नहीं है
वे फूलों को एक बार सूँघकर
तोड़े बिना आगे बढ़ जाते हैं
अगले पथिक के लिए
रास्ते का यौवन अक्षुण्ण छोड़ते हुए” (जिंदगी का मज़ा माइक्रो में है)
सघन अनुभूति के लिए जीवन में ठहराव, स्मृतियों से जुड़ाव और समकालीन देशकाल की समझ जरूरी है। देवेश की कविताओं में ये तीनों बातें प्राकृतिक और घरेलू वातावरण के जरिये अभिव्यक्ति पाती है। उनके यहाँ पहाड़, पगडण्डी, बैलगाड़ी के चक्के, फूल, बर्फ, पेड़ और पृथ्वी की नाभि का प्रसंग रिश्तों की गर्माहट, शरणार्थियों की पीड़ा और समकालीन राजनीतिक संदर्भों के लिए आया है। उदाहरण के लिए इन पँक्तियों को देखिए:
“सर्दियों में, पहाड़ पर गिरती है बर्फ
और हफ्तों भर नहीं पिघलती
पगडंडियाँ, पलायन कर गई
एड़ियों की गर्माहट चाहती हैं।” (पहाड़ और पगडंडी)
रिश्तों की गर्माहट पर यह कमाल की काव्यात्मक पंक्तियाँ हैं। रिश्तों को जीवंत रहने के लिए स्नेहिल स्पर्श, उदात्त भावना और साहचर्य का होना अत्यंत जरूरी है। इसके बिना रिश्ते में दूरी आ जाती है। रिश्ता मनुष्यों के साथ हो या मनुष्येतर हो वे तभी बने रहेंगे जबतक ‘पगडंडी और एड़ी’ साथ-साथ रहें। यह साथ बनता है निरन्त जीवंतता की खोज से। जीवंतता के लिए स्मृतियों का होना जरूरी है। इन स्मृतियों के सहारे एक बुजुर्ग दंपत्ति पोपले मुँह के साथ गहरे प्रेम में बने रहते हैं और ‘बैलगाड़ी का पहिया’ याददाश्त संभालते हुए कहता है :-
“मैं ही लेकर आया था इनकी बारात” (प्रेम को झुर्रियाँ नहीं आती) यहाँ ‘बुजुर्ग दंपत्ति’ के साथ ‘बैलगाड़ी का पहिया’ आया है। कवि को परिवेश की वस्तुगत समझ है। जैसे ही परिवेश बदलता है कविता की पँक्तियाँ अपने राजनीतिक संदर्भों के साथ आने लगती हैं। उदाहरण देखिए,
“तारों की इतनी भर रखना ऊँचाई
कि हिबिस्कस के फूल गिराते रहें
परागकण, दोनों की जमीन पर
बाजवक्त
तारबंदी के आरपार
आवाजाही करती रहने पाएँ
सबसे नर्म दुआएँ “ (तारबंदी)
कविता हमेशा राजनीतिक हदबंदियों को अतिक्रमण करके मनुष्यता के विस्तार के पक्ष में खड़ी होती है। कविता सही मायने में ‘राज्यविहीन’ होती है। अगर नहीं है तो उसका दायरा संकीर्ण है। यहाँ ‘हिबिस्कस के फूल’ मनुष्यता के पक्ष में है। यहाँ विचारधारा का ‘लाउडनेस’ नहीं है। मनुष्यता के पक्ष में कवि ‘हिबिस्कस के फूल’ को बस सामने रख देता है। ऐसा वह ‘युद्ध की डॉक्यूमेंट्री’ देखते हुए भी करता है और ‘तुर्की का व्यापारी’ से मिलते हुए भी करता है। जब कवि कहता है:
“आप मुझे अनुमान में भी पाकिस्तानी न कहें
हमारे संबंध उनसे ठीक नहीं हैं
वह अपनी प्रौढ़ नीली आँखों से खालीपन में झाँका
और धीरे से बोला
हमारे लिए तुम दोनों भाई हो” (तुर्की का व्यापारी)
हमारी एक भौगोलिक पहचान है। इसके साथ ही हजार वर्षों से ज्यादा की साझी संस्कृति, रीति-रिवाज और रहने का एक ढ़ंग है। हम इसे भूलकर एक खास राजनीतिक पहचान को जब महत्व देते हैं तब मनुष्यता का संकट पैदा होता है। कविता में व्यापारी इसी संकट की ओर हमारा ध्यान दिलाता है। राजनीति हमें कुंठित करती है और कविता कुंठा का परिष्कार करती करने के लिए निरंतर प्रयासरत है। देवेश अपनी कविताओं में जब प्रवासी जीवन के अनुभव पर लिखते हैं तब वहाँ भी अपने सौंदर्यबोध का विस्तार करते हैं। वे अपनी कविताओं में एक मनुष्य को लगातार कुछ नया ‘सीखते’ हुए देखना चाहते हैं। इस सहज इच्छा का सबसे सुंदर उदाहरण यह कविता है ‘एक ताइवानी लड़की के लिए’,
“बड़ी आँखों में सुंदरता खोजने की अभ्यस्त
मेरी आँखों ने पाया सुंदरता का नया प्रतिमान
ताइवान आकर
उस लड़की की संगत में
मैंने जाना
यह ब्रह्माण्ड
बस इतना भर अनन्त है
कि आसानी से समा सकता है
दो छोटी आँखों की पुतलियों में!”
