नाटककार, अभिनेत्री विभा रानी का उपन्यास आया है ‘कांदुर कड़ाही’। यह हिंदी में अपने ढंग का अनूठा उपन्यास है। कश्मीर और बिहार की दो विस्थापित स्त्रियों की स्मृतियाँ हैं, देश भर की रेसिपी है और अपनापे की एक कहानी। वनिका पब्लिकेशंस से प्रकाशित इस उपन्यास पर सारंग उपाध्याय ने यह विस्तृत टिप्पणी लिखी है-
————————–
“वे पैदा हुईं तो सभ्यता ने उनके पैरों में मोह की बेड़ियां बांध दीं, जब वे बड़ी हुईं तो उनके हाथों में थमा दिया गया टूटा-बिखरा संसार, जब उस संसार को उन्होंने अपनी प्यार की उष्मा से संवारा तो उनकी आंखों में सपने फूटे और जब उनके कोमल सपने हरे-भरे हुए तो एक दिन उनके सपनों को चूल्हे में झोंक दिया गया और उनकी आत्मा को हमेशा-हमेशा के लिए चौके में कैद कर लिया गया.
अब जबकि वे अपने माथे पर प्रगति की चमचमाती बिंदी चिपकाए दुनिया जहान में उड़ान भर रही हैं, उनकी आत्मा आज भी चौके में ही कैद है, जहां वे देर-शाम थकी-हारी लौटती अपने सुनहरे सपनों को चूल्हे में झोंककर संसार का पेट भर रही हैं, एकदम खामोश, बिना किसी शिकायत के क्योंकि यही उनके भाग्य में बांध दिया गया है और नियति बनाकर गढ़ दिया गया है. “
प्रसिद्ध लेखिका, कथाकार, वरिष्ठ रंगकर्मी और अभिनेत्री विभा रानी का पहला उपन्यास कांदुर कढ़ाही स्त्रियों के भाग्य में बदे चौकों और नियति में लिखे चूल्हों में घुल रहे जीवन की कहानी है. यह उपन्यास शताब्दियों से खाना बनाने की प्रक्रिया में खटती और कढ़ाइयों में अपना भविष्य खोज रही औरतों के उन सुखों-दुखों का दस्तावेज है जिसे समय के किसी हिस्से में कभी दर्ज नहीं किया गया. इस उपन्यास से स्त्रियों की एक ऐसी दुनिया झांक रही है जो गुमनाम और उपेक्षित रही है. जहां स्त्रियां निपट अकेली हैं और अपने एकांत में सिमटी हुई हैं. जहां ना उसके आंसु दर्ज हैं ना मुस्कान. इस दुनिया में स्त्रियां केवल खाना बना रही हैं और हजारों सालों से केवल खाना ही बना रही है चाहें फिर वे कुछ भी क्यों ना हो गई हो, ठीक वरिष्ठ कवि कुमार अंबुज की एक कविता की तरह जहां वे कहते हैं-
वे क्लर्क हुईं अफसर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियां
(कविता-खाना बनाती स्त्रियां)
बहरहाल, विभा रानी का यह उपन्यास 21वीं सदी के पार देख रही दुनिया में स्त्री सशक्तिकरण की पड़ताल करता नजर आता है. विभा रानी एक सुघड़ और मजबूत कथानक के माध्यम से यह बताती हैं कि एक ओर जहां स्त्रियां जीवन के हर आयाम में बदलावों के बीच से गुजर रही हैं. वे सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक परिवर्तनों के समानांतर बहुत दूर निकल आई हैं, वहां परिवर्तन की इस दीर्घ यात्रा में उनके जीवन में यदि कुछ नहीं छूटा और बदला है तो वह है चूल्हा-चौका.
विभा जी के इस महत्वपूर्ण उपन्यास, कांदुर-कढ़ाही में स्त्रियों का एक ऐसा संसार खुलता है जहां केवल एक स्त्री नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व की औरतें अपने हिस्से की मानों डायरियां खोलकर सुख-दुख दर्ज कर रही हैं और इस सुख-दुख का माध्यम बनी हैं वे रेसिपीज, जिन्हें स्त्रियों का मनोरंजन बनाकर छोड़ दिया जाता है. यहां किचन में प्यार का छौंका लगाते अपनी जीवन की खुशियां, दुख, उदासी और वेदना को साझा करती ये स्त्रियां ऐसे प्रतीत होती हैं मानों वे सरहदों के पार एक नई दुनिया रच रही हैं. यहां सुख-दुख में डूबा चूल्हा-चौका दुनियाभर की औरतों की व्यथा और कथा कह रहा है.
