गीताश्री के पहले उपन्यास ‘हसीनाबाद’ ने इस साल पाठकों-समीक्षकों-आलोचकों का ध्यान अच्छी तरह खींचा. इस उपन्यास की यह समीक्षा युवा लेखक पंकज कौरव ने लिखी है. इधर उनकी कई समीक्षाओं ने मुझे प्रभावित किया. उनमें एक यह भी है- मॉडरेटर
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हसीनाबाद के आबाद होने की दास्तान में ही कहीं इस उपन्यास का असली मर्म भी छिपा है. हडप्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिले सभ्यता के अवशेषों से अलग हसीनाबाद की पड़ताल में जो कुछ भी सामने आता है वह विचलित करता है. एक जगह को बसाने में नैसर्गिक रूप से आबोदाना की चाह, सामाजिक सहभागिता और सुरक्षा की भावना ही बलवती रहती रही है जबकि हसीनाबाद बसावट के नैसर्गिक नियमों के विपरीत सामाजिक विनिमय की ऐसी दास्तान है जहां स्त्री देह के बदले सिर्फ़ जीवित रहने भर का ईंधन मुहैया है. हसीनाबाद की ये स्त्रियां बीवियां नहीं हैं, वैश्याएं भी नहीं हैं बस थोड़ी बहुत प्रेमिकाएं हैं, वह भी रूप-यौवन की चमक कायम रहने तक. हसीनाबाद की बुनावट को समझने में आलोक धन्वा की कविता की ये पंक्तियां काफी मददगार साबित हुईं – तुम/ जो पत्नियों को अलग रखते हो/ वेश्याओं से/ और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो/ पत्नियों से…”
लेकिन समाज का मर्दवादी ढ़ांचा प्रेमिकाओं को पत्नियों अलग रखने की कुत्सित सोच में किस हद तक जा सकता है वह यथार्थ इस उपन्यास से बखूबी प्रकट हुआ है. सामंती सोच से उपजा यह हसीनाबाद न तो चतुर्भुज स्थान है, न कोई चकला घर. तवायफों के कोठों से अलग यह सिर्फ एक ऐसी बस्ती है जो वहां खुद आकर रमने वालों से नहीं बसी बल्कि कुछ रसूखदार वहां शाम होते ही आकर रम सकें महज इसीलिए वह बस्ती बसायी गई है. इस आधारभूत सच को समझे बगैर उपन्यास की नायिका गोलमी और उसकी मां के सपनों की उड़ान को समझना संभव ही नहीं. जहां तक बात है गोलमी के सपनों की उन्मुक्त उड़ान की है तो उन सपनों की विशिष्टता खुद गोलमी के एक संवाद और उपन्यास में उसकी बार बार सुनाई देने वाली गूंज से स्पष्ट हो जाती है- ‘गोलमी सपने देखती नहीं बल्कि बनुती है बाबू.’
जितनी खूबसूरती से गोलमी ने सपने बुने हैं उतनी ही खूबसूरती के साथ गीताश्री ने अपने इस पहले ही उपन्यास में अगनित दृश्य बुने हैं. पढ़ते हुए आंखों के सामने दृश्य पर दृश्य बनते चले जाते हैं. दृश्यों को मूर्त रूप देने वाले किसी कुशल निर्देशक की तरह गीताश्री एक के बाद एक मार्मिक दृष्टांत रचती चली जाती हैं. लेकिन दृश्य बुनने की यही कला गीताश्री के हसीनाबाद में अगर सबसे मजबूत पक्ष है तो इन्हीं दृश्यों के संयोजन में एक कमज़ोर कड़ी छूट गई हैं. दरअसल एक फिल्म की तरह एक मार्मिक कथा के अनंत विस्तार में दृश्यों के संयोजन में बिखराव की संभावना छूट ही जाती है और फिर एक उपन्यास और फिल्म के बुनियादी स्वरूप में माध्यम का एक बड़ा अंतर तो है ही. वहीं समानता यह है कि रचने वाले को अपना बुना हर एक दृश्य सबसे जरूरी और उसके बिना कथा अधूरी लगने लग जाती है. बस यहीं से शुरू होता है उपन्यास का एकमात्र संकट, एक फिल्म की तरह शुरूआत में ही अलग-अलग देश, काल और परिस्थितियां निर्मित होने से कहानी से जुड़ने में अड़चन सी पैदा हुई. खुलकर कहा जाए तो उपन्यास की शुरूआत में ही रामबालक सिंह और गोलमी की मुलाकात जिज्ञासा जगाने के साथ ही गोलमी की राजनीतिक उड़ान का पुख्ता इशारा भी दे जाती है. इससे कहानी में काफी आगे आने वाली एक कड़ी एक तरह से शुरूआत में ही उघड़कर सामने आ जाती है. हालांकि इसके उलट उन परिस्थितियों से अवगत कराये बिना पाठक के लिए कथा में उतरना भी उपयुक्त नहीं है. क्योंकि अगर शिल्पगत विशेषताओं को छोड़ दिया जाए तो हर कहानी दो लाइन की ही होती है. हसीनाबाद की कहानी भी दो