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इजाडोरा की प्रेमकथा की काव्यात्मक समीक्षा

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यतीश कुमार ने पुस्तकों की काव्यात्मक समीक्षा की एक शैली विकसित की। आज लम्बे समय के बाद उन्होंने पुनः एक पुस्तक की समीक्षा की है। पुस्तक है इज़ाडोरा डंकन की आत्मकथा ‘my life’  के हिंदी अनुवाद ‘इज़ाडोरा की प्रेमकथा’। पुस्तक संवाद प्रकाशन से प्रकाशित है। आप समीक्षा पढ़िए-
=======================
 
 
1.
 
एक बार एक साथ
बारह पन्ने पलटने हैं
हर सफ़े में बरसों को जीना है
यादें धुंधली जरूर हैं पर सपने साफ हैं
 
 
गहरी उतराई में गति थामने की कला सीखनी है
तबाही की गोद से
सफल छलांग लगानी है
भीतर जो एक दीया है उसे बचाना है
चारों ओर सब रो रहे हैं
और मेरी आँखें सूखी नदी बन गयीं
मानो कोई सुलगा हुआ कोयला निगल लिया
 
 
चेहरे की सपाटबयानी ऐसी
कि एक झुर्री भी नहीं तैरती
यादों के अंतिम छोर पर
आग की लपटें हैं
और आँसुओं की बाल्टी लिए
जंगलों में भटक रही हूँ
 
 
एक पूरा समंदर है मेरे भीतर
लहरों की उमेठन पर थिरकती हूँ
लोग मुझे सबसे बेहतरीन नृत्यांगना कहते हैं
 
 
2.
 
बादलों के फाहों को
गुब्बारों की तरह फोड़ती हूँ
 
 
खिलखिलाहट भीतर जन्मती है
नृत्य भंगिमा का सृजन होता है
नृत्य के मिथक
अपने लोच से तोड़ती हूँ
 
 
मां का रूहानी अक्स
मेरी रग़ों में दौड़ता है
उसका संगीत थिरकन है मेरी
और वह ज़िंदा है मेरे हर एक सृजन में
 
 
जब-जब आशा का सूरज
भूख की गली में अस्त हुआ
पसीने और खून से उपजा तेल
दिए की बाती को सींचने में माँ ने खर्च किया
 
 
जब भी माँ को ग़ुस्सा आता
दिल का नहीं, कमरे का दरवाज़ा बंद कर लेती
सिसकियों से दुआओं को
अलग रखने का हुनर उन्हें मालूम था
 
 
3.
 
सृजन और अविष्कार
शगल हैं मेरे
 
 
सुविधा और आनंद की
आपस में कभी नहीं बनी
मैंने हर बार दूसरे को अपनाया
 
 
आईना जब भी देखा
तो सच मुँह फाड़े खड़ा मिला
 
 
एक-एक छद्म की तस्वीर
तकिए के सिरहाने से
काली संदूकची की ओर निकल पड़ी
 
 
ज़िंदगी के साथ नाचते हुए
जब भी हांफती हूँ
हर्फ़ के गिलाफ़ और सफ़हों की चादर ओढ़ लेती हूँ
ज़िंदगी फिर से सुर मिलाती है
 
 
टूटन और तिड़कन
दोनों शब्द मेरे साथ रहे
और मैं उन्हें ताउम्र बुहारती रही
 
 
4.
 
ख़र्च और आमदनी के बीच
बढ़ती खाई को पाटने की यात्रा पर हूँ
भूख मेरे लिए क्षरण नहीं शरण है
जिसे ध्रुवतारे सा
टिमटिमाता दीया बनाया मैंने
और उसे ताकते हुए सदियों की यात्राएं की
 
 
प्रेम और कला एक कोण लिए रहते हैं
एक को आलिंगन करते ही
दूसरा रूठ जाता है
 
 
घेरना चाहती हूँ सब कुछ 360 डिग्री तक
पर सारी चीजें
मुझे 180 डिग्री पर ही दिखती हैं
और यूँ मिलन और जुदाई का शगल चलता रहता है
 
 
ऊर्जा पुंज ढूंढ़ रही हूँ भीतर
योग से संभोग
जागृति से नृत्य को जोड़ना है
परम के चरम को लांघ जाना है
 
 
मुझे नृत्य से संगीत फूटते देखना है
न कि संगीत से नृत्य
मादक को मोहक में तब्दील करना है
और संगीतशाला को संगीत की मंदिर जैसा एकांत निर्विकार
 
 
5.
 