विभा रानी के ही शब्दों में कहें तो –
“हम औरतों के सुख-दुख विश्वजनीन हैं. अर्थ और राजनीति उनके जीवन में प्रवेश करा दी जाती हैं. दूसरे हम औरतों से रसोई और चूल्हा चौका नहीं छूट पाता. लाख जद्दोजहद के बावजूद काश्मीर से कन्याकुमारी तक एक ही स्थिति. “
रंगकर्म, अभिनय के कला संसार में रची-पगीं विभा रानी स्त्री जीवन के संघर्ष की सघन अनुभूतियों से गुजरी हैं. इस वरिष्ठ लेखिका का अपना जीवन बिहार से लेकर मुंबई जैसे महानगरों से गुजरते हुए समाज के हर तबके के जीवन को गहरे से देखता है, उसे समझता है और उसके प्रति संवेदनशील है. एक स्त्री की व्यापक, अनुभव से सनी और ममत्व से भरी जीवनदृष्टि इस उपन्यास की प्रत्येक पंक्ति में दिखाई देती है. अपनी चुंटिली और प्रवाहपूर्ण भाषा, रोचक कहन शैली और तकरीबन फिल्म की तरह दृश्यों को रचते हुए विभा कब पाठकों से बतियाते हुए यह बता जाती है कि बबुआ इस समाज में हर स्त्री चाहे फिर वह हाशिए पर संघर्ष कर रही हों, या फिर अंतरिक्ष में मनुष्य सभ्यता की महत्वकांक्षाओं को आकार दे रही हो, वह भले ही कहीं पहुंच जाए इस मरदूद दुनिया में आसमान छू लेने वाली इन औरतों का एक पैर आज भी किचन में ही टिका हुआ है. स्त्रियां, डॉक्टर, इंजीनियर, सीईओ या डायरेक्टर बन गई हों, लेकिन परिवारों में किचन और खाने की जिम्मेदारी का संसार जैसे उनके माथे पर भाग्य की तरह चिपका दिया गया है.
आज भी प्रगति के अनगिनत सोपान चढ़ने के बाद और इतिहास व परंपरा की तमाम देहरियां लांघकर भी औरतों का एक कदम उसी चौके में सब्जियां छौंकने के लिए खड़ा है, रोटियां उतार रहा है या फिर खाने-पीने की सामग्री की चिंता में दुहरा हुआ जा रहा है. छोटी सी बस्ती से लेकर हजारों एकड़ में फैले बंगले में बनी रसोई मानों आज भी दुनिया की हर स्त्री के लिए एक ऐसी रेखा बनी हुई है जो उसे पुरुषों की दुनिया से पृथक कर देती है. विडंबना यह है कि घर, परिवार और बच्चे संभालती और खुशी-खुशी किचन का मैनेजमेंट करने वाली औरतों के इस कार्य की कहीं कोई कीमत नहीं है, यह कार्य जैसे व्यर्थ, दोयमदर्जे का और महत्वहीन बन गया हो. उसके इस काम को तुच्छ समझा जा रहा है, उसके कुछ मायने नहीं है और इसे केवल औरतों का काम कहकर छोड़ दिया जाता है.
विभा रानी कहती हैं-
जिस भोजन को हम जीवन के लिए सबसे जरूरी मानते हैं, उसको बनाने वाली हम औरतों के प्रति किसी के मन में कोई सम्मान नहीं. भोजन बनाने को प्रोफेशन का हिस्सा मानना भी पुरुष वर्चस्ववाद के तहत आता है, जहां शेफ अक्सर पुरुष होते हैं और उनका काम बड़ा और इज्जतदार होता है. अब महिलाएं भी शेफ होने लगी हैं, लेकिन उनका प्रतिशत अभी भी बहुत कम है. महाराज या पंडित को स्त्री कुक से अधिक पगार मिलती है, लेकिन, घर के लिए खाना बनाने वालियों को? पगार या प्रतिष्ठा?