लाइन में कही जा सकती थी – ‘गोलमी नायिका है. वह ठाकुर सजावल सिंह की रखैल सुंदरी की बेटी है. गोलमी को बड़ा होते देख सुंदरी की चिंता बढ़ती जाती है कि कहीं गोलमी भी किशोर-वय होने तक हसीनाबाद के उसी दलदल में न उतार दी जाए, जहां फंसकर सुंदरी खुदको बेबस पा रही है, सो बस एक रात हसीनाबाद में आई कीर्तन मंडली के साथ सुंदरी अपनी गोलमी चिरइया को लेकर सगुन महतो के साथ फुर्र हो जाती है. हसीनाबाद पीछे छूट जाता है और साथ ही गोलमी का भाई रमेश भी पीछे छूट जाता है. सुंदरी के सपनों की डोर कहानी को आगे बढ़ाती है, जो अपनी बेटी गोलमी को पढ़ा लिखा कर अच्छी नौकरी तक पहुंचाकर आत्मनिर्भर बनना चाहती है लेकिन सुंदरी के सपनों को ताक पर रख गोलमी एक लोक-नर्तकी बनने का सपना देखते हुए राजनीति तक की यात्रा पर निकल पड़ती है…’
यानी जिज्ञासा जगाने के कहानी के उत्तरार्ध से शुरूआत में लाए गए उन दो पन्नों को छोड़ दिया जाये तो कहानी की रवानी पानी की तरह है. जो अपना रास्ता खुद ढूंढती चली जाती है. कोई अतिरंजना नहीं, यहां तक कि गोलमी का राजनीति के मैदान में उतरने का निर्णय भी उतना ही सहज है जितना कि इस स्थिति में किसी के भी लिए हो सकता है, कैसे? वह आप थोड़ा आगे बढ़ने पर खुद जान जाएंगे.
दरअसल हसीनाबाद की इस यात्रा में कई कई परतें हैं. गोलमी के सपनों के समानांतर चली सुंदरी की कथा भी कम मार्मिक नहीं. फर्क सिर्फ इतना है कि सुंदरी लोक परंपरा की वाहक होते हुए भी सीमित है वहीं गोलमी अपनी सीमाओं को सपनों से भी बड़ा विस्तार देती है. राजनीति उसका सपना कभी नहीं रहा, लेकिन राजनीति उतने ही सहज प्रलोभनों के साथ उसके जीवन में घुसपैठ करती है जितना कि वास्तविकता के धरातल पर आज का युवा सचमुच राजनीति से जुड़ने के लाभ से अभिभूत है. दरअसल अधिकांश युवाओं के लिए राजनीति का मतलब राजनैतिक विचारधारा से किसी तरह के जुड़ाव से इतर सत्ता से लाभ मात्र रह गया है. इस उपन्यास की एक अन्य प्रमुख पात्र रज्जो जो गोलमी की बाल-सखी भी है उसे इस प्रवृत्ति का प्रतीक माना जा सकता है. गोलमी की शुरू की हुई ऑस्केस्ट्रा को शुरूआती सफलता के बाद शासन-प्रशासन के प्रचार अभियान और विज्ञापनों से जोड़कर लाभ दिलाने का गणित भी रज्जो का ही सैट किया हुआ है जो कालांतर में गोलमी को पूरी तरह राजनीति के मैदान में उतरने के द्वार पर ला खड़ा करता है. किसी को हसीनाबाद में नायिका का यह राजनैतिक दखल गैर जरूरी लग सकता है पर इसके बिना इस उपन्यास की महत्ता शायद पूर्ण नहीं होती. क्योंकि गांधीवादी और लोहियावादी राजनैतिक प्रभाव वाला यह देश वर्तमान में जिन राजनैतिक परिस्थितियों से होकर गुज़र रहा है वहां राजनीति से जुड़ने वाले बहुसंख्यक युवाओं के पास सामाजिक क्रांति की कोई ठोस विचारधारा नज़र नहीं आती. रज्जो और उसका भाई खेंचरू राजनीति में उसी अवसरवादिता के नमूने बनकर उभरते हैं, किसी तरह की राजनैतिक विचारधारा से सरोकार न होने के बावजूद दोनों का सफल रजनीति में टिके रह पाना काफी कुछ कहता है. तो क्या अब राजनीति से जुड़ने का मतलब सिर्फ सत्ता और सत्ता से लाभ हासिल करना भर रह गया है? दरअसल बहुसंख्यक युवाओं का यही असमंजस और द्वंद्व इस उपन्यास में बखूबी लक्षित हुआ है जो उन्हें वैचारिक परिपक्वता और सामाजिक प्रतिबद्धता की समुचित तैयारी के बगैर राजनीति के मैदान में तो ले आता है लेकिन आसानी से टिकने नहीं देता, ऐसे में टिक वही पाते हैं जो तिकड़मबाज़ होते हैं. वैसे एक ओर जहां दुविधा में फंसकर गलत राह पकड़ने वाले रज्जो और खेंचरू जैसे राजनीति में नवागंतुक हैं तो राजनीति के पुरोधा भी यहां सुलझे हुए नज़र नहीं आते. गोलमी की प्रतिभा को पहचानने वाले रामबालक सिंह और उनके धुर विरोधी रामखिलावन सिंह के मामले में भी राजनीति की उठापटक का यह द्वंद्व बना रहता है.
