
अनुकृति उपाध्याय एक दुर्लभ द्विभाषी लेखिका हैं अंग्रेज़ी में लिखे अपने उपन्यास ‘kintsugi’ के लिए उनको इस साल सुशीला देवी सम्मान से नवाज़ा गया है। उनकी कहानियों, उनके उपन्यास ‘नीना आंटी’ ने लेखकों पाठकों के दिल में एक खास जगह बनाई है। वह कविताएँ भी लिखती हैं। आज उनकी कुछ कविताएँ पढ़िए-
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न्यू यॉर्क : एक सेब
१
गर्मी की एक दोपहरी न्यूयॉर्क की पैंसठवी वीथि और पाँचवे पथ के संगम पर
मैंने देखा –
सेब एक
धरा इकेला लाल धधकता
पथरीली अनधुली भीत पर
जैसे कोई देव अजाना अनपूजा
धूमिल धूसर प्रस्तर वेदी पर थापित शापित
ऐसा वह सेब अटपटा भटका भरमा
कसे-फँसे ललचे-परचे
सरपट फिरते इस महानगर में इकलंगा
यह सेब
२
चिमनियों से उठती है भाप
कामनाएँ आँखों से ढाँप
अनगिनत जन नापते फिरते हैं गलियाँ –
हार्लेम, ब्रूक्लिन, हेल्ज़ किचन,
ब्रॉंक्स, चैल्सी, मैन्हैटन
चीखते हैं दिन-रात
साइरनों के चेताते कंठ
ऐम्ब्युलन्स, पुलिस-गाड़ियाँ,
अग्निशमन के भारी-भरकम यंत्र
थरथर करता है शहर
भयों से घिरा-घिरा
अविराम दौड़तीं सब-वे रेलों में लदा-भरा
ऐसे में यह सेब –
रुका-टिका छूटा-भूला
सिकामोर और एल्म, ओक और मेपल वृक्षों की हरी झिलमिली में दिपता
अडिग अडोला सेब
३
सेज़ान आँकता इसकी लाल ओप को
या मोने इसकी माणिक छाया
मुफ़लिसी के अपने दीर्घ दिनों में
जबकि खाने को जुट जाए जो
उसी से भरनी होती थी भूख
तूलिका की उनको
रंग-रेख संयोजन से अनमोल अनूठा
हो उठता
मामूली ये सेब अधूरा, डार से छिटका
४
लिखता शायद मारकेज़
अपने अद्भुत, सच या सपना लहज़े में
समय-धार में बहते निश्चल
विरत-निरत यात्री
इस सेब की गाथा
या फिर
टोक्यो की अत्याधुनिक किसी रेल पर
निरुद्देश्य इस सेब-सरीखे
आते-जाते
गुनता मुराकामी
क्षण भर को एक झलक भर
अपलक देखे
सदा को भीतर छूटे
इस सेब की उलझन
५
लेसर बिंदु सा रक्त-वर्ण ये सेब
नियोन का एक कुमकुमा बुझा हुआ
देख जिसे रैपगान का कोई कलावंत अतरंगा
गाता गीत
क्रोध के घने लाल रंग में डूबा-उतरा
गोदने गुदी बाहुओं में भर कर विस्तार दमन का
जो बहता आया उस तक सदियों की दूरी पूर
कपास के खेतों से न्यू यॉर्क नगर के महामार्गों तक
यदि देख वह पाता
यह सेब अकेला
लाल ख़ून में आलूदा ज्यों हृदय नगर का
भूल जिसे बढ़ गई भीड़
क्रूर-कठिन अनजान पथों पर
सैन फ़्रैन्सिस्को – सितम्बर 28th
मैं बढ़ती जाती हूँ द्रुत क़दमों पोस्ट स्ट्रीट पर
शीश झुकाए, नज़र चुराए
कनखियों से तकती
धृष्ट चाँद
जो तोड़ हर नियम
बर्फ़ के घुलते डले सा
ज्योतित है
इस नए-पुराने नगर के मध्याह्न-पूर्व नभ में
वह नभ जो है पिघले काँच सा दीपित गहराsss नील
नीलतर उस नीले रंग से ईजाद है जो ईव क्लाइन की
और जिसे देखा था मैंने
अधीर अचरज से
मोमा की एक दीवार पर
नीली-बर्फ़ीली आग सा दिपते
(इस हद की उद्धतता कि जिस से रंजित है सागर, अम्बर और नीलकंठों का सुनील पर उस रंग-द्रव केआविष्कार का दंभ!
मैं चुपके निःशब्द पूछती हूँ चाँद से-
किसकी है ईजाद यह
आड़े-तिरछे कोणों में कटा सैन फ़्रैन्सिस्को का नीलाकाश
जिसे हर पल अँकुवाती हैं नई-पुरानी, बड़ी महत्त्वाकांक्षिणी इमारतें?)
लेकिन मैं रुक नहीं सकती उत्तरों के लिए
मेरे लिए प्रतीक्षारत है वह धूप
यूनियन स्क्वेर में
जो अभी अभी ही छू कर आई है
ऊँचे खम्भे पर पंजों के बल खड़ी
उर्ध्वमुखी प्रार्थना सी देवकन्या को
जो अर्पित कर रही है इकसाथ
मातमी हार और विजय-शूल विजित नभ को
(इस से मुझे क्या कि यह विजयस्तंभ है एक पुराने, युवा रक्त में डूबे रण का
जिसके छिटके लहू-कण मुझ तक आते-आते
अय्यारों-से यों बदल लेते हैं रूप
कि उन्हें देख नहीं पाती मैं
सुर्ख़ गुलाबों और कविता की पंक्तियों से अलगा कर?