विभा रानी ने अपने उपन्यास का सारा ताना-बाना भोजन, व्यंजन, रसोई और खाना-पकाने जैसे कार्यव्यापार के ईर्द-गिर्द बुना है जो मनुष्य समाज और जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. यहां भागती- दौड़ती महानगरीय जिंदगी में कामकाजी होने के बाद भी चूल्हे में खप रही स्त्री जीवन की विषमताओं, संघर्षों को छूने की कोशिश की गई है.
उपन्यास की पृष्ठभूमि मुंबई, दिल्ली, बिहार के मिथिलांचल और गुजरात से लेकर कश्मीर की सरहदों की तक फैली हुई है. रसोई और चूल्हे की आंच के बीच इस उपन्यास में विस्थापन, विघटन, टूटन के बीच अपनी जगह तलाश रहीं दो स्त्रियों का संसार भी सांसे लेता है. इस संसार में हर स्त्री के सुख-दुख, वेदना, प्रेम, वात्सल्य और ममत्व की विराट छाया आकार ले रही है.
काजल कौल और सरिता मंडल नाम की यह औरतें दुनियाभर की स्त्रियों की जीवन कथा और व्यथा समेटे हुए हैं. यहां एक ऐसा साझा दिल है जिसमें संसार की हर औरत की धड़कने दर्ज हैं. यहां एक ऐसा बहनापा है जहां हर स्त्री की गर्भनाल एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं, यहां एक ऐसा सहज सखी भाव है जहां एक का दुख दूसरे का दुख बन जाता है और एक की खुशियां दूसरे का उत्सव बन जाती हैं, यहां साधन संपन्नता और विपन्नता के इतर मनुष्यता की हरी-भरी दुनिया रचती औरतें हैं.
दरअसल, यह उपन्यास उस विराट कथानक का द्वार है जहां स्त्रियां देश, काल,परिस्थिति, जाति, धर्म, समाज और संस्कृति की बेड़ियों, सीमाओं से दूर खड़ीं इस संसार को प्रेम के पाश से बांधे हुए हैं. वे अपनत्व की डोर से और अपने चूल्हे-चौकों में लग रहे प्यार के छौंकों से विश्व की सरदहों को मिला रही हैं. वे उन नदियों की तरह है जो भूगोल, संस्कृति और समाज की सीमाओं से बाहर केवल प्यार बांटती बही जा रही हैं और संपूर्ण मनुष्यता को एक कर रही हैं.
विभा रानी कहती हैं- “जब संपूर्ण विश्व की स्त्रियों के कलेजे धड़कते हैं, तब प्रेम की गंगा, जेहलम, रावी, यमुना, गंडक, गोदावरी, कमला, कोसी और वोल्गा बहती हैं और सभी के भीतर अनदेखी और छुपी हुई सरस्वती भी आहिस्ता-आहिस्ता बहती रहती है”
इस उपन्यास में काजल कौल और सरिता मंडल की छोटी सी दुनिया में स्त्री जीवन की विस्थापन पीड़ा और छूटे हुए शहरों की स्मृतियां भी दर्ज हैं. खासतौर पर उपन्यास के मुख्य पात्र काजल कौल का जीवन कश्मीर से पलायन करने को मजबूर हुए कश्मीरी पंडितों की त्रासदी के बीच खड़ा है. इस उपन्यास के भीतर 2021 के समानांतर काजल कौल जैसी स्त्री पात्र का पूरा अतीत मानों अपनी पीड़ा, संघर्ष और स्त्री जीवन की मुश्किकों के साथ खड़ा होता है. कोमल और मासूम काजल कौल जब दिल्ली में कश्मीरी पंडितों के शरणार्थी कैंप की मुश्किलों में फंसे जीवन, रोजी-रोटी और अस्तित्व से जुड़े सवालों के बीच अपने मां और पिता को पाती है तो अतीत का वह हिस्सा दिल में किसी फांस की तरह चुभता है. अपने शहर, अपनी जड़ों से विस्थापित शरणार्थियों के जीवन की त्रासदी को विभा रानी ने सामाजिक ताने-बाने की विषमताओं के बीच संवेदना के साथ रेखांकित किया है.
