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फरवरी: कुछ प्रेम कविताएं: देवेश पथ सारिया

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देवेश पथ सारिया समकालीन युवा कविता का जाना पहचाना नाम है।। आज उनकी कुछ कविताएँ पढ़िए फ़रवरी माह के नाम-
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फ़रवरी: कुछ प्रेम कविताएं
 
शीर्षक: होंठ
यह मुझसे कहा था एक लड़की ने-
“गुलाबी और लाल के बीच
एक रंग पोशीदा
तुम्हारे होंठ हैं
देर तक चूमने लायक
न कम, न ज़्यादा,
बिल्कुल ठीक मोटाई के
तुम्हारा चुंबन एक मिठास है
ऐन, मेरे स्वादानुसार!”
नाक के नीचे और ठोड़ी के ऊपर
मैं उसका चाय का प्याला था
जिसमें मलाई की पपड़ी जमती छोड़कर
वह चली गई, नमक की गुफ़ा में।
 
~ देवेश पथ सारिया
 
 
शीर्षक: यदि मैं तुम्हारा हुआ
 
पुनर्नवा होता है हर बार प्रेम
 
बड़ी ख़ुशी से बनूंगा मैं
तुम्हारे जीवन का
दूसरा, तीसरा या चौथा प्रेमी
मैं तुलना नहीं करूंगा
तुम्हारे प्रेम की तीव्रता की
 
तमाम प्रयत्नों में विफल होने के बाद
तुम चाहोगी तो विदा हो जाऊंगा
चुपचाप
 
किसी ख़ुशनुमा लहर के
चट्टान पर पड़ने जैसी
ठंडक देती हॅंसी तुम्हारी
प्रतिध्वनित होती रहेगी
मेरी दसों दिशाओं में
 
चिरकाल तक रहेगी
अक्षुण्ण तुम्हारी स्मृति
 
बस, मैं नहीं होना चाहूंगा
तुम्हारा दूसरा कवि।
 
~ देवेश पथ सारिया
 
 
शीर्षक: कहोगी नहीं, तुम रहोगी
 
मैं मेज़ की तरफ़ झुकता हूं
और, थोड़ा और
बैठ जाता हूॅं उकड़ू
 
मेज़ पर तुम्हारा चश्मा है
उसमें से होकर मैं देखता हूॅं
तुम्हारे ही समायोजन से तुम्हें
 
सामने दृश्य में होंठ ढंके हैं
एक हाथ पर टिकी दूसरे हाथ की हथेली है
कहोगी नहीं, तुम रहोगी साथ?
 
बोधि वृक्ष की छाया में
स्वांत सुखाय-सा, तुम्हारे बालों का मुड़ना है
आंखों के सामने एक लट का ढुलकना है
मुझसे समकोण बनाती गर्दन तुम्हारी
निगाहें टिकी हैं खिड़की पर
 
तुम्हारे बालों के दरीचे से
बाॅंयी पुतली को देखता हूं
कलकल जल, नभ, थल देखता हूॅं।
 
~ देवेश पथ सारिया
 
शीर्षक: दिलचस्प इकहरे विषय
प्रथम दृष्टया,
शुरुआत और अंत
इकहरे विषय हैं प्रेम के
फिर भी उन्हीं पर लिखता हूॅं कविता हर बार
 
बीच की घटनाओं का समुच्चय
महाकाव्य या उपन्यास का मसौदा है
और मैं काबिलियत नहीं रखता दोनों ही लिखने की
(फ़िलहाल?)
 
~ देवेश पथ सारिया
 
शीर्षक: प्रेम क्लीषे?
 
किसी भी उम्र में
प्रेम नाम की घटना की शुरुआत
उन्हीं फिल्मी गीतों से होती है
जिन्हें सुनता रहा
जवान होने के दौरान
 
कच्ची उम्र से दिखती है
वही मनीषा कोइराला
हंसती हुई, झूला झूलती हुई
 
कमबख़्त,
हर बार होता है प्रेम मुझे
हॅंसी और आंखों से
 
रंग और आकार भले ही
बदलते रहते हों आँखों के,
बहुत कुछ एक जैसा होता है
हर बार प्रेम में
इतने पर भी प्रीत का ढंग
क्लीषे मुझे कभी नहीं लगा ।
 
~ देवेश पथ सारिया
 
शीर्षक: फिर भी
 
लंबी छुट्टियों के बाद खुली थी यूनिवर्सिटी
कई ऋतुओं के बाद लौट आया था वसंत
 
वे कुछ लड़कियाँ थी
संख्या में ऋतुओं जितनी ही
जो वसंत का पर्याय हो सकती थीं
 
लौट आया था मेरा कवि, जिसने सोचा-
कितने लड़कों के अधूरे ख़्वाब जा रहे‌ हैं
 
थोड़ी देर बाद
वे रुकी कहीं
उनसे आगे निकल गया मैं
देखता हुआ
लड़कियों के चेहरों पर मास्क
जिनमें खिलखिला रही थीं वे
 
मुझे याद आए दिन
दोस्तों के साथ तफ़रीह के
मैंने ख़ूब ज़ोर से कहा-
ख़ुश रहो तुम सब
 
मैं नहीं मानता ख़ुद को
आशीर्वाद देने लायक उम्रदराज़
फिर भी…।
 
~ देवेश पथ सारिया
 
शीर्षक: मंथन
 
समुद्रों के रहस्य-सी
ग़ुम हुईं तुम
समुद्र खोज
तुम्हें ले आने के
मंथन में
मेरे हिस्से आया विष
भटकना शापग्रस्त
नारद की तरह
अश्वत्थामा की तरह
रहना निरंतर अधमरा
 
अब मैं वैतरणी तरना चाहता हूँ
मैं अपने भीतर मथना चाहता हूँ
 
~ देवेश पथ सारिया
 
शीर्षक: शून्य की ओर
 
कभी उनका हो जाने को बाधित
कभी उनके छिन जाने से व्यथित
 
इस छोर से उस सिरे तक
रिश्ते का होना संपादित
 
पुरातन से मन को तन से
पृथक करते आ रहे बधिक
 
मृत्यु नहीं पर मृत्यु सरीखा
जीवंत पथ टोहता पथिक
 
आस-भरोस क्षीण
शून्य से निकटता होती अधिक।
 
~ देवेश पथ सारिया
 
शीर्षक: और इसीलिए
 
कोई नहीं लिखेगा
अब तुम्हारे लिए कविताएं
 
यदि यह कविता है
तो है, अंतिम
 
तुम नहीं पढ़ पाओगी इसे
और इसीलिए है यह मामूली
और इतनी-सी।
 
~ देवेश पथ सारिया
 
 

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