
आज पढ़िए विनोद पदरज के कविता संग्रह पर टिप्पणी। संभावना प्रकाशन से प्रकाशित उनके संग्रह ‘आवाज़ अलग-अलग है’ पर यह टिप्पणी लिखी है युवा कवि देवेश पथ सारिया ने-
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विनोद पदरज लोक जीवन के कवि हैं। उनकी नई पुस्तक ‘आवाज़ अलग-अलग है’ में प्रत्येक कविता पठनीय है और अधिकतर कविताओं को आप बार-बार पढ़ना चाहेंगे।
रिल्के ने अपने पत्रों में कवियों को बचपन के ख़ज़ाने से कविताएं खोजने की सलाह दी है। विनोद पदरज यह संभव करते हैं और अपने बचपन की घटना याद करते हुए ‘बाबा कोयल और गर्मियां’ जैसी कविता लिख पाते हैं।
विनोद पदरज बेहद सहज तरीके से समाज की विद्रूपताओं पर इशारा करते हैं। इशारा ही इन कविताओं के कवि की चोट होती है।
इस संग्रह की पहली ही कविता, साथ में चल रहे कुत्ते के बिंब के ज़रिए ग़रीब आदमी की धर्मराज युधिष्ठिर सदृश सत्यवादिता की ओर इशारा करती है। आगे कवि जोड़ता है कि शायद एक ही झूठ उस ग़रीब ने अपनी ज़िंदगी में बोला होगा:
“तिरपाल ढंकी गाड़ी के नीचे
किसी अंतरंग क्षण में
धराणी से कहा होगा
तुझे कड़े गढ़ाऊंगा इस साल”
यह कथन विवशता और प्रेम का प्रतीक है। यह एक अच्छे पुरुष पात्र की बात हुई। अन्य कविताओं में मर्द बनने को आतुर पुरुष पात्र भी हैं जो अपनी षोड़शी पत्नी को राखी पर मायके जाने से रोकते हैं। ‘षोड़शी’ शब्द के माध्यम से यहाॅं बाल विवाह की ओर भी इशारा किया गया है। ‘विस्थापन’ कविता स्त्री की अपनी पहचान के सवाल को रेखांकित करती है: एक स्त्री अपनी माॅं के गाॅंव के नाम से नहीं जानी जाती। अपने मन का जीवन जीने के लिए एक औरत को बुढ़ापे तक प्रतीक्षारत रहना पड़ता है। जबकि होना तो यह चाहिए था कि किसी भी मनुष्य की तरह यह उसका जीवन भर प्राप्त अधिकार होता। एक कविता में एक महिला जो जीवन भर मिलनसार नज़र आती थी, हॅंसती थी, खिलखिलाती थी, अचानक एक दिन ज़हर खा लेती है। उसकी मौत सबके लिए अबूझ पहेली बन जाती है। किसी ने उसे जीते जी समझा होता, तब तो कोई पहेली का जवाब बता पाता। कवि स्त्रियों के दुःख को जीव-जंतुओं के संघर्ष से जोड़ता है। कभी मादा जंतु के प्रसव से, कभी चिड़ियों से और कभी चींटियों से:
“उनका काम कभी ख़त्म नहीं होता- स्त्रियों की तरह
न दिखाई देता है
बारिश आने को है
और वे आ रही हैं जा रही हैं
राशन उठाये
रास्ते में एक दूजे से भेंटती हुई
जैसे घड़े उंचे-उंचे पणिहारिनें भेंटती हैं”
शुरुआती स्त्री विषयक कविताओं के पश्चात कुछ अन्य विषयों पर कविताएं पुस्तक में हैं। इनमें अनेक कविताएं उल्लेखनीय हैं। ‘कवि’ शीर्षक कविता विज्ञान और कविता की सापेक्षता पर चर्चा करती है। यह कविता विनोद पदरज के काव्य की उत्कृष्टता का सशक्त उदाहरण है। ‘जीवन घट’ कविता के बारे में कहा जा सकता है कि यह व्यंजना की गहराई लिए हुए है। पेड़, सूरज और छाया के संसार में मनुष्य की उपस्थिति ‘छाया’ कविता में दर्शाई गई है। वहीं ‘मैं उसके यहाॅं गया’ कविता आपके भीतर एक बहुत बड़ा रिक्त स्थान छोड़ जाती है। कुछ लोग जिनके लिए हमने कुछ नहीं किया होता, वे जब भरपूर अपनेपन का परिचय देते हैं, तो मन भीग जाता है और व्यक्ति अपने ही पूर्व व्यवहार के कारण असहाय महसूस करता है। प्रकृति का सूक्ष्म विश्लेषण और एक पत्ती के बदलते रंगों के क्रम का सटीक बखान ‘जीवन’ कविता में मिलता है। ‘रेगिस्तान’ कविता एक बहुत ही प्रभावी कविता है जिसका अंत चमत्कृत करता है:
“हाॅं रहस्य लोक भी था भीतर दबा हुआ
नदियों के जीवाश्म थे
वृक्षों के कंकाल
सभ्यताओं के खंडहर
मृद-भांड ताम्र-पात्र स्नानागार
अस्थियां और रक्त
और एक अबूझ लिपि थी इसके भीतर
जो सदियों से कराहती थी
मुझे पढ़ो मुझे पढ़ो”
लोक कवियों में गडरियों, भेड़ों, बकरियों, और ऊंटों आदि के प्रति विशेष अनुराग होता है। ‘भींव जी का ऊंट’ कविता मनुष्य और उसके पालतू पशु के आत्मीय संबंध को दर्शाती है। कवि ने इसका अंत प्रेम कविता के रूप में किया है। ‘गड़रिये’ शीर्षक कविता भी लगभग इसी भाव की कविता है। इसका भी अंत प्रेम कविता के रूप में होता है। पूर्व कविता में ऊंट का प्रेम है, और अगली कविता में गड़रिये को प्रेम करने वाली स्त्री का। वे स्त्रियां जिन्हें अपने कर्मठ पुरुष की देह से पशुओं की दुर्गंध नहीं आती।
संग्रह में बाद की कविताओं में क़स्बाई जीवन है और शहर में विस्थापित लोक। ‘अठारह घर’ कविता संभवतः एक छोटे शहर के भीतर जातीय और सांप्रदायिक आधार पर लोगों की मनोदशा का चित्र बनाती है। ‘माॅं’ शीर्षक कविता अनेक युवाओं की रोज़ की कहानी है। वे घरवालों से रोज़ फोन पर वही औपचारिक बातचीत करते हैं और उनके माॅंं-बाप उन्हीं दोहराए गए संवादों को एक बड़ी पूॅंजी की तरह ह्रदय से लगाए रखते हैं। यहाॅं एक पहलू यह भी है कि क्या अपने विस्थापन में उन युवाओं ने किसी और का आश्रय पा लिया होता है? ईमानदारी से इसका जवाब ‘ना’ है। बल्कि वे और अकेले हो जाते हैं और इसी झुंझलाहट में उनका व्यवहार रूखा हो जाता है। वे अपने अकेलेपन से दूर भागते हैं और अपने माॅं-बाप को इसकी भनक नहीं लगने देना चाहते। ‘पिता’ कविता में दो पीढ़ियों का टकराव है। यह टकराव इस कारण भी है कि अधिकतर ग़रीब और मध्यमवर्गीय दंपत्ति बड़े संघर्षों से अपने बच्चों का लालन-पालन करते हैं, उनकी अपनी मानसिक और आर्थिक समस्याएं होती हैं। अंत तक आते-आते यह करुणा की कविता बन जाती है। ठीक उसी तरह, जैसे, जीवन का उत्तरार्द्ध जीता मनुष्य ‘पिता की सुरत’ कविता के मुख्य पात्र जैसा बन जाता है, हर गतिविधि में अपने पिता की छवि बनता हुआ।
‘छड़ी’ कविता रहस्यवाद की कविता है जो विनोद पदरज की कविताओं में सामान्यतया देखने को नहीं मिलता। वहीं ‘तुम्हारा चित्र’ कविता पढ़कर मुझे यूॅं लगा जैसे यह किसी युवा कवि ने लिखी है। शैली में प्रयोग करना और सफल रहना भी इस कवि की उपलब्धि है।
‘आवाज़ अलग-अलग है’ संग्रह में आपके आसपास के बहुतेरे दृश्य हैं, कई आवाज़ें हैं, जिन्हें आपने कभी न कभी देखा है, सुना है। यह पुस्तक उन्हें आपके सामने पुनः ला खड़ा करेगी।
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पुस्तक: आवाज़ अलग अलग है
कवि: विनोद पदरज
प्रकाशक: संभावना प्रकाशन
मूल्य: ₹150 (पेपरबैक)
प्रकाशन वर्ष: 2021
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