खास बात यह है कि यहां विभा रानी ने एक स्त्री की निगाह से इस पूरी त्रासदी को अलग तरह से बयां किया है तो वहीं दूसरी ओर विस्थापन और शरणार्थी होने की इसी पीड़ा को उन्होंने उपन्यास में बेहद संवेदनशील तरीके से छुआ है. 1990 में कश्मीर में आतंकवाद के दंश से भागने को मजबूर हुए कश्मीरी नागरिकों की दिल्ली आकर राहत कैंप की मुश्किलों, कठिन परिस्थतियों के बीच रहकर जिंदगी को नये सिरे से शुरू करने की जद्दोजहद को विभा रानी ने अतीत के ऐसे दृश्यों के जरिए खींचा है जहां एक स्त्री का दिल रो रहा है. एक स्त्री राजनीतिक, सामाजिक टूटन और बिखराव को किस तरह देखती है उसका चित्रण काजल कौल के माध्यम से नया विमर्श पा गया है. यहां एक स्त्री की बचपन की स्मृतियां हैं, अपने मां-बाप के साथ दिल्ली की सर्दी, गर्मी और बरसात में अस्तित्व के संकट से जूझते दिनों का अतीत है. मां और पिता का साझा संघर्ष है, रोजी-रोटी का संकट है और अंधकारमय भविष्य को संवारने की चिंताएं हैं.
काजल के माध्यम से विभा रानी ने उस दौर के साझा संकट को सामने रखा है. वे प्रतीकात्मक रूप में उन सारे विस्थापित और अपना घर-बार छोड़कर खदेड़कर भगा दी गई असंख्य स्त्रियों के बिखरते संसार के दुखों को सामने लाती है, जिनकी उजड़ती दुनिया को कहीं किसी रूप में दर्ज ही नहीं किया गया. यह अकल्पनीय ही है कि एक स्त्री चाहे वह किसी भी धर्म की जाति की हो या समुदाय की हो, जब उसका बसा-बसाया हरा-भरा संसार उजड़ता है तो वह उस तहस-नहस और घायल हुई दुनिया के लहुलुहान हिस्से को लेकर जीवन के अंतिम दिनों तक बार-बार टूटती है. अतीत की हर स्मृति के साथ, जो समय के बीच हर तरह के आकार व प्रकार में ढलती रहती है, अतीत मानों हर मनुष्य की आत्मा में बसने वाला वह समय हो जहां जीवन अपने सबसे कोमल स्वरूप में समा गया हो, इसलिए विभा रानी किसी भी मनुष्य के जीवन में अतीत को बेहद-बेहद महत्वपूर्ण मानती हैं.
वे कहती हैं-
“अतीत ऑक्टोपस है, अतीत अमीबा है, अतीत सफेद रक्तकण हैं. अपने हिसाब से बढ़ने वाला, अपने हिसाब से आकार-प्रकार लेने वाला. प्रत्येक बीता हुआ पल अतीत हो जाता है, जिस अतीत में सुख की झाल और दुख के पैबंद लगे होते हैं. शायद ही कोई इंसान दुनिया में होगा, जिसके पास अपने अतीत की बोरी नहीं होगी. छोटा हो कि बड़ा, रेशमी झालर लगा हुआ हो या चथेड़ी-चफेड़ी. और दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जो अपने अतीत को बिसार देने में पूर्णरूपेण सफल रहा हो.”
यही वजह है कि इस उपन्यास का एक हिस्सा अतीत में सांसे लेता है तो दूसरा वर्तमान के उन चूल्हो-चौकों में जहां स्त्रियां इसी अतीत में लिपटे दुखों में पीड़ा, प्रेम, और अपनत्व के गीत गुनगुनाती हैं. यहां अतीत एक ऐसी दुख की लकीर के रूप में आवाजाही करता है जो वर्तमान और बीते हुए कल को पूरी संवेदना के साथ जोड़ता है. सुख और दुख में डूबा यह अतीत दोनों ही स्त्रियों के भीतर एक ऐसे संसार को रचता है जहां दुनिया की हर स्त्री रहती है जो अपने ही अंतरमन की गांठों को खोलती है और खाना बनाते हुए जीवन की धूप-छांव बांटा करती हैं.
