हिन्दी सिनेमा की तीन अभिनेत्रियों वहीदा रहमान, स्मिता पाटिल और तब्बू के बहाने हिन्दी सिनेमा की अभिनेत्रियों पर यह पठनीय लेख लिखा है योगेश ध्यानी ने। आप भी पढ़ सकते हैं-
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हिन्दी सिनेमा की अन्य तमाम अभिनेत्रियों के बीच अलग-अलग समय पर तीन अभिनेत्रियां ऐसी हैं जिनकी उपस्थिति बाकियों से अलग तरह की है। वे बतौर नायिका सिनेमा के जरूरी तत्वों मे निपुण हैं जैसे नृत्य कॉमेडी आदि लेकिन दृश्यों मे सब कुछ बिल्कुल अन्य अभिनेत्रियों सा करते हुए या अपने समय की पाॅपुलर थीम्स के अनुरूप रोल्स को निभाते हुए भी अलग चिह्नित होती हैं। मै इसका कारण उनकी भंगिमाओं के उस प्रभाव को मानता हूँ जिसमे वो परफार्मेंस मे पूरी तरह रत नही दिखते हुए कुछ छूटी हुई दिखती हैं। वह जो दृश्य से निरपेक्षता का भाव है। या छूटा हुआ मन जो जाने कहाँ है पर उस समय दृश्य मे दिखती नायिका के चेहरे या भंगिमाओं मे नही है। वह जो अनुपस्थित है, जो भूमिका मे से नायिका की उपस्थिति को थोड़ा सा चुरा ले रहा है। जो यह बता रहा है कि यह अभिनेत्री अपना थोड़ा सा अन्तर्मन सेट से बाहर अपने जीवन के किसी एकान्त कमरे मे छोड़ आयी है। जो यह कह रहा है कि यह तो कुछ भी नही, इस कठिन परिस्थिति से तो उबार ही लेगा कथाकार नायिका को। असल दुख तो कहीं और जमा है।
चित्रपट की नायिका मे अभिनेत्री के जीवन का कोई अंश प्रवेश कर गया है। परन्तु वह क्या है यह स्पष्ट नही होता। बस उसकी छाया होती है।
यह दुख नही है। यह मीनाकुमारी की ट्रैजेडी दक्षता नही है। यह अभिनय मे साधा गया दुख नही है। कुछ और है। क्या है यही तिलिस्म है।
काया का कोई हिस्सा नायिका की भूमिका के भीतर चले जाने से बच जाता है। शायद आंखें- फिर वही कहती हुई कि नायिका का दुख तो फिल्मी है। लेकिन वो अपना हाल बयान करने को लालायित आंखें भी नही हैं। वे यह नही कहती कि मुझमे झांको। वो तो मुझमे झांक रही हैं और सिनेमाघर मे बैठा हुआ मैं उनसे अपनी आंख चुरा रहा हूँ। पता नही क्या पर कुछ है जो फिल्म और सिनेदर्शक की पारम्परिक आकर्षण की परिभाषाओं से बाहर छूट रहा है।
यह हेमा, रेखा, माधुरी या आलिया वाला आकर्षण नही है। कुछ और है। क्या है यही तिलिस्म है जो उन्हें अन्य अभिनेत्रियों से अलग कर देता है।
उन अभिनेत्रियों के साथ ऐसा हर दृश्य मे है भले वह खुशी का हो या दुख का। ऐसे दृश्य जिनमे उनकी उपस्थिति बिल्कुल सटीक बैठती है या दृश्य के मूल भाव को और गाढ़ा करती हैं, वे उदासी के दृश्य हैं। वैसी उदासी शेष नायिकाओं के यहाँ नही मिल सकती। वे तीनो उदासी की अभूतपूर्व नायिकायें हैं। इनकी आखें भले उस प्रेमी युगल की आखों मे उस तरह झांकने मे नाकामयाब हो गयी हों जिस तरह शर्मिला टैगोर, रति अग्निहोत्री या फिर रानी मुखर्जी ने झांका लेकिन वे नजरें किनारे की बेंच पर बैठे एक अकेले लड़के की आंखों मे अक्सर धंस गयी हैं क्योंकि उदासी से उसका सरोकार पूरे हाॅल के दर्शकों से सबसे अधिक था।