तिलस्मी शरीर से सौंदर्य फूटे
ऐसे सपने मुझे विचलित करते हैं
असहजता मेरा पहला आवरण रहा
जिसे उतारने में बरसों बीते
 
 
उन आंखों में चाहत
मिठास से लबरेज़ मिली
कायनात अपनी बहार समेटे वहां दिखी
और मेरा पहला आवरण संतरे के छिलके सा उतर गया
 
 
उसने कहा बस महसूस करो
तो लगा पीड़ा के बाद प्रेम
फल के रस की तरह मिलता है
 
 
 
6.
 
एक हरियाली बिछी और मुरझा भी गयी
सहजता से समंदर ने
गुरुत्वाकर्षण के ख़िलाफ़
उछाल लगाई
 
 
छाती पर मुक्के जैसी बात
पत्थर पर चूमते हुए कही
और कला की परिपूर्णता
वक्ष पर पैर रखकर
 
 
प्रेम ने जो नश्तर
कला के सीने में उतारा है
उसे दूर फेंक आयी मैं
 
 
पीड़ाओं और हताशाओं की ढाल
नृत्य की भंगिमा बनी
ज़िंदगी लगा
पीछे उतारे लिबास-सी छूट गयी
 
 
7.
 
ईश्वरीय सौंदर्य की छटा में
हम एक दूसरे से अनजान हो जाते हैं
सामान्य दर्शन भी
जीवन दर्शन की तरह दीखता है
 
 
काम, यश , धन
सब एक-एक अलग सीढ़ी है
आनंद के चौखटे पर विश्राम मिला
और मैं सो गई
 
 
वहां एक आईना मिला
जो थोड़े दिन
गुज़रे हुए जीवन के गीत गाता रहा
और फिर अचानक टूट गया
 
 
उस दिन आदर्श और रहस्य की घुट्टी पी ली
आज उस जाम से ही अध्यात्म भी पी ली
तब जाना रहस्य आदर्श को पीने के बाद
ख़ुदकुशी कर लेता है
 
 
इन्द्रियाँ एक तूफान से गुजरकर
कला की गोद में सो गयीं
और अब उन्हें जगाने का मन नहीं करता
 
 
8.
नृत्य की एक-एक मुद्राएँ
अगर शिद्दत से लहरायी जाऐं
तो तूफ़ानी आवेग पैदा करती हैं
 
 
संगीत में अतृप्त इच्छाएं झूमती हैं
ज़रुरी है इंद्रियों की सींग पकड़कर
उनमान को साधा जाए
और भीतर का दीया स्थिर जलता रहे
 
 
नृत्य सृष्टि की इच्छाओं का भव्य चीत्कार है
जिसे साधने की धृष्टता कर ली मैंने
अब साधना और आराधना के बीच आलोड़ित हूँ
चीत्कार भीतर गुम है
 
 
 
9.
 
सैलाब के चरम पर बस धुंध है
और सब अपने अनुसार
उस गुबार की विवेचना कर रहे हैं
 
 
लयात्मक आनंद के चरम पर
आसमानी प्रेम का डेरा है
जो उसकी बाँहों के डोले सा है
 
 
मैंने उस अंतराल को पकड़ने की कोशिश नहीं की
बल्कि वह ताल मेरे साँसों में विश्राम चाहती रही
 
 
एक समय ऐसा आता है
शरीर पारदर्शी हो जाता है
भावनाएँ बेपनाह भ्रमण करती हैं
पर्दा और बेपरदा का भेद मिट जाता है
 
 
ठीक उस समय मुझे
मजलूमों की चिंता सताती है
और मेरी कला को उद्देश्य मिल जाता है
 
 
कला को उद्देश्य मिल जाए
तो प्रेम बौना लगने लगता है
 
 
10.
 
एक लपट दूसरे से मिली
और प्रचंड आग में बदल गयी
स्वयंत्व में असंतुष्टि संतुष्टि की ओर मुड़ी
आधी आत्मा आधी से मिलकर पूरी हो गयी
 
 
सुख बौना लगा स्वर्गिक उल्लास के आगे
अबाध आनंद को समेटने का मन न हुआ
एक चरम पर ठहर कर बस यही लगा
सुलगती आत्मा आज धरा से उड़न छू हो जाए
 
 
प्रेमी और पादरी का अंतर मिट ही जाता
पर बादलों को भी रंग बदलने का हुनर मालूम है
कला-अहम के नाखून
रिश्तों की डोर काटने में हमेशा सफल रहे
 
 
11.
मेरा बच्चा जब स्तनपान कर रहा होता
तो ख़ुद को ईश्वर समझती
मुझे प्रेम और चिरंतनता
दोनों के दर्शन हुए
 
 
मेरे भीतर भी एक बच्ची है
जो सुबह की सुनहरी धूप में
कल्पनाओं के फूल चुनती है
और उसका अर्क बदन की ख़ुश्बू में मिल जाता है
 
 
प्रेम और कला से बहुत आगे हैं
एक किलकारी का परम आनंद
मैं उस किलकारी की लोरी में घंटों सोना चाहती हूँ
दोनों में अब किसे नींद गहरी आएगी यह खुदा जाने
 
 
 
12.
 