यह बेहद सुंदर बात है कि एक व्यक्ति अपनी मानकों का पुनर्मूल्यांकन करता रहे। हम उस देश के नागरिक हैं जिनपर कई वर्षों तक दूसरे के मानक थोपे गए। आज भी सुंदरता के जो मानक हैं वह उपनिवेशवाद से ग्रस्त है और इस कारण उत्पीड़न के कई खबरें मिलती हैं। हमारी पीढ़ी यदि इससे मुक्त होती है और नए सौंदर्यबोध को स्वीकार करती है, तब हम सुंदर दुनिया की ओर कदम बढ़ाएंगे। इसके लिए कविता और कवि का निरंतर विकसित होते रहना जरूरी है। कविता और कवि के नए अर्थों की तलाश भी जरूरी है। इसी से नए मूल्य भी बनते हैं। देवेश अपनी कविताओं में कला और कलाकार के संबंधों पर एक दर्शक की तरह लिखते हैं। ‘एक छोटा रूसी कलाकार’ और ‘ कवि और कच्चा रास्ता’ इन दो कविताओं में कवि ने दर्शक की तरह कला और कलाकार के संबंध पर लिखा है। इन पँक्तियों को देखिए,
“बच्चे के अनुसार, वह एक कलाकार था
ईमानदारी से अपना पहला ड्राफ्ट पूरा करता हुआ
बच्चे की नजर में, मैं था
उसकी रचना प्रक्रिया और तन्मयता में
सेंध लगाता एक उचक्का” (एक छोटा रूसी कलाकार)
कला उम्र की मोहताज नहीं है। हर उम्र का कलाकर जब अपनी कला के लिए समर्पित होता है तब वह उसका संरक्षक भी होता है। उसके समर्पण, निजता और कला के सम्मान के बीच जब कोई हस्तक्षेप करता है तब उसे ठेस पहुँचता है। दरअसल ऐसा करके वह कला और कलाकर की स्वतंत्रता की रक्षा के भाव से करता है। यही उसकी पहली शर्त है। इस कविता में बड़ी सहजता से इस केंद्रीय विचार को कवि ने रखा है। इसी भाव की दूसरी कविता की पँक्तियाँ देखिए,
“कुछ दृश्य, कोई गंध सिर्फ़ वही सहेज पाता है
हर दृश्य का मर्म कैमरा नहीं पकड़ पाता
किसी कैमरे का रेजोल्यूशन
कवि के मन जितना कहाँ” (कवि और कच्चा रास्ता)
यहाँ कवि के कल्पना, उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज को कविता की जरूरत पर बल दिया गया है। मनुष्य भावनाओं का पुंज है। इस भावनात्मक पुंज को उसके मर्म के तह तक जाकर एक कवि ही सही उद्घाटन कर सकता है। इसके लिए कवि निरन्तर कच्चे रास्ते से कुछ न कुछ अनुभव सहेजता रहता है। असल बात है कि सहेजे हुए अनुभव को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता समाज और राज्य देता है कि नहीं। एक कवि की मूल चिंता यही है।
इस तरह यह कहा जा सकता है कि यह संग्रह एक युवा कवि की कविताओं का कच्चा रास्ता है, जहाँ से अभी वह लगातार नए अनुभवों का संग्रह करके उसे अभिव्यक्त करने की कोशिश कर रहा है।
महेश कुमार
काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
ईमेल:- manishpratima2599@gmail.com
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