मेरे लिए बस सुखकर है निरखना
इस जघन्य स्मारक पर ठिठकी
यह मायावी अस्पृश्य सुंदरता,
वैसे ही जैसे देखना
क्रूर-कटे आदिम नीले अम्बर में क्षण क्षण छीजता चाँद।)
ट्रामों की खड़ाऊँ-खटपट और शहर की दीगर धातुई ध्वनियों में सहसा उठता है एक स्त्री-स्वर –
‘मुझे वापस दे मेरी गठरी
चोर, गलकट, गिरहमार
दे, अभी दे
मैंने तेरे घूरे-से घिनाते घर को घिस-घिस कर किया है साफ़
रात-दिन
अंधे ग़ार से
भूतों के बाड़े से तेरे घर को
किरणों सा चमकाया
मेरी ओर तेरा कुछ नहीं निकलता
कुछ भी नहीं
मेरा सामान दे, मा…’
आर्तनाद और ललकार के बीच निरंतर डोलता है उसका कंठस्वर
आँसू और अंगारों में एक साथ भीगा धधकता
काली चुस्त अंगिया और पतलून में मँडरा रही है वह झाईं सी स्त्री
एक लम्बे-तगड़े मर्द के गिर्द
जिसकी चमड़े की जैकेट चिलकती है धूप में
ज़िंदा खाल सी
‘दे, मेरा बस्ता मुझे
कंधे पर लाद कर निकली थी जिसे मैं छोटे से शहर के अपने टूटे से घर से
तुझ सों से बच कर
दे, हलकट, मैंने चुकता दिया है हर हिसाब…’
वह झाड़ती है कंधे
झटकारती है बिखरे बाल
तिलमिलाती है उस ग़ुस्से से
गालियों और आँसुओं में नहीं है जिसका निस्तार
शहतीर सा लम्बा तगड़ा आदमी
बुड़बुड़ाता है उत्तर में
उसकी अधीर फूत्कारों पर गर्दन अकड़ा मुँह बिचकाता
वह जानता है अपनी ताक़त
और साथ ही काली पोशाक़ वाली औरत की असहाय-कंठ, ख़ाली-हाथ अंधी हताश शक्ति
‘दे दे मेरा सामान
हत्यारे
बजमारे
नरक के कीट
मैंने धोई-पोंछी है तेरी ग़लाज़त
अपने हाथों से…’
मैं रुक गई हूँ अनचाहे
इस जलते-पिघलते दुःख से फुटपाथ पर चिपक कर रह गए हैं मेरे पाँव
इस बर्फ़ानी हताशा से जम गई है मेरी माँसपेशियों की हरक़त
लम्बा तगड़ा आदमी मेरी ओर फेरता है
काले चश्मे-ढँकी अंधी आँखें
‘यह पगली है
विश्वास करो
बिल्कुल चली हुई, नशेड़ी’
वह अँगुलियाँ हिलाता है
‘डबलरोटी की जगह चरस से भरती है पेट
देखती ही हो तुम इसे –
नाले सा इसका मुँह
गंदी भदेस गालियाँ भलभल बहतीं…’
ग़ुस्से से बल खाती वो औरत
मुझ पर डालती है हताश हिक़ारत की नज़र
‘लौटा मेरा सामान, मरदूद
अभी लौटा
मैंने पखारा तेरा घर
मल-मल कर साफ़ किया तेरा गुसलख़ाना
पैख़ाना
रसोईघर
मुझ पर नहीं है कुछ भी तेरा कर्ज़
दे मुझे जो मेरा है…’
‘तुम देख रही हो’
लम्बा तगड़ा आदमी मोड़ता है अपनी भुजाएँ
और उभारता है माँसपेशियों की मछलियाँ
‘तुम देखती हो खड़ा कर रही है ये कैसा बवाल
कुतिया, साली…’
मैं मुड़ पड़ती हूँ
यह चीखती-गुहारती औरत
यह ऐंठता अकड़ता आदमी
इनका यह विषैला झगड़ा
यह मेरा मसला नहीं है
मैं हूँ यात्री, इस विकट परदेस में निपट परदेसी
मैं जानती ही नहीं असहाय की सहाय के नियम
मुझे सिर्फ़ सिखाया गया संभल संभल कर बच निकलना
और अपनेआप भी मैंने सीखा बस गुज़ारे लायक़
मसलन –
दे देना कुछ सिक्के बख़्शीश में कॉफ़ी बनाने वाली लड़की को उसकी नियमित मुस्कान के बदले
मसलन –
ट्राम में उठ पड़ना देख कर सामान से लदी-फँदी बच्चेदार माँ को और सौंप देना उसे अपना स्थान एकशिष्ट इशारे से
मसलन –
ख़रीद देना सुबह का कलेवा सड़क-किनारे बैठी औरत को जिस की तख़्ती पर लिखा है – भले लोगों, तुम मेरा पेट भरो, मैं तुम्हारी आत्मा तृप्त करूँगी
और अनदेखा कर नीले काँच के आकाश में जड़ा चाँद
निश्चित समय पर मिल लेना धूप से यूनीयन स्क्वेर में
मेरे लिए पराए हैं इस शहर के निवासी
इनके सरोकार
इनके पहेली-सरीखे उलझे-उलझे दुःख
हालाँकि भीतर-भीतर मैं जानती हूँ (और तुम भी)
कि कोई पीड़ा पराई नहीं
न कोई वेदना अपर
वे हमें वैसे ही छूती हैं नीलगूं हाथों से
जैसे आकाश
या सुदूर के युद्ध
जो वस्तुतः हैं बेहद बेहद निकट
जैसे कि काली अंगिया वाली इस स्त्री का हताश रोषऔर ज़िंदा खाल सी जैकेट वाले उस पुरुष की अकड़ती शक्ति
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