दरअसल, देखा जाए तो इस संसार में हर स्त्री अपने-अपने समय को, बचपन को, बीते हुए दिनों को और भूगोल, संस्कृति और सामाजिक परिवेश में रचे-पगे रिश्तों की आंच को आजीवन महसूस करती रहती है जिन्हें वे सालों पहले कहीं छोड़ आई हैं. विभा रानी का यह संसार एक ओर जहां काजल कौल जैसे स्त्री पात्र के माध्यम से कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की पीड़ा को सामने रखता है तो वहीं दूसरी ओर सरिता मंडल जैसी पात्र के रूप में एक स्त्री के निजी विस्थापन में शहरों को बदलने के संघर्षों, स्त्री होने के दुखों और पितृसत्ता के शोषण को उजागर करता है.
एक जगह वे कहती हैं- औरतों के पास है ही क्या..! उन सबकी तो तकदीर में ही दर-बदर होना लिखा रहता है.
इधर, विभा जी ने स्त्रियों की इस अनदेखी दुनिया के जरिए राजनीति पर भी गहरे कटाक्ष किए हैं. उनकी दृष्टि एक ऐसे नागरिक की है जिसे ना केवल राजनीतिक दुनिया की अपितु उसके फैसलों से प्रभावित होने वाले विशाल जनसमूह की पीड़ा की भी समझ है. उपन्यास में कई ऐसे प्रसंग है जो आपको बहुत ही धीमे से उस जगह ला खड़े करते हैं जहां साफ नजर आता है कि वे सत्ता प्रतिष्ठानों, उनकी नीयत और बेहुदे फैसलों को कटघरे में खड़ा कर रही हैं. इस संदर्भ में उनका यह कहना कि राजनीति और अर्थशास्त्र को वे नहीं समझती हैं, स्वीकृत नहीं हो सकता. अपितु यहां तो यह कहना होगा कि यही उनका मेन कोर्स है, क्योंकि इसमें कोई दो राय नहीं कि उनके पास एक गहरी राजनीतिक दृष्टि है. रंगकर्म और अभिनय की उनकी दुनिया इसी का हस्तक्षेप है. वे बतौर एक जागरूक नागरिक जनपक्षधरता के सवालों को उठाना अच्छी तरह से जानती हैं और उसके तरीके भी सर्वथा भिन्न और मारक हैं, चुभने वाले हैं.
उपन्यास की शुरुआत में समर्पण के रूप में चमचमाती ये लाइनें इस बात की तस्दीक भी करती हैं, जहां वे कहती हैं-
“कांदुर कड़ाही में तब्दील हर औरत के लिए जिसकी देह और दिल में में देश की रूह है और मन में बदलाव का स्वप्न”
दरअसल, इस किताब के पहले पृष्ठ पर दर्ज ये पंक्तियां ना केवल भारत और अपितु पूरी दुनिया की स्त्रियों की पीड़ा, संघर्ष और उनकी आंखों में टिमटिमाते ख्वाबों के लिए हिम्मत और साहस की दुनिया रचती है.
यह लाइनें बताती हैं कि अपनी महीन दृष्टि और समाज के भीतर चल रही उथल-पुथल को विभा जी ने ना केवल महसूस किया है बल्कि राजनीति के बड़े-बड़े फैसलों का छोटे से छोटे वर्ग पर कितना गहरा असर होता है इसकी बानगी उपन्यास में स्वत: दिख जाती है. चाहे फिर सरकार की ओर से बिना सोचे-बिचारे नोटबंदी जैसे फैसले हों या फिर कोरोना जैसी महामारी के समय सरकार के कामकाज करने की दिशा और खासतौर पर लॉकडाउन जैसे फैसले, वे सभी पर अपनी शैली में तीखे प्रहार करती हैं. सरकार के इन सभी फैसलों का हाशिये पर पड़े एक बड़े वर्ग, मजदूर, कामकाजी और रोजी-रोटी की तलाश में काम करने वाले एक बड़े निम्न और मध्यवर्गीय समुदाय पर क्या असर हुआ इन सभी को विभा रानी ने अपनी तरह से कटघरे में ल लिया है. खासतौर पर सरिता मंडल जैसे पात्रों के माध्यम से जिनका अपना जीवन रोज कमाने और रोज जीने की जद्दोजहद के संघर्ष में है.
चौके-चूल्हे की दुनिया के इतर विभा रानी के पात्र समस्याओं, दुर्घटनाओं के विस्थापन के बरक्स एक स्त्री जीवन में लगातार दर्ज होते संघर्षों को भी दर्ज करते हैं. विभा जी ने सरिता मंडल के जरिए एक कामकाजी और बाहर निकलकर अपने पैरों पर खड़ी होने वाली औरतों की दुनिया में भी प्रवेश किया है. वे ऐसी औरतों के संघर्ष और उनकी छोटी-छोटी खुशियों, जीत-हार, सुख-दुख और छोटी सपनों की उड़ान को भी सामने लाती हैं. सरिता मंडल के जीवन संषर्घ के मार्फत वे पितृसत्ता की चालाकियों, लड़कियों के प्रति संकुचित नजरिए और उन्हें लगातार पीछे धकेलने की मानसिकता पर चोट करती हैं. वे एक पूरे सिस्टम को उघाड़ती हैं कि आज भी 21वी सदी के भारत में लड़कियों और लड़कों को देखने का तरीका बदला नहीं है. कहीं किसी खोह में समाज के अवचेतन में एक भेदभाव चोरी छिपे अपना काम कर रहा है.
विभा बताती हैं कि किस तरह लड़कियों/ औरतों की दुनिया, चाहे वह मुंबई में हो या दिल्ली या फिर बिहार के किसी सुदूर गांव में, पितृसत्ता की परंपराएं घात लगाकर अपने अतीत से उठती हुई आती हैं और सपनों का हरा-भरा संसार खड़ा कर रही लड़कियों को धर दबोचती हैं, फिर उन्हें कुचलती हैं और उनकी दुनिया चूल्हे-चौके में कैद कर देती हैं.
एक मद्धम गति, सरल और तकरीबन ठहरते से अंदाज में शुरू होता यह उपन्यास लगता ही नहीं है कि यह विभा जी का पहला उपन्यास है. मसालों, रेसिपीज और खाना बनाने की बातों से भरी हुई पंक्तियां कब अपनी अनूठी भाषा, शिल्प और संवाद की गजब की शैली से कब आपको स्त्रियों के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन के दुखों, तकलीफों में प्रवेश करा देंगी पता ही नहीं चलता है. इस उपन्यास को पढ़ा जाना और इस पर चर्चा की जाने की इसलिए भी आवश्यकता है क्योंकि यह स्त्री जीवन के उस समय और संसार की कथा है, जहां अनकही टीसें दर्ज हैं, वे संघर्ष जिन्हें देखा ही नहीं गया, वे दुख शामिल हैं जिन्हें दुख माना ही नहीं गया और उन अनगिनत, असंख्य सपनों के टूटने की आवाजें हैं जिन्हें कभी सुना ही नहीं गया.
विभा रानी के अपने शब्दों में कहूं तो-
मैंने रेसिपी को ही अपने इस उपन्यास का मुख्य आधार बनाया है. बहुत मुमकिन है कि आपको इतनी सारी रेसिपी पढ़ने से चिढ़ हो और आप झुंझला जाएं कि यह उपन्यास है कि रेसिपी बुक? आप इरीटेट होते हैं कि हल्दी-हींग के अलावा इन औरतों के पास कुछ होता ही नहीं? यकीन मानिए, अगर ऐसा होता है तो मैं अपने इस उपन्यास लेखन की कोशिश को सफल मानूंगी. बस एक बार गुजारिश जरूर करना चाहूंगी कि एक बार जरूर ये सोचिएगा कि ये औरतें ऐसी क्यों और कैसे हो गईं? यह जरूर सोचिएगा कि जिन्हें हम दिन-रात रसोई में झोंके रहते हैं उनको उनको कोई स्पेस क्यों नहीं देते? उनके सवालों को संबोधित क्यों नहीं करते? उनके कामों के लिए उनको कोई सिला क्यों नहीं देते?
इस अनूठे और अलहदा विषय पर लिखे उपन्यास के लिए विभा रानी के बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं.
सारंग उपाध्याय
———————————————–
The post कांदुर कड़ाही: चूल्हे-चौके से बाहर रौशन होती एक दुनिया appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..