ये तीन अभिनेत्रियां हैं- वहीदा रहमान, स्मिता पाटिल और तब्बू।
वहीदा रहमान को मैने उनके समय मे नही देखा है। ज्यादातर दूरदर्शन पर दिखाई गयी फिल्मो के जरिये ही उनकी छवि पायी है। रोज़ी अपने पति से खिन्न है। राजू उसके जीवन मे नृत्य को वापस लाता है। नृत्य निपुण वहीदा ने फिल्म मे बेहतरीन नृत्य किया है। नृत्य करते हुए रोज़ी खुश है। पर कितनी खुश है। मुझे लगता है कि वैजयन्ती होती तो और खुश दिख जाती।
यह एक खराब उदाहरण है (वहीदा के न तो स्टेप्स मे कोई कमी निकाली जा सकती है न एक्सप्रेशन मे, पिया तोसे नैना लागे गीत को याद करके देखिये) पर यह जो कमी रह गयी है धीरे-धीरे एक तिलिस्म और फिर एक आकर्षण मे बदल जाती है।
वहीदा जी का नायिका वाला समय बहुत पहले बीत चुका था। यहाँ तक कि चरित्र भूमिकायें भी उन्होने करनी लगभग बन्द कर दी थीं। और वो सन्डे मैगज़ीन या अखबार के इन्टरव्यूज़ मे इतना कम दिखती थीं कि उनके बारे मे कोई विशेष जानकारी नही मिलती थी और वह तिलिस्म बना रहता था। इधर कुछ दिन पहले जब वहीदा जी को दादासाहब फाल्के पुरस्कार की घोषणा हुई तब सभी अखबारों ने उनके जीवन और उपलब्धियों को प्रमुखता से छापा।
अब जो छवि बनती है- कन्धे तक सफेद बालों वाली वह एक खुशमिज़ाज बूढ़ी अभिनेत्री है। जब वह हंसती है तो लगता है कि कोई बोझ नही है। अब भी ऊर्जा से भरी है, फिल्मो से ऐसा कोई जुड़ाव नही कि बड़ी फोकस लाइटों के बुझ जाने पर उन्हें कोई मलाल हो ( जबकि इस तरह के मलाल आजकल वयोवृद्ध धर्मेन्द्र के चेहरे पर दिखाई देते हैं)
क्या कहूँ? यही कि यह सब देखकर अच्छा लगा। पर उनकी फिल्मो वाली छवियों का प्रभाव इतना है कि मैं वहीदा जी को इस कैटेगरी की अभिनेत्रियों से अलग नही करूंगा।
तब्बू हमारे समय की अभिनेत्री हैं। अभी वर्तमान मे सक्रिय। सिनेमा के नये दशक मे प्रवेश करने पर और नये विषयों के आ जाने और पुरानी रूढ़ियों के और ढीला पड़ जाने के समय मे सक्रिय अभिनेत्री। तब्बू अपनी शुरुआत उस दौर से करती हैं जब नायिकाओं की भूमिकाएं हिन्दी सिनेमा मे कमजोर थी और नायक के इर्द-गिर्द बुनी हुई कहानी मे वह बस एक शोपीस की तरह होती थी। ये फूल और कांटे , सुहाग जैसी फिल्मो का समय था। नब्बे का वह दशक जिसमे फिल्मकारों की टार्गेट आडियेंस कॉलेज जाने वाला युवा था। जिसका प्यार जुनूनी था और जिन फिल्मों मे कहानी से अधिक दृश्य की महत्ता बढ़ती जा रही थी। दृश्य रंगीन तो पहले से ही थे लेकिन संवादों और भंगिमाओं के जरिये उन्हे अधिक चटख या भड़कीला बना देने पर जोर था। इसके लिए यदि अमिताभ की बाद वाली छवियों को दोष दिया जाता है तो शायद गलत नही होता। हालांकि सारे सिनेमा के दशकवार कैटेगराइज़ेशन को सही नही ठहराया जा सकता है। नब्बे के दशक मे भी अच्छी फिल्मों को छांटा जा सकता है भले ही उनकी संख्या कम ही क्यों न हो।
गुलज़ार ऐसे ही समय मे पिछले दशकों के सक्रिय निर्देशक थे। माचिस ने अपने समय के प्रचलित सिनेमा से अलग एक विषय खोजने के साथ-साथ एक और ज़रूरी काम जो किया, वह था तब्बू की पुनर्खोज। तब्बू पर जताया हुआ गुलज़ार का वह भरोसा गुलज़ार के लिए उनकी अगली फिल्म “हु तू तू” तक कायम रहा (जो कि बतौर निर्देशक उनकी अन्तिम फिल्म थी)। उसके बाद तब्बू ने भी अपनी क्षमताओं को पहचानते हुए अनेक चुनौतीपूर्ण भूमिकायें स्वीकार की और अपनी समकालीन अभिनेत्रियों से अलग राह चलते हुए पुख्ता पहचान बनायी।
पर यह हमारा मूल विषय नही है। इसमे जानकारी या परिचय आ गया है। गुलजार ने विजयपथ की तब्बू की आखों मे झांक लिया था और उन आखों को एक बिल्कुल अलग पंजाब की आतंकवाद पृष्ठभूमि मे बैठा दिया। तब्बू की आखों ने राष्ट्रीय पुरस्कार जीत लिया था और बतौर अभिनेत्री स्वयं को साबित कर दिया था। लेकिन साबित करने से क्या होता है। सिनेमा तो एक फिल्म के एक दृश्य से भी अपना प्रभाव दर्शक के ऊपर जीवन भर के लिए छोड़ सकता है। तब्बू अपने साथ वो प्रभाव मकबूल मे लेकर आती हैं और उसके बाद हैदर मे उसे और अधिक इन्टेन्सिटी से दोहराती हैं। एक काल खंड चलता है जब विशाल भारद्वाज अभिनेत्री तब्बू की हर नस से वाकिफ दिखते हैं और उनकी सर्वोत्तम उपस्थिति (जिसमे लुक्स, संवाद और अदायगी सब शामिल हैं) को सामने लाते है।
जहाँगीर खान की बीवी होते हुए निम्मी मकबूल मे अपने प्रेमी को पाती है। पर क्या मकबूल उस प्रकार का प्रेमी है जिसका सपना निम्मी ने अपने युवा दिनो मे देखा होगा। मकबूल तो उसके आस-पास के परिवेश मे रह रहे लोगों मे से एक है। अपराध जगत का एक कुख्यात नाम। फिल्म मे मकबूल की मोहब्बत निम्मी से ज्यादा वफादार दिखायी पड़ती है। निम्मी का एक इतिहास है जिसके बारे मे कोई खास जानकारी नही मिलती। उम्र के इस पड़ाव मे निम्मी जीवन के प्रति बहुत अधिक आशावान नही दिखती। बचे हुए जीवन से उसकी आकांक्षाएं बहुत स्पष्ट नही हैं। अब तक के जीवन ने बचे हुए जीवन के प्रति उसकी उमंगों को खत्म कर दिया है। जीवन के प्रति जो निरपेक्षता का भाव है वह तब्बू के किरदार मे दिखता है। वह सब जो निम्मी के बारे मे नामालूम है, वह तब्बू के एपियरेंस के साथ आ जाता है। पूरी फिल्म के दौरान तब्बू की ओढ़ी हुई उदासी ने ऐसे संवादों की आवश्यकता को खत्म कर दिया है जो निम्मी का इतिहास बताने मे खर्च होते।
निरपेक्ष भाव और उदासी तब्बू के साथ मकबूल के बाद की सभी फिल्मों मे साथ रहते हैं। कम से कम वह दर्शक तो उन्हें देख ही लेता है जो तब्बू की मकबूल और हैदर वाली छवियों से बंध चुका है।
इसमे तब्बू के निजी जीवन का क्या योगदान है, यह बहुत स्पष्ट तो नही है। पुरानी खबरों के हिसाब से तब्बू का एक असफल प्रेम रहा। और तब्बू ने शादी नही की। ये दोनो बातें मिलकर तब्बू के बारे मे एक राय यह बनाती हैं कि उनका जीवन दूसरी समकालीन अभिनेत्रियों की तरह सामान्य मुकामो वाला नही रहा। तब्बू इधर पिछले कुछ सालों से लाइट मनोरंजन के उद्देश्य से बनायी फिल्में भी कर रही हैं फिर भी मुझे लगता है कि तब्बू के प्रशंसक ऐसी फिल्मों मे भी उनके चेहरे के निरपेक्ष भाव और उदासी को ही पढ़ने जाते हैं क्योंकि वह एक किस्म के अवर्णनीय आकर्षण मे बदल चुकी है। हो सकता है कि ऐसा दिखना अनायास हुआ हो और तब्बू का इसमे कोई अलग से किया हुआ योगदान न हो। ढहम चाहते हैं कि तब्बू और दिखें। यदि कोई मलाल है तो वह उनके जीवन से दूर हो।
स्मिता पाटिल-
चेहरे के उन जटिल भावों का रहस्य सुलझाने के लिए मै वहीदा और तब्बू के निजी जीवन मे झांकने की कोशिश करता हूँ। उनके हालिया इन्टरव्यूज के दौरान उनके चेहरे के हाव भाव पढ़ता हूँ। इस सबमे कोई खास सफलता नही मिलती है, इतिहास के महीन धागे नही खुलते हैं । पर एक निश्चिन्तता तो होती है कि उम्र के उत्तर काल मे वे संतुष्ट हैं, कोई बहुत बड़ा मलाल, क्लेश, दुख या बोझ उनके एकान्त मे उनके साथ नही रहता है । कम से कम इतना बड़ा नही है जो कैमरे के सामने न छुप सके (यहाँ पर रेखा का उदाहरण दिया जा सकता है जिनकी ऑफस्क्रीन उपस्थिति कई बार बहुत अटपटी दिखती है। यह अटपटापन रेखा के सामान्य दिखने के अतिरिक्त प्रयास के कारण भी होता है। एक खेल है जैसे उम्र मे इतनी आगे बढ़ आने के बाद भी मीडिया आंखों ही आंखों मे उनसे वही पुराना सवाल दोहरा रहा हो और वो आंखों ही आंखों मे उसी एक सवाल का जवाब छुपा रही हों।)
बहुत कम उम्र मे दुनिया से चले जाने के कारण स्मिता दुनिया की शिनाख्त से अपने आप को बचा ले जाती हैं। और भूमिकाओं पर आने वाली स्मिता के निजी भाव के रहस्य कतई नही खुल पाते। स्मिता की वो मुद्राएं मिथक बन जाती हैं। स्मिता के बारे मे जानने के लिए आप उनकी समकालीन शबाना के पास जाते हैं तो वहाँ एक राइवलरी का आभास मिलता है। वह सिनेमा जो मुख्य सिनेमा से ठीक विपरीत दिशा मे खड़ा था और बाहर से देखने मे जिसका उद्देश्य हाशिये पर रह रहे या छूटे हुए लोगों के यथार्थ को पर्दे पर उतारना प्रतीत होता है। उसके कलाकार भी अपने कैरियर और अपनी फैन फौलोइंग को लेकर सजग हैं। शबाना और इस सिनेमा के बाकी सभी कलाकारों ने स्वयं को मुख्य सिनेमा की तरफ बीच-बीच मे मोड़ा। इसमे “कहीं उन फिल्मों का अनुभव छूट न छाये” वाला भाव दिखता है और यह भी पता लगता है कि ग्लैम लाइट के आकर्षण से बच निकल पाना अच्छे से अच्छे कलाकार के लिए भी सम्भव नही होता।
स्मिता अपने समय मे शक्ति और नमकहलाल जैसी कामर्शियल फिल्मों का हिस्सा बन चुकी थीं। बतौर अभिनेत्री वो यहाँ काम करके कितना सन्तुष्ट हुईं इसकी जानकारी हमारे पास नही है। लेकिन एक बात यह समझी जा सकती है कि इस कदम से उनके प्रशंसकों की संख्या मे बहुत बढ़ोत्तरी हुई होगी। उनका चेहरा पारम्परिक खूबसूरती के दायरे से बाहर गिरता था लेकिन उसकी एक अपनी परिभाषा थी, हल्के सांवले चेहरे पर स्पष्ट नैन नक्श के बीच अत्यन्त प्रभावी आंखें( कुछ-कुछ नूतन वाला चेहरा)।स्मृति मे देर तक अलग से बस जाने जाने वाला चेहरा।
इन आंखों मे जीवन के प्रति वही निरपेक्ष भाव है जिसका रहस्य मै वहीदा और तब्बू के निजी जीवन मे ढूंढने की कोशिश करता हूँ।
स्मिता के बारे मे यह बात थोड़ी अलग है। एक तो उनके जीवन के बारे मे खुद स्मिता की राय नही ली जा सकती। दूसरा यह जो भाव है, यह अभिनय के सर्वोच्च क्षणों मे आपको अपने होने का आभास दे जाता है। मिर्च मसाला मे घोड़े पर आते सूबेदार से बचने के लिए भागती हुई सोनबाई की आंखों मे भी यह निरपेक्ष भाव कौंधता है। हो सकता है कि यह मेरा निजी अनुभव हो कि डायनमिक और हलचल से भरपूर क्षणों मे भी वह भाव-मुद्रा स्मिता की आंखों मे सुरक्षित बनी रहती है। शायद भाव को थाम कर रखने की यही कला स्मिता को अन्य अभिनेत्रियों से आगे ले जाती है।
अर्धसत्य मे स्मिता की उपस्थिति को लीजिये। विमर्श पर अपनी राय रखती हुई और अपने समय के साथ चल रही स्त्री होने के बावजूद वह संकोच उनकी भंगिमा मे है जो प्रेम के निकट का है। स्मिता उन दृश्यों मे भी है जिनमे वे शारीरिक रूप से उपस्थित नही हैं।
मंडी मे शबाना के मुकाबले वे एक हल्की-फुल्की और चुलबुली गायिका की भूमिका निभाती हैं। सिर्फ एक इस भूमिका मे स्मिता उस स्मिता को पीछे छोड़ आती हैं जो अपनी आंखों से लिखे हुए किरदार से आगे की बातें दर्शकों से कह आती है।
आंखों और चेहरों मे व्यक्त इस उदासी का एक कारण यह भी लगता है कि चुने हुए किरदार का जीवन बहुत कठिन है। कई बार वह झुग्गी या चाल मे रहने वाली आर्थिक रूप से विपन्न और दरिद्र स्त्री की है, पर यहाँ तो ऐसी स्थितियों मे रहने वाले व्यक्ति का रोष, झल्लाहट और द्वन्द होगा और फिर इन सबसे पैदा हुआ जीवन के प्रति विराग होगा जिसे स्मिता या अन्य अभिनेत्रियों ने अपने भीतर आत्मसात किया है।
पर जिस विराग या विकर्षण की टोह हम लेना चाहते हैं, वह बाहर से सब ठीक जान पड़ रहे एक जीवन की आंखों मे तैरता हुआ निर्मोह है जिसे हम अपनी सुविधा के लिए उदासी कह रहे हैं। जैसे निशान्त मे स्मिता गांव के प्रधान की पत्नी हैं पर चेहरे पर वही तटस्थता हावी है। बहुत सम्भव है कि पर्दे पर दिख रही स्मिता , निर्देशक और स्वयं स्मिता के किरदार के बारे मे किये गये मंथन का परिणाम हो।
पर पता नही क्यों ऐसा लगता है कि परदे पर किरदारों की आंखों मे दिख रहा यह विकर्षण, निर्मोह और विराग स्मिता का अपने निजी जीवन के प्रति वाला विराग है। हालांकि मैं अपनी खोज मे ऐसा कोई भी साक्ष्य नही जुटा सका हूँ। पर ऐसा मान लेने से आप मुझे या तमाम अन्य दर्शकों को कैसे रोकेंगे। आप कैसे दावे के साथ कह सकते है॔ कि इन अभिनेत्रियों की आंखों मे तैर रही उदासी ही सिनेदर्शक का इनके प्रति आकर्षण का कारण नही है।
मै कहता हूँ कि आप मेरी बात मानिये, इनकी लोकप्रियता का कारण यही है।
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योगेश ध्यानी
कानपुर
मोबाइल- 9336889840
सम्प्रति – मैरीन इंजीनियर
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