मोम के दो टुकड़े
न जाने क्यों पिघल गए
और अब सिर्फ उस कंपकंपी के साथ जिंदा हूँ
जो शवयात्रा को देख उफनती है
 
 
दो फूल अभी-अभी टूट गए
और मैंने उन कुरूप भावनाओं को
सौंदर्य में बदलने की ज़िद कर ली
 
 
परंपरा मेरे लिए हमेशा ज़ंजीर-सी रही
जिसे हर बार की तरह
इस बार भी तोड़ा मैंने
 
 
और एक समय आया
जब इंसानी आवाजों से मेरा संवाद टूट गया
और भीतर का दीया शोर से लड़ने लगा
जिसे ईंधन देने अनंत यात्राओं की शरण में गयी
 
 
13.
 
दुर्भाग्य अपने फंदे गढ़ता है
और हमें लगता है
कि हम उससे दूर जा रहे हैं
 
 
स्वयं को भूलने के लिए
भटकना बहाल हो गया
 
 
उन रास्तों पर भटके
जिन पर रोज़ चले थे
 
 
निरंतर पीड़ा के भँवर के पार
एक दिन एक आवाज़ ने मेरा हाथ थामा
और फिर अचानक वह हाथ रेत में बदल गया
 
 
चीख अपनी घुटन से
ख़ुद परेशान हो गयी
ममत्व का गला समय ने घोटा
थोड़ी देर के लिए सिर्फ शून्य बन गयी
 
 
समुंदर की लहरों की तरह
बार-बार टूटने और बनने की
आदत है अब मेरी
 
 
मुझे पता है लहरें समुंदर से है
समुंदर लहरों से नहीं
अंततः मुझे समुंदर बनना था
सारी समाहित इंद्रियों के साथ
 
 
14.
 
मैं सत्य लिखती हूँ
जो छलावा लगता है
जीवन-संगीत में साज़ का तार टूटता रहा
और मैं उसे बदलती या जोड़ती रही
 
 
यात्राओं ने मेरे पंख खोले
उदासी के लिए हर आलम में मैंने यही किया
 
 
आत्मा की दशाओं को पढ़ने की कोशिश की
तो पता चला
कमजोर पल में अनजान हाथ ही मेरी नियति है
 
 
मेरे मन की दशा
बर्फ और आग के बीच तिरती रही
नृत्य हर बार अकेला इलाज निकला
 
 
स्पर्श, अनुभव और यायावरी
मेरे ऊर्जा स्रोत बने
अब प्रार्थना, माधुर्य और आंतरिक प्रकाश
मेरे नृत्य के अंग हैं
 
 
15.
 
हताशा को हर बार
हौसले से पराजित होना लिखा है
प्रेम जब भी घात लगाता
कला कवच बन जाती है
 
 
प्रेम एक ऐसा फूल है
जो हर बार लगा अभी और खिलेगा
जिसे देख देह बदलती रही
प्रेम के बिंब-प्रतिबिंब
 
 
गहरी पीड़ा, ऊंचा उल्लास
पेंडुलम के दो शीर्ष बिंदु
पेंडुलम सी मैं
ताउम्र दोनों को चखती रही
 
 
हमदर्दी भरा हाथ
और आशा भरी निगाहें
मरहम की तरह ताप हर लेतीं
 
 
यही दिया मैंने
और मुझे यही मिला भी
 
 
एक पल आता है जब आत्मा नृत्य करते हुए
क्षणिक देह छोड़ देती है
शरीर आध्यात्मिक अनंत को छू लेता है
तब दो का मतलब नहीं रहता
 
 
प्रेम जब संगीत के तार छेड़ता है
आत्मा सुख के चरम को चूम लेती है
 
 
 
16.
 
मामूली चाहत
आध्यात्मिक उद्देश्य को मलिन कर देती है
हर बार मैं
प्रेम और कला में टकराव से उपजी घटनाओं में शहीद बनी
 
 
जिसने चरम सुख दिया
चरम दुख का कारण बना
 
 
मैं अपने शरीर में यूँ रहती रही
जैसे बादलों में बूंद
पर बादल अपने रंग बदल लेता है
गुलाबी, स्वर्ण और फिर गहन काला
 
 
पिता, प्रेमी , मित्र, संगी
हर बार महा फरिश्ता इंसान क्यों बन जाता है
बींधता रहा यह प्रश्न ताउम्र
आज इसके उत्तर में मैं प्रेम का वध करती हूँ
 
 
और यह संदेश लिखती हूँ
स्त्रियों आओ पतझड़ के आनंद को चरम तक ले चलें…

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