खैर सियासत की बिसात पर बुने जाने के बावजूद हसीनाबाद की दास्तान असल में सिर्फ मुहब्बत का ही फसाना है. गोलमी की मुहब्बत है लोक-धुनों पर नाचना और उसके बचपन का दोस्त अढ़ाई सौ की मुहब्बत तो खुद गोलमी है. गोलमी के लिए वह बगैर किसी प्रणय निवेदन ‘तीसरी कसम’ के हीरामन की तरह सदा उपलब्ध है. उसकी सिर्फ एक आस है – गोलमी का प्यार. इलाके के प्रेम विशेषज्ञ भोला भाई ने प्यार में सफलता की सौ फीसदी गारंटी के दावे के साथ उसकी चाहत को और भी दृढ़ कर दिया है. हुआ यूं कि भोला भाई से अढ़ाई सौ ने जब गोलमी का दिल जीतने की तरकीब पूछी तो उन्होंने गहन चिंतन के बाद बताया – ‘तुम उसका सपना पूरा करो.’ बदले में अढ़ाई सौ संकोच के साथ बोला – ‘वो सपने देखती नहीं बुनती है भाई’ इस पर भोला भाई के अनुभव का निचोड़ था – ‘तो तुम उसका धागा बन जाओ मेरे भाई.’
बस उसी प्रेम के धागे, उसी डोर से बुना होने की वजह से हसीनाबाद अपनी तमाम कुरूपताओं के बावजूद बेहद हसीन है. इस तानेबाने में लोक-संस्कृति ने सबसे चटख रंग छोड़ा है. बिहार की लोक संस्कृति में गूंजने वाले लोकगीत मानों यहां एक ज़रूरी आर्काइव पा गए हों. घुंघरूओं की छनछन जैसे अपनी पीठ पर लदे सारे पूर्वाग्रह झटक रही हो. भले घर की लड़की को नचनिया न बनने देने की तमाम वर्जनाओं के बावजूद नृत्य खूब फला फूला है. कला की वाहक कौन रहीं? उन्हें इसके बदले क्या हासिल हुआ? वह बात अब यहां पीछे छूट गई है. सवाल सिर्फ यही रह गया है कि कला तो आखिर कला है न? और वह कला न तो सामंतों की सेवा में व्यर्थ होगी और न ही सत्ता के ठेकेदारों के प्रचार अभियानों में. उस कला को संस्कृति विभागों के लुभावने आकर्षण भी अब कैद नहीं कर पाएंगे. वह कला अब किसी आंचलिकता में भी कैद नहीं होगी. पूरी दुनिया में कला के चाहने वाले हैं. मंत्रीपद को धता बताकर अपने लोक में वापसी करने वाली गोलमी आखिर यही विश्वास तो जगाती है. इस बात का विश्वास कि पारंपरिक शादियों और तीज-त्यौहारों के भरोसे लुप्तप्राय हो रही लोक-संस्कृति की निशानियां सहेजी जा सकती हैं. गोलमी ने ऐसा किया है और गीताश्री ने अपनी नायिका को ऐसा करने दिया है तो यह मामूली बात नहीं. कुलमिलाकर हसीनाबाद की यह पड़ताल गीताश्री के लेखक कर्म का बोनस है बाकी यह उपन्यास तो पठनीय है ही.
पुस्तक – हसीनाबाद
विधा – उपन्यास
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली.
मूल्य – 250 